अग्नि परीक्षा: Difference between revisions

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Revision as of 08:49, 2 April 2012

अग्नि परीक्षा एक परीक्षण विधि है, जिसमें अग्नि द्वारा स्त्रियों के सतीत्व का तथा अपराधियों के निर्दोष होने का परीक्षण किया जाता है। भारत तथा भारतेत्तर देशों में अग्नि द्वारा परीक्षण अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित रहा है। परीक्षा का मूल यह है कि अग्नि जैसे तेजस्वी पदार्थ के सम्पर्क में आने पर, जो वस्तु या व्यक्ति किसी प्रकार का विकार प्राप्त नहीं करता, वह वस्तुत: विशुद्ध, दोषरहित तथा पवित्र माना जाता है।

प्राचीनता

भारतवर्ष में भगवती सीता की 'अग्नि परीक्षा' इस विषय का नितान्त प्रख्यात उदाहरण है। स्त्रियों के सतीत्व का 'अग्नि परीक्षा' का प्रकार यह है कि संदिग्ध चरित्र वाली स्त्री को हल्का लोहे का फार आग में खूब गरम कर जीभ से चाटने के लिए दिया जाता है। यदि उसका मुँह नहीं जलता, तो वह सती समझी जाती थी। प्राचीन भारत के समान यूरोप में भी चोरों के दोषा-दोष की परीक्षा आग के द्वारा की जाती थी। अंग्रेज़ी में इसे 'आरडियल' कहते हैं तथा संस्कृत में 'दिव्य'।

परीक्षण प्रक्रिया

स्मृतियों में दिव्यों के अनेक प्रकार निर्दिष्ट किये गए हैं, जिनमें 'अग्नि परीक्षा' अन्यतम प्रकार है। इसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-पश्चिम दिशा से पूरब की ओर गाय के गोबर से नौ मंडल बनाने चाहिए, जो अग्नि, वरुण, वायु, यम, इन्द्र, कुबेर, सोम, सविता तथा विश्वदेव के निमित्त होते हैं। प्रत्येक चक्र 16 अंगुल के अर्धव्यास का होना चाहिए और दो चक्रों का अन्तर 16 अंगुल का होना चाहिए। प्रत्येक चक्र को कुश से ढंकना चाहिए, जिस पर शाध्य व्यक्ति अपना पैर रखे। तब एक लौहार 50 पल वजन वाले तथा आठ अंगुल लम्बे लोहे के पिंड को आग में खूब गरम करे।

परीक्षक न्यायाधीश शाध्य व्यक्ति के हाथ पर पीपल के सात पत्ते रखे और उनके ऊपर अक्षत तथा दही डोरी से बाँध दे। तदन्तर उसके दोनों हाथों पर तृप्त लौह पिंड संडसी से रखे जायें और प्रथम मंडल से लेकर अष्टम मंडल तक धीरे-धीरे चलने के बाद वह उन्हें नवम मंडल के ऊपर फेंक दे। यदि उसके हाथों पर किसी प्रकार की न तो जलन हो और न फफोला उठे, तो वह निर्दोष घोषित किया जाता था। 'अग्नि परीक्षा' की यही प्रक्रिया सामान्य रूप से स्मृतिग्रन्थों में भी दी गयी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 21 |


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