सोलह संस्कार: Difference between revisions
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'''जिस प्रकार किसी मलिन वस्तु''' को धो-पोंछकर शुद्ध-पवित्र बना लिया जाता है अथवा जैसे सुवर्ण को आग में तपाकर उसके मलों को दूर किया जाता है और उसके मल जल जाने पर सुवर्ण विशुद्ध रूप में चमकने लगता है, ठीक उसी प्रकार से संस्कारों के द्वारा जीव के जन्म-जन्मान्तरों से संचित मलरूप निकृष्ट कर्म-संस्कारों का भी दूरीकरण किया जाता है। यही कारण है कि हमारे [[सनातन धर्म]] में बालक के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक और फिर बूढ़े होकर मरने तक संस्कार किये जाते हैं। जैसा कि शास्त्र में कहा गया है— | '''जिस प्रकार किसी मलिन वस्तु''' को धो-पोंछकर शुद्ध-पवित्र बना लिया जाता है अथवा जैसे सुवर्ण को आग में तपाकर उसके मलों को दूर किया जाता है और उसके मल जल जाने पर सुवर्ण विशुद्ध रूप में चमकने लगता है, ठीक उसी प्रकार से संस्कारों के द्वारा जीव के जन्म-जन्मान्तरों से संचित मलरूप निकृष्ट कर्म-संस्कारों का भी दूरीकरण किया जाता है। यही कारण है कि हमारे [[सनातन धर्म]] में बालक के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक और फिर बूढ़े होकर मरने तक संस्कार किये जाते हैं। जैसा कि शास्त्र में कहा गया है— | ||
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'संस्कार' शब्द् 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'कृञ्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय लगाने पर 'संपरिभ्यां करोतौ भूषणे' इस पाणिनीय सूत्र से भूषण अर्थ में 'सुट्' करने पर सिद्ध होता हैं इसका अर्थ है—संस्करण, परिष्करण, विमलीकरण तथा विशुद्धकिरण आदि।
महत्त्व
जिस प्रकार किसी मलिन वस्तु को धो-पोंछकर शुद्ध-पवित्र बना लिया जाता है अथवा जैसे सुवर्ण को आग में तपाकर उसके मलों को दूर किया जाता है और उसके मल जल जाने पर सुवर्ण विशुद्ध रूप में चमकने लगता है, ठीक उसी प्रकार से संस्कारों के द्वारा जीव के जन्म-जन्मान्तरों से संचित मलरूप निकृष्ट कर्म-संस्कारों का भी दूरीकरण किया जाता है। यही कारण है कि हमारे सनातन धर्म में बालक के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक और फिर बूढ़े होकर मरने तक संस्कार किये जाते हैं। जैसा कि शास्त्र में कहा गया है—
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः।
निषेकाद्याः श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः।।
मान्यता मतभेद
गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि कर्म तक द्विजमात्र के सभी संस्कार वेद-मन्त्रों के द्वारा ही होते हैं। संस्कार से मनुष्य द्विजत्व को प्राप्त होता है। संस्कारों की मान्यता में कुछ मतभेद भी हैं। गौतम धर्मसूत्र (1।8।8)-में 40 संस्कार माने गए हैं--'चत्वारिंशत् संस्कारैः संस्कृतः।' महर्षि अंगिरा 25 संस्कार मानते हैं। परन्तु व्यास स्मृति में 16 संस्कार माने गये हैं।
सोलह संस्कारों के नाम इस प्रकार है
- गर्भाधान
- पुंसवन
- सीमन्तोन्नयन
- जातकर्म
- नामकरण
- निष्क्रमण
- अन्नप्राशन
- चूड़ाकरण
- कर्णवेध
- उपनयन
- केशान्त
- समावर्तन
- विवाह
- वानप्रस्थ
- परिव्राज्य या संन्यास
- पितृमेध या अन्त्यकर्म
अभिप्राय
इन संस्कारों का व्यासस्मृति एवं मनुस्मृति के विभिन्न श्लाकों में महत्त्वपूर्ण ढंग से वर्णन किया गया है। अतः इन संस्कारों का अनुष्ठान नितान्त आवश्यक है। इन संस्कारों के करने का अभिप्राय यह है कि जीव न जाने कितने जन्मों से किन-किन योनियों में अर्थात पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सरीसृप, स्थावर, जग्डम, जलचर, थलचर, नभचर एवं मनुष्य आदि योनियों में भटकते हुए किस-किस प्रकार के निकृष्टतम कर्म-संस्कारों को बटोरकर साथ में ले आते हैं, इसका उन्हें पता नहीं चलता है। इन्हीं कर्म संस्कारों को नष्ट-भ्रष्ट करके या क्षीण करके उनके स्थान में अच्छे और नये संस्कारों को भर देना या उत्पन्न कर देना ही इन संस्कारों का अभिप्राय है।
गुण प्रदाता
संस्कारों से ही बालक सदगुणी, उच्च विचारवान्, सदाचारी, सत्कर्मपरायण, आदर्शपूर्ण, साहसी एवं संयमी बनता है। बालक के ऐसा बनने पर देश तथा समाज भी ऐसा ही बनता है, किन्तु बालक के संस्कारहीन होने से वह देश को बिगाड़ेगा, अर्थात अधर्माचरणवाला, नास्तिक तथा देशद्रोही बनकर समाज को दूषित करेगा। जिसके परिणामस्वरूप वह चोरी, डकैती, आतंकवाद, कलह, वैर तथा युद्ध जैसी परिस्थिति उपस्थित कर सकता है। इसलिये हिन्दू समाज के बालकों का जन्म के पूर्व ही संस्कार कराने का विधान है।
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