सी. एन. अन्नादुराई: Difference between revisions

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[[तमिलनाडु]] की राजनीति में प्रसिद्धि पाने वाले और वहाँ अपनी विशेष पहचान कायम करने वाले सी. एन. अन्नादुराई का निधन [[3 फ़रवरी]], [[1969]] में हुआ। इनकी असामयिक मूत्यु ने इन्हें मुख्यमंत्री के रूप में दो वर्ष से भी कम अवधि तक प्रदेशवासियों की सेवा करने का ही अवसर दिया, तथापि यह अल्पावधि भी अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण साबित हुई।
[[तमिलनाडु]] की राजनीति में प्रसिद्धि पाने वाले और वहाँ अपनी विशेष पहचान कायम करने वाले सी. एन. अन्नादुराई का निधन [[3 फ़रवरी]], [[1969]] में हुआ। इनकी असामयिक मूत्यु ने इन्हें मुख्यमंत्री के रूप में दो वर्ष से भी कम अवधि तक प्रदेशवासियों की सेवा करने का ही अवसर दिया, तथापि यह अल्पावधि भी अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण साबित हुई।


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Revision as of 12:22, 6 January 2020

सी. एन. अन्नादुराई
पूरा नाम कान्जीवरम नटराजन अन्नादुराई
जन्म 15 सितम्बर, 1909
जन्म भूमि कांचीपुरम, तमिलनाडु
मृत्यु 3 फ़रवरी, 1969
मृत्यु स्थान मद्रास
अभिभावक नटराजन एवं बांगरु अम्मल
पति/पत्नी रानी अन्नादुराई
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राजनीतिज्ञ, पूर्व मुख्यमंत्री (तमिलनाडु)
पार्टी 'द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम' (डी.एम.के.)
कार्य काल फ़रवरी, 1967 से 3 फ़रवरी, 1969
शिक्षा बी.ए.; एम.ए.
विद्यालय 'मद्रास विश्वविद्यालय'
विशेष योगदान अन्नादुराई जी राजकाज में क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के पक्षपाती थे। इन्होंने अपने प्रदेश में तमिल भाषा के प्रयोग को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया।
अन्य जानकारी मद्रास राज्य का नामकरण 'तमिलनाडु' करने का श्रेय भी अन्नादुराई को ही जाता है। इनकी असामयिक मूत्यु ने इन्हें मुख्यमंत्री के रूप में दो वर्ष से भी कम अवधि तक ही प्रदेशवासियों की सेवा करने का अवसर दिया।

कान्जीवरम नटराजन अन्नादुराई (अंग्रेज़ी: Conjeevaram Natarajan Annadurai; जन्म- 15 सितम्बर, 1909, तमिलनाडु, ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 3 फ़रवरी, 1969, मद्रास) तमिलनाडु की राजनीति में काफ़ी महत्त्वपूर्ण प्रभाव रखते थे। उन्हें 'अन्ना' अर्थात 'बड़ा भाई' कहकर सम्बोधित किया जाता था। सी. एन. अन्नादुराई तमिलनाडु के लोकप्रिय नेता, भारत के प्रथम गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री एवं 'द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम' दल के संस्थापक थे। तम्बाकू से रचे दाँत, खूँटीदार दाढ़ी और लुभावनी शुष्क आवाज़ वाले अन्नादुराई के साथ आधुनिक तमिलनाडु की कहानी जुड़ी हुई है। सी. एन अन्नादुराई ऐसे प्रथम नेता थे, जिनकी देश के स्वतंत्रता संग्राम में कोई भूमिका नहीं थी। अन्नादुराई भारतीय राजनीति के कभी भी ख़िलाफ़ नहीं रहे, किन्तु उन्होंने 'भारतीय संविधान' में अपने राज्य के लिए अधिक स्वायत्तता चाही थी।

जन्म

सी. एन. अन्नादुराई का जन्म 15 सितम्बर, 1909 में ब्रिटिशकालीन मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के निकट कांचीपुरम, तमिलनाडु में हुआ था। ये एक निम्न मध्यम वर्गीय हिन्दू परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इनके पिता का नाम नटराजन एवं माता बांगरु अम्मल थीं। सी. एन. अन्नादुराई के पिता बुनकर का कार्य करते थे।

शिक्षा तथा विवाह

अन्नादुराई ने अपनी शिक्षा-दीक्षा मद्रास तथां कांचीपुरम में पूर्ण की थी। 21 वर्ष की आयु में छात्र जीवन में ही सी. एन. अन्नादुराई का विवाह रानी अन्नादुराई से हुआ। उन्होंने सन 1934 में बी. ए. की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद 'मद्रास विश्वविद्यालय' से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। स्नातकोत्तर की परीक्षा के पश्चात् उन्होंने लगभग एक वर्ष तक हाईस्कूल में अंग्रेज़ी अध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य भी किया। तभी उनका रूख पत्रकारिता और राजनीति की ओर उन्मुख हुआ, जो कि उनके जीवन में प्रधान दिलचस्पी के रूप में था।

संपादक तथा लेखक

तमिल जागरण में अन्नादुराई के निबंधों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने 'जस्टिस' नामक तमिल पत्र के सहायक संपादक एवं बाद में 'विदुघलाई' नामक पत्र के संपादक के पद पर कार्य किया था। सी. एन. अन्नादुराई ने सन 1942 में तमिल साप्ताहिक 'द्रविड़नाड़', सन 1957 में अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'होमलैंड' तथा एक वर्ष पश्चात् 'होमरूल' नामक पत्रिका निकाली थी। ये हिन्दी के प्रबल विरोधी तथा तमिल भाषा और साहित्य के पुनरुत्थानकर्ता थे। अन्नादुराई ने अनेक तमिल अखबारों, जैसे- 'विदुलहलाई', 'कुदी अरसु', 'देविनधन्दु', 'मैलई मनी' और 'कांची' इत्यादि को सहयोग दिया। उनकी साहित्य में भी गहरी दिलचस्पी थी तथा उन्होंने नाटककार एवं लेखक के रूप में लघु कथाएँ भी लिखी थीं।

राजनीति में प्रवेश

सी. एन. अन्नादुराई ने अपने प्रारंभिक राजनीतिक कैरियर में 'जस्टीस पार्टी' को सहयोग दिया तथा कांग्रेस का विरोध किया। वे सन 1934 में पेरियार ई. वी. रामास्वामी के सम्पर्क में आये थे। 'जस्टीस पार्टी' का सन 1949 में 'द्रविड कड़गम' नाम से पुनः नामकरण किया गया। इसने अपने पूर्व ब्रिटिश दृष्टिकोण बदल दिया तथा यह पार्टी मानवीय मूल्यों पर आधारित पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई।

मुख्यमंत्री

1949 में ही 'द्रविड कड़गम' का विभाजन हो गया तथा अन्नादुराई ने 'द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम' नाम से पार्टी की शुरुआत की। 1957 में मद्रास विधान सभा का सदस्य निर्वाचित होने के साथ अन्नादुरई का सक्रिय राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ। मद्रास में जल्दी ही 'डी.एम.के.' पार्टी मजबूत ताकत के रूप में उभरी। 1962 में वे राज्य सभा में गए और 1967 में आम चुनाव में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम को पूर्ण बहुमत मिला और अन्नादुरई मद्रास के गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने।

क्षेत्रीय भाषा के समर्थक

अन्नादुराई जी राजकाज में क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के पक्षपाती थे। इन्होंने अपने प्रदेश में तमिल भाषा के प्रयोग को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। मद्रास राज्य का नामकरण 'तमिलनाडु' करने का श्रेय भी अन्नादुराई को ही जाता है। तमिलनाडु का मुख्यमंत्रित्व ग्रहण करने के पूर्व राज्य सभा के सदस्य के रूप में भी इन्होंने ख्याति प्राप्त की थी। सन 1967 के महानिर्वाचन में तमिलनाडु में 'द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम' की अभूतपूर्व सफलता ने अन्नादुराई को अपने दल को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठापित करने की प्रेरणा प्रदान की थी। यदि असमय ही ये कालकवलित न हो गए होते तो संभवतः भविष्य में 'द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम' का स्थान 'भारत मुन्नेत्र कड़गम' ने ले लिया होता।

अन्नादुरई हिंदी भाषा के प्रबल विरोधी थे। जस्टिस पार्टी भी प्रारंभ से ही कांग्रेस की विरोधी थी। सी. राजगोपालाचारी के मुख्यमंत्रित्व काल में हिंदी का विरोध करने के कारण अन्नादुराई को जेल भी जाना पड़ा था। तमिल भाषा के प्रभावशाली लेखक के रूप में प्राप्त प्रतिष्ठा का उनको राजनीतिक लाभ मिला था। 1944 में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर ‘द्रविड़ कड़गम’ रख लिया गया। नई पार्टी में अपनी नीति में भी परिवर्तन किया। पुराने नेता पेरीयार इस परिवर्तन के समर्थक नहीं थे। पेरीयार चाहते थे कि 15 अगस्त, 1947 को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया जाए, पर अन्नादुराई इसके पक्ष में नहीं थे। इसी मतभेद के कारण 1949 में ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ नामक नया दल बना और जीवनपर्यंत वे उसके एकछत्र नेता रहे।[1]

निधन

तमिलनाडु की राजनीति में प्रसिद्धि पाने वाले और वहाँ अपनी विशेष पहचान कायम करने वाले सी. एन. अन्नादुराई का निधन 3 फ़रवरी, 1969 में हुआ। इनकी असामयिक मूत्यु ने इन्हें मुख्यमंत्री के रूप में दो वर्ष से भी कम अवधि तक प्रदेशवासियों की सेवा करने का ही अवसर दिया, तथापि यह अल्पावधि भी अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण साबित हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 28-29 |

बाहरी कड़ियाँ

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