यदुनाथ सिंह: Difference between revisions

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'''यदुनाथ सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Jadunath Singh'', जन्म: [[21 नवम्बर]], [[1916]] - मृत्यु: [[6 फ़रवरी]], [[1948]]) [[परमवीर चक्र]] से सम्मानित भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन [[1948]] में मरणोपरांत मिला।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
नायक यदुनाथ सिंह का जन्म [[21 नवम्बर]] [[1916]] को [[शाहजहाँपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]]) के गाँव खजूरी में हुआ था। इनके पिता बीरबल सिंह एक किसान थे। यदुनाथ अपने पिता के 8 पुत्रों में से एक थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई गाँव के स्कूल में शुरू तो हुई लेकिन उनका पढ़ाई में मन नहीं लगा। उन्हें तो खेल-कूद का ही जबरदस्त नशा था। वह गाँव में सबकी मदद के लिए हाजिर रहते थे। और जोखिम भरे कारनामे उनका शौक था। यदुनाथ में देशभक्ति की भावना बचपन से थी, साथ ही वह [[हनुमान]] के भक्त थे और लोग उन्हें 'हनुमान भक्त' कहकर बुलाते थे। हनुमान की तरह ही वह अविवाहित भी रहे।
नायक यदुनाथ सिंह का जन्म [[21 नवम्बर]] [[1916]] को [[शाहजहाँपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]]) के गाँव खजूरी में हुआ था। इनके पिता बीरबल सिंह एक किसान थे। यदुनाथ अपने पिता के 8 पुत्रों में से एक थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई गाँव के स्कूल में शुरू तो हुई लेकिन उनका पढ़ाई में मन नहीं लगा। उन्हें तो खेल-कूद का ही जबरदस्त नशा था। वह गाँव में सबकी मदद के लिए हाजिर रहते थे। और जोखिम भरे कारनामे उनका शौक़ था। यदुनाथ में देशभक्ति की भावना बचपन से थी, साथ ही वह [[हनुमान]] के भक्त थे और लोग उन्हें 'हनुमान भक्त' कहकर बुलाते थे। हनुमान की तरह ही वह अविवाहित भी रहे।
==सेना में भर्ती==
==सेना में भर्ती==
[[21 नवम्बर]] [[1941]] को यदुनाथ सिंह को मनचाहा काम मिल गया। उस समय वह मात्र 26 वर्ष के थे और उन्होंने फौज में प्रवेश किया। उन्हें राजपूत रेजिमेंट में लिया गया। वहीं उनको [[जुलाई]] [[1947]] में लान्स नायक के रूप में तरक्की मिली और इस तरह [[6 जनवरी]] [[1948]] को वह टैनधार में अपनी टुकड़ी की अगुवाई कर रहे थे और इस जोश में थे कि वह नौशेरा तक दुश्मन को नहीं पहुँचने देंगे।  
[[21 नवम्बर]] [[1941]] को यदुनाथ सिंह को मनचाहा काम मिल गया। उस समय वह मात्र 26 वर्ष के थे और उन्होंने फौज में प्रवेश किया। उन्हें राजपूत रेजिमेंट में लिया गया। वहीं उनको [[जुलाई]] [[1947]] में लान्स नायक के रूप में तरक्की मिली और इस तरह [[6 जनवरी]] [[1948]] को वह टैनधार में अपनी टुकड़ी की अगुवाई कर रहे थे और इस जोश में थे कि वह नौशेरा तक दुश्मन को नहीं पहुँचने देंगे।  

Revision as of 13:40, 2 September 2013

यदुनाथ सिंह
पूरा नाम नायक यदुनाथ सिंह
जन्म 21 नवम्बर, 1916
जन्म भूमि जम्मू
मृत्यु 6 फ़रवरी, 1948
मृत्यु स्थान बदगाम, जम्मू और कश्मीर
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र भारतीय सैनिक
पुरस्कार-उपाधि परमवीर चक्र
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)
बटालियन राजपूत रेजिमेंट
अन्य जानकारी बचपन में यदुनाथ हनुमान के भक्त थे और लोग उन्हें 'हनुमान भक्त' कहकर बुलाते थे। हनुमान की तरह ही वह अविवाहित भी रहे।

यदुनाथ सिंह (अंग्रेज़ी:Jadunath Singh, जन्म: 21 नवम्बर, 1916 - मृत्यु: 6 फ़रवरी, 1948) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन 1948 में मरणोपरांत मिला।

जीवन परिचय

नायक यदुनाथ सिंह का जन्म 21 नवम्बर 1916 को शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश) के गाँव खजूरी में हुआ था। इनके पिता बीरबल सिंह एक किसान थे। यदुनाथ अपने पिता के 8 पुत्रों में से एक थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई गाँव के स्कूल में शुरू तो हुई लेकिन उनका पढ़ाई में मन नहीं लगा। उन्हें तो खेल-कूद का ही जबरदस्त नशा था। वह गाँव में सबकी मदद के लिए हाजिर रहते थे। और जोखिम भरे कारनामे उनका शौक़ था। यदुनाथ में देशभक्ति की भावना बचपन से थी, साथ ही वह हनुमान के भक्त थे और लोग उन्हें 'हनुमान भक्त' कहकर बुलाते थे। हनुमान की तरह ही वह अविवाहित भी रहे।

सेना में भर्ती

21 नवम्बर 1941 को यदुनाथ सिंह को मनचाहा काम मिल गया। उस समय वह मात्र 26 वर्ष के थे और उन्होंने फौज में प्रवेश किया। उन्हें राजपूत रेजिमेंट में लिया गया। वहीं उनको जुलाई 1947 में लान्स नायक के रूप में तरक्की मिली और इस तरह 6 जनवरी 1948 को वह टैनधार में अपनी टुकड़ी की अगुवाई कर रहे थे और इस जोश में थे कि वह नौशेरा तक दुश्मन को नहीं पहुँचने देंगे। उस दिन नायक यदुनाथ सिंह मोर्चे पर केवल 9 लोगों की टुकड़ी के साथ डटे हुए थे कि दुश्मन ने धावा बोल दिया। यदुनाथ अपनी टुकड़ी के लीडर थे। उन्होंने अपनी टुकड़ी की जमावट ऐसी तैयार की, कि हमलावरों को हार कर पीछे हटना पड़ा। thumb|left|नायक यदुनाथ सिंह

भारत-पाक युद्ध (1947)

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

एक बार मात खाने के बाद दुश्मन ने दुबारा हौसला बनाया और पहले से ज्यादा तेजी से हमला कर दिया। इस हमले में यदुनाथ के चार सिपाही बुरी तरह घायल हो गये। लेकिन यदुनाथ का हौसला बुलंद था। दुश्मन बौखलाया हुआ था, हिंदुस्तान की फौजों की अलग अलग मोर्चों पर कामयाबी ने पाकिस्तानी सैनिकों को परेशान किया हुआ था। उनका मनोबल तथा आत्मविश्वास वापस लाने के लिए पाकिस्तानी टुकड़ियों से उनके नायक दूरदराज के इलाकों में हमला करवा रहे थे। उन्होंने 6 हजार सैनिकों की फौज के साथ 2 पंजाब बटालियन से 23/24 दिसम्बर 1947 को झांगर से पीछे हटा लिया गया था। और अब यह लग रहा कि दुश्मन का अगला निशाना नौशेरा होगा। उसके लिए ब्रिगेडियर उस्मान हर संभव तैयारी कर लेना चाहते थे। नौशेरा के उत्तरी छोर पर पहाड़ी ठिकाना कोट था, जिस पर दुश्मन जमा हुआ था। नौशेरा की हिफाजत के लिए यह जरूरी था कि कोट पर कब्जा कर लिया जाए। 1 फरवरी 1948 को भारत की 50 पैरा ब्रिगेड ने रात को हमला किया और नौशेरा पर अपना कब्जा मजबूत कर लिया। इस संग्राम में दुश्मन को जान तथा गोला बारूद का बड़ा नुकसान उठाना पड़ा और हार कर पाकिस्तानी फौज पीछे हट गई।

अंतिम समय

6 फरवरी 1948 का हमला पाकिस्तानी फौजों की इसी बौखलाहट का नतीजा था। वह बार बार हमले कर रहे थे। इन्हीं हमलों का मुकाबला करते हुए यदुनाथ सिंह के चार सिपाही घायल हो गये। यदुनाथ सिंह का जोश इस स्थिति का सामना करने को तैयार था। तभी दुश्मन की ओर से तीसरा हमला हुआ। इस बार दुश्मन की फौज की गिनती काफी थी और वह ज्यादा जोश में भी थे। यदुनाथ के पास कोई भी सिपाही लड़ने के लिए नहीं बचा था, सभी घायल और नाकाम हो चुके थे। ऐसे में नायक यदुनाथ सिंह ने फुर्ती से अपने एक घायल सिपाही से स्टेनगन ली और लगातार गोलियों की बौछार करते हुए बाहर आ गये। इस अचानक आपने सामने की लड़ाई से दुश्मन एक दम भौचक रह गया। और उसे पीछे हटना पड़ा। इस बीच ब्रिगेडियर उस्मान सिंह को हालात का अंदाज़ा हो गया था और उन्होंने 3 पैरा राजपुत की टुकड़ी टैनधार की तरफ भेज दी थी। यदुनाथ सिंह को उनके आने तक डटे रहना था। तभी अचानक एक सनसनाती हुई गोली आई और यदुनाथ सिंह के सिर को भेद गई। वह वहीं रणभूमि में गिरे और हमेशा के लिए सो गये।
उनकी इस शहादत से उनके घायल सैनिकों में जोश का संचार हुआ और वह उठ खड़े हुए। तब तक, 3 पैरा राजपूत की टुकड़ी भी वहाँ पहुँच चुकी थी। नौशेरा पर दुश्मन नाकाम ही रहा, लेकिन नायक यदुनाथ सिंह वीरगति को प्राप्त करते हुए और मरणोपरांत परमवीर चक्र के अधिकारी हुए।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- परमवीर चक्र विजेता| लेखक- अशोक गुप्ता| पृष्ठ संख्या-38

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख