रसखान का भक्तिरस: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "श्रृंगार" to "शृंगार") |
||
Line 19: | Line 19: | ||
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।<br /> | हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।<br /> | ||
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।<br /> | जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।<br /> | ||
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो हे रसखानी॥<ref>सुजान रसखान,4; नाट्यशास्त्र, 3।19-22</ref> उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन में यह स्पष्ट है कि रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से | त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो हे रसखानी॥<ref>सुजान रसखान,4; नाट्यशास्त्र, 3।19-22</ref> उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन में यह स्पष्ट है कि रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से शृंगार के कवि हैं। उनका शृंगार कृष्ण की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है। | ||
{{संदर्भ ग्रंथ}} | {{संदर्भ ग्रंथ}} |
Revision as of 13:21, 25 June 2013
हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। [[चित्र:raskhan-2.jpg|रसखान के दोहे, महावन, मथुरा|thumb|250px]]
- संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों- मम्मट, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि ने रसों की संख्या नौ मानी है। उन्होंने भक्ति को रस-कोटि में नहीं रखा। उनके अनुसार भक्ति देव विषयक रति, भाव ही है। अभिनव गुप्त ने भक्ति का समावेश शांत रस के अंतर्गत किया।[1]
- धनंजय ने इसको हर्षोत्साह माना।[2]
- भक्ति को रसरूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय वैष्णव आचार्यों को है। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक शास्त्रीय विवेचन के आधार पर भक्ति रस को अन्य रसों से उत्तम बताया।
- मधुसूदन सरस्वती ने 'भक्ति रसायन' में भक्ति रस की स्थापना की। उनका तर्क है कि 'जब अनुभव के आधार पर सुखविरोधी क्रोध, शोक, भय आदि स्थायी भावों का रसत्व को प्राप्त होना मान लिया गया है तो फिर सहस्त्रगुणित अनुभव सिद्ध भक्ति को रस न मानना अपलाप है, जड़ता है।[3] वास्तविकता तो यह है कि भक्ति रस पूर्ण रस है, अन्य रस क्षुद्र हैं, भक्तिरस आदित्य है, अन्य रस खद्योत हैं।[4]
- काव्यशास्त्र की दृष्टि से भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्रति है।[5]
- भक्ति रस के आलंबन भगवान और उनके भक्तगण हैं।[6] भक्तिरस के आश्रय भक्तगण हैं। भगवान का रूप (वस्त्र आदि) और चेष्टाएं उद्दीपन विभाव मानी गई हैं।
- भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा में तैंतीस संचारी माने गये हैं।[7] भक्ति रस के आचार्यों ने भक्ति रस के विवेचन में तैतीसों को भक्तिरस का संचारी माना है। रसखान के काव्य में निर्वेद[8] के साथ-साथ घृति[9], हर्ष[10] स्मृति[11] आदि संचारी भावों की निबंधना हुई है। रसखान के काव्य में भक्ति रस के आलम्बन भगवान श्रीकृष्ण हैं। उनका बांसुरी बजाना तथा भक्तों पर रीझना भक्तों की दृष्टि में उद्दीपन विभाव हैं। निम्नांकित पद में भक्ति रस की अकृत्रिम व्यंजना है—
देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन, सौ गुन औगुन गाँठि परैगौ।
बाँसुरीवारो बड़े रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिय की हरैगौ।[12] रसखान देश-विदेश के राजाओं को त्यागकर भगवान कृष्ण की शरण में आए हैं। उनका विश्वास है कि श्रीकृष्ण शीघ्र ही उन पर अनुग्रह करके संकटों का निवारण करेंगे। सभी प्रकार के प्रेमियों की यह विशेषता होती है कि वे अपने प्रेम पात्र में संबद्ध पदार्थों के संपर्क से आनन्द का अनुभव करते हैं। भक्ति में भी यह विशेषता द्रष्टव्य है। भक्त भगवान के अधिक-से-अधिक सान्निध्य में रहना चाहता है। अपनी लीला का भक्तों को आनंद देने वाले भगवान की लीलाभूमि, भक्तों के लिए विशेष आनन्ददायिनी होती है। उस भूमि से संबद्ध प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ भगवान की महिमा से मंडित दिखायी पड़ता है। अत: भक्त कवि जन्मजन्मांतर तक उस लीलाभूमि से संबंध बनाये रखना चाहता है—
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।
जौ खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन॥[13] यहाँ भगवान कृष्ण आलंबन हैं, उनका गोवर्धन पर्वत को धारण करना उद्दीपन विभाव है, घृति संचारी भाव के द्वारा भक्तिरस का परिपाक हो रहा है। निम्न पद में आत्म समर्पण की भावना है। रसखान द्वारा किया गया हर कार्य केवल भगवान के लिए हो, ऐसी अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहते हैं—
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।
जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो हे रसखानी॥[14] उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन में यह स्पष्ट है कि रसखान ने भक्तिरस के अनेक पद लिखे हैं, तथापि उनके काव्यों में भक्तिरस की प्रधानता नहीं है। वे प्रमुख रूप से शृंगार के कवि हैं। उनका शृंगार कृष्ण की लीलाओं पर आश्रित है। अतएव सामान्य पाठक को यह भ्रांति हो सकती है कि उनके अधिकांश पद भक्ति रस की अभिव्यक्ति करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से जिन पदों के द्वारा पाठक के मन में स्थित ईश्वर विषयक-रतिभाव रसता नहीं प्राप्त करता, उन पदों को भक्ति रस व्यंजक मानना तर्क संगत नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि रसखान भक्त थे और उन्होंने अपनी रचनाओं में भजनीय कृष्ण का सरस रूप से निरूपण किया है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अतएवेश्वर प्रणिधान विषये भक्ति श्रद्धे स्मृति मति घृत्युत्साहानुप्रविष्टे अन्यथैवांगम् इति न तयो: पृथग्सत्वेनगणनाम्। अभिनव भारती, जिल्द 1, पृ0 340
- ↑ दशरूपक, 4 । 83
- ↑ भक्तिरसायन, 2 । 77-78
- ↑ भक्तिरसायन, 2 । 76
- ↑ स्थायी भवो त्र सम्प्रोक्त: श्री कृष्ण विषया रति:। हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2 । 5 । 2
- ↑ हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2 । 1 । 16
- ↑ नाट्यशास्त्र,3/19-22, काव्यप्रकाश, 4।31-34
- ↑ सुजान रसखान, 8
- ↑ सुजान रसखान, 1
- ↑ सुजान रसखान, 12,13,14,15
- ↑ सुजान रसखान, 18
- ↑ सुजान रसखान, 7
- ↑ सुजान रसखान, 1
- ↑ सुजान रसखान,4; नाट्यशास्त्र, 3।19-22
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख