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*[http://rahulscoins.blogspot.in/2011_05_01_archive.html  India-British Rare Coins]
==संबंधित लेख==
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टकसाल
विवरण टकसाल, उस कारखाने को कहते हैं, जहाँ देश की सरकार द्वारा या उसके दिए अधिकार से उस देश की मुद्राओं का निर्माण होता है।
इतिहास मुद्राओं का सर्वप्रथम निर्माण संभवत: ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में लघु एशिया के लिडिया प्रदेश में हुआ। लगभग इसी काल में इनका चलन चीन में आरंभ हुआ और वहाँ से इनकी प्रथा जापान और कोरिया में फैली।
भारतीय विधि 1851 ई. में कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) की टकसाल में चाँदी के आमापन की भारतीय विधि का आविष्कार हुआ था। सिक्कों और धातु मुद्राओं में चाँदी का आमापन करने के लिये शताधिक वर्षों तक इस विधि का प्रयोग हुआ।
भारत में टकसाल भारत में टकसाल कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद और उत्तर प्रदेश के नोएडा में स्थित हैं।
निर्माण कार्य प्राचीन काल में मुद्राएँ उत्कीर्णित ठप्पों के बीच रखकर और हथौड़े की चोट देकर बनाई जाती थीं। भारत के देशी राज्यों में यह रीति 19वीं शती तक प्रचलित थी। कहीं-कहीं सिक्के ढाले भी जाते थे। आधुनिक टकसालों में निर्माण कार्य मुख्यत: मशीनों द्वारा संपादित होता है।
संबंधित लेख भारतीय रुपया, भारतीय रिज़र्व बैंक
अन्य जानकारी भारत में सन 1941 तक सोने और चाँदी के सिक्कों के 12 अंश में 11 अंश शुद्ध धातु रहती थी, पर इस वर्ष के पश्चात्‌ चाँदी के सिक्कों में चाँदी का भाग आधा कर दिया गया।[1]

टकसाल (अंग्रेज़ी:Mint) उस कारखाने को कहते हैं, जहाँ देश की सरकार द्वारा या उसके दिए अधिकार से मुद्राओं का निर्माण होता है। भारत में टकसाल कोलकाता, मुम्बई, हैदराबाद और उत्तर प्रदेश के नोएडा में स्थित हैं। 1851 ई. में कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) की टकसाल में चाँदी के आमापन की भारतीय विधि का आविष्कार हुआ था। सिक्कों और धातु मुद्राओं में चाँदी का आमापन करने के लिये शताधिक वर्षों तक इस विधि का प्रयोग हुआ। काँसा, ताँबा-निकल, निकल-पीतल और रजत की मिश्रधातु से भारत में सिक्के बनते रहे थे। शुद्ध निकल का प्रयोग 1946 ई. में, जब सिक्कों में चाँदी का प्रयोग धीरे-धीरे समाप्त किया जाने लगा, प्रारंभ हुआ था।

इतिहास

मुद्राओं का सर्वप्रथम निर्माण संभवत: ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में लघु एशिया के लिडिया प्रदेश में हुआ। लगभग इसी काल में इनका चलन चीन में आरंभ हुआ और वहाँ से इनकी प्रथा जापान और कोरिया में फैली। निश्चित रूप से कहना कठिन है कि भारत में इनका निर्माण कब प्रारंभ हुआ, किंतु चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में अवश्य हो गया था। अति प्राचीन काल से मुद्राएँ धातु की बनती आई हैं। इस कार्य के लिए 'इलेक्ट्रम'[2], सोना, चाँदी, ताँबा और काँसे का प्रयोग होता आया है। इनके अतिरिक्त सीसा, लोहा, ऐल्युमिनियम तथा निकल का भी आधुनिक काल में प्रयोग हुआ।[1]

ताँबे की मिलावट

पहले शुद्ध सोने या चाँदी की मुद्रा बनाने को महत्व दिया जाता था, क्योंकि व्यापार में अन्य देशों के लोग ऐसी मुद्राओं को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। किंतु यह देखा गया कि सोना या चाँदी में ताँबे का योग देने से न केवल धातु का मूल्य कम पड़ता है, वरन्‌ उसमें कठोरता आ जाने के कारण मुद्राएँ शीघ्र घिसती भी नहीं और चलन में अधिक दिन रह पाती हैं। इस पर क्षय होना, जंग या मुर्चा लगने के कारण भी हो सकता है और ताँबे की अधिक मात्रा की उपस्थिति यह दोष उत्पन्न कर देती है। अत: यह आवश्यक है कि ताँबे की मिलावट इतनी ही की जाए कि संक्षरण न होने पाए। thumb|left|भारतीय आधा आना का सिक्का (1945)

सोने और चाँदी के सिक्के

  • ग्रीक देश में सर्वप्रथम सोने और चाँदी के सिक्के शुद्ध धातु के बनाए जाते थे, किंतु रोम सम्राटों के काल में इनमें ताँबा मिलाया जाने लगा। रोम साम्राज्य के अंतिम काल के सिक्कों में दो प्रतिशत, या इससे भी कम, सोने का अंश होता था। मध्य काल के पश्चिमी यूरोप में फिर शुद्ध धातुओं का व्यवहार होने लगा। इंग्लैंड में 22 कैरेट के (11/12 शुद्ध) सोने का व्यवहार सन 1526 ई. से आरंभ हुआ। सैक्सन काल के इंग्लेंड में सिक्कों की चाँदी के 40 भाग में 3 भाग मिश्रधातु रहती थी, किंतु बाद में अधिक खोट मिलाने लगे। सन 1920 में चाँदी का अंश आधा बांध दिया गया। फ़्राँस में तथा अन्य अनेक देशों के सोने और चाँदी, दोनों प्रकार के सिक्कों के दस अंश में नौ अंश शुद्ध धातु रहती है।
  • भारत में सन 1941 तक इन्हीं दोनों धातुओं के सिक्कों के 12 अंश में 11 अंश शुद्ध धातु रहती थी, पर इस वर्ष के पश्चात्‌ चाँदी के सिक्कों में चाँदी का भाग आधा कर दिया गया।
  • संयुक्त राज्य अमरीका में सन 1934 से दस भाग में से नौ अंश शुद्ध तथा भार में 15 5/21 ग्रेन सोने के डॉलर का प्रचलन आरंभ हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य सन 1942 से पाँच सेंट की मुद्राएँ 25 प्रतिशत चाँदी, 56 प्रतिशत ताँबा तथा 09 प्रतिशत मैंगनीज़ की बनने लगीं, किंतु सन 1945 से इस मिश्रधातु के स्थान पर 75 प्रतिशत ताँबा, 25 प्रतिशत निकल की मिश्रधातु का प्रयोग आरंभ किया गया। 1946 से पूर्व इस देश के चाँदी के सिक्कोंं में 90 प्रतिशत चाँदी और 10 प्रतिशत ताँबा रहता था।
  • छोटी मुद्राओं के लिए फ़्राँस ने 95 प्रतिशत ताँबा, 04 प्रतिशत टिन और 01 प्रतिशत जस्ता का प्रयोग आरंभ किया और इसकी देखा-देखी प्राय: अन्य सब देश भी यही करने लगे। 1861 ई.में चाँदी के स्थान पर बेल्जियम में एक ताम्र निकल[3] धातु का, जिसमें 75 प्रतिशत ताँबा और 25 प्रतिशत निकल रहता था, प्रयोग आरंभ हुआ। 1947 से मुद्राओं में चाँदी के स्थान पर इसी धातु का प्रयोग इंग्लैंड में आरंभ हुआ और शीघ्र ही अन्य देशों में भी होने लगा। निकल-पीतल के सिक्के भी, जिसमें 79 प्रतिशत ताँबा, 20 प्रतिशत जस्ता तथा 01 प्रतिशत निकल रहता था, अनेक देशों में बनने लगे। संयुक्त राज्य अमरीका के एक सेंट की मुद्राएँ काँसे के स्थान पर फ़रवरी, 1943 से जस्ते की तह चढ़े हुए इस्पात की बनाई जाने लगीं, किंतु दस महीने बाद इनका बनाना बंद कर दिया गया।[1]

मुद्रा का निर्माण

thumb|350px|एक पैसा, दो पैसा, तीन पैसा, पाँच पैसा, दस पैसा, बीस पैसा (बाएँ से दाएँ)
25 पैसा, 50 पैसा, 1 रुपया, दो रुपया, पाँच रुपया (दाएँ से बाएँ)
प्राचीन काल में मुद्राएँ उत्कीर्णित ठप्पों के बीच रखकर और हथौड़े की चोट देकर बनाई जाती थीं। भारत के देशी राज्यों में यह रीति 19वीं शती तक प्रचलित थी। कहीं-कहीं सिक्के ढाले भी जाते थे। आधुनिक टकसालों में निर्माण कार्य मुख्यत: मशीनों द्वारा संपादित होता है। यह आठ पदों में पूरा किया जात है-

धातु शोधन

इस कार्य के लिये विद्युतद्विश्लेषक[4] विधि अपनाई जाती है; फिर शुद्ध धातुओं के मिश्रण को गलाकर सिलों में ढाला जाता है; इसके बाद सिलों को बेलकर पट्टियाँ बनाई जाती हैं। यह कार्य ढाली हुई सिलों या पासों को बारबार कई बेलनों के बीच चाँदी या अन्य धातु की पट्टियों में से काटकर बनाया जाता है। यह यंत्र एक बार में दो निरंक मुद्राओं की चकतियाँ बनाता है।

चकतियों का तापानुशीतन तथा सफाई

चकतियों को भट्ठियों में गरम कर ठंढा करते हैं, जिससे वे कुछ कोमल हो जाती हैं। इस क्रिया के पश्चात्‌ उनका रंग काला-सा हो जाता है। तब ये गरम तनु सल्फ्यूरिक अम्ल तथा बाइक्रोमेट के मिश्रण में डाल दी जाती हैं। इसमें से ये स्वच्छ होकर निकलती हैं। धोने से अम्ल दूर हो जाता है और तब ये सुखा ली जाती हैं।thumb|left|दस पैसे (1961), पाँच पैसे (1963), पच्चीस पैसे (1947) और एक पैसे (1964) के भारतीय सिक्के (बांये से दांये)

स्थूलन

बेलन द्वारा चकतियों के किनारों को उठा हुआ बनाया जाता है। यह इसलिए कि व्यवहार में आने पर तैयार मुद्रा के अंकादि घिसे नहीं। इसी समय किनारों पर अक्षर या कोई डिजाइन ढाल दी जाती है। ऐसे कुछ भारतीय सिक्कों पर खड़ी धारियाँ या दाँत रहते हैं। चकतियों को तौलकर अधिक या कम भार वालों को अलग करते हैं। सदोष चकतियों को निकालकर फिर से गला डालते हैं। प्रत्येक चकती नीचे वाले ठप्पे पर रखी जाती है और ऊपर वाला ठप्पा उस पर जोर से आकर गिरता है। दवाब से कोमल धातु, श्यान ठोस की भाँति, ठप्पों के स्थानों को भर देती है, किंतु चोट पड़ने के समय चकती को एक कंठा घेरे रहता है, जिसके कारण चकती चौड़ाई की इस भारी यंत्र की चोट से अनेक टनों की दाब पड़ती है तथा पहले से तैयार की हुई कोरी चकतियों पर मुद्रा का नक्शा उभर आता है। अंत में प्रत्येक मुद्रा को देखकर तथा तौलकर उसकी परीक्षा की जाती है। देखने वाले के सम्मुख ये मुद्राएँ चलपट्टों पर रखी इस प्रकार आती हैं कि बारी-बारी से उनका चित और पट्ट भाग ऊपर आ जाता है। कम मूल्य की मुद्राओं को छोड़कर, अन्य की तौल भी जाँची जाती है। यह कार्य स्वयंचालित तराजुओं से लिया जाता है। पूर्वोक्त परीक्षाओं में सच्ची उतरने पर ही मुद्राएँ टकसाल से बाहर चलन में आती हैं।[1]

सिक्कों का आमापन

यह वह विधि है, जिसके द्वारा यह जाँच की जाती है कि सिक्कों की मिश्रधातुओं में भिन्न-भिन्न धातुओं का अनुपात निर्धारित सीमा के अनुसार है या नहीं। दो या अधिक धातुओं की मिश्रधातु से साधारणत: सिक्कों का निर्माण होता है। मिश्रधातु की अवयव धातुओं का अनुपात निश्चित रूप से निर्धारित रहता है। सिक्का बनाने के पूर्व, मिश्रधातु की अवस्था में ही, आमापन अधिक महत्वपूर्ण होता है। सिक्का बन जाने के बाद आमापन बतौर जाँच के हो सकता है। सिक्के में यदि एक ही धातु हो तो धातु और सिक्का दोनों का आमापन समान रूप से आवश्यक है, जिससे धातु में ऐसे हानिकारक अपद्रव्य न प्रविष्ट हो जाएँ, जिनसे सिक्का निर्माण की अनेक अवस्थाओं में धातु की कार्यकारिता और गुणों पर गंभीर कुप्रभाव पड़े, या प्रचलित हो जाने पर सिक्के के गुणों में अंतर हो जाए। काँसा, ताँबा-निकल, निकल-पीतल और रजत की मिश्रधातु से भारत में सिक्के बनते रहे हैं। शुद्ध निकल का प्रयोग 1946 ई. में, जब सिक्कों में चाँदी का प्रयोग धीरे-धीरे समाप्त किया जाने लगा, प्रारंभ हुआ। काँसे के सिक्के में ताँबा, टिन और जस्ता तथा रजतमिश्र धातु के सिक्के में साधारणतया केवल चाँदी का आमापन किया जाता है। शुद्ध निकल के सिक्कों में निकल और हानिकारक अपद्रव्य के रूप में कार्बन, गंधक आदि का आमापन होता है। धातुओं के आमापन की विधियों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया गया है।

ताँबे का आगणन

thumb|300px|भारतीय एक रुपया (1990) ताँबे के आगणन[5] की दो विधियाँ हैं-

  1. आयतनमितीय विधि
  2. भारमितीय विधि

आयतनमितीय आगणन

इसमें तापन द्वारा मिश्रधातु या सिक्के के तुले हुए भाग को तनु नाइट्रिक अम्ल में विलीन किया जाता है। अभिक्रिया की समाप्ति और सिक्के के टुकड़े के पूर्णत: विलीन होने पर विलयन को वाष्म्पीकरण द्वारा लगभग सुखा लेते हैं। काँसे का सिक्का होन पर, उत्मुक्त टिन आँक्साइड को छानकर, जल से भली प्रकार धो लेते हैं और विलयन या छनित में इतना ऐमोनियम हाइड्रोक्साइड मिलाते हैं कि वह अल्प एमोनियामय हो जाय। इसके बाद इस विलयन में ठोस पोटेसियम आयोडाइड या उसका सांद्र विलयन मिलाते हैं, जिससे आयोडोन उन्मुक्त होता है। स्टार्च विलयन को सूचक[6] बनाकर उन्मुक्त आयोडिन के साथ मानक सोडियम थायोसल्फेट से अनुमापन[7] करते हैं। इसी विधि से शुद्ध विद्युद्विश्लेषित ताँबे के प्रति आंमापन करके सोडियम थायोसल्फेट का मानकीकरण करते हैं।[1]

भारमितीय आगणन

इसमें सिक्के या मिश्रधातु के तुले हुए परिमाण को तनु सल्फूरिक और नाइट्रिक अम्ल के मिश्रण में विलीन करते हैं। यदि आवश्यक हो तो मिश्रधातु के पूर्णत: विलीन होने पर विलयन को छान लेते है और उसका तनूकरण करके, उसके अंदर तुला हुआ प्लैटिनम गाँज़ ओर प्लैटिनम तार रखकर, बैटरी के ऋण तथा धन ध्रुवों से जोड़कर विलयन का विद्युद्विश्लेषण करते हैं। विलयन का ताँबा गाँज़ पर संचित होता है। संचय क्रिया पूर्ण होने पर गाँज को पानी और ऐलकोहल से धोने के बाद सूखाकर तौलते हैं। गाँज के भार में वद्धि से आमापन के लिये लिए हुए सिक्के या मिश्रधातु के तुले हुए परिमाण में ताँबे की मात्रा ज्ञात होती है, जिससे ताँबे की प्रतिशतता की गणना की जाती है। thumb|left|भारतीय एक रुपया (2002)

टिन का आगणन

इसमें मिश्रधातु या सिक्के के तुले हुए परिमाण को तनु नाइट्रिक अम्ल में, आवश्यक हुआ तो तापन द्वारा, विलीन करते हैं। मिश्रधातु के पूर्णतया विलीन होने पर विलयन को गरम धातु पट्ट पर रखकर कुछ सांद्र करके एवं पुन- तनु करके, फिर से उसे गरम धातु पट्ट पर रख देते हैं, ताकि उत्मुक्त टिन आँक्साइड नीचे बैठ जाए। टिन ऑक्साइड में फिल्टर पत्र की थोड़ी-सी लुगदी मिलाकर छानते हैं और छनित को ताँबे से मुक्त होने तक एक प्रतिशत नाइट्रिक अम्ल से अच्छी तरह घोते हैं। अवक्षेप को सुखाने के बाद पोर्सिलेन की तुली हुई मूषा[8] में प्रज्वलित करके ठंडा कर तौलते हैं। इस प्रकार प्राप्त टिन ऑक्साइड के भार से सिक्के या मिश्रधातु में टिन का प्रतिशत मालूम हो जाता है।

निकल का आगणन

यदि सिक्के या मिश्रधातु में ताँबा और टिन हो तो उसे अलग करने के बाद अवशिष्ट विलयन में उपस्थित निकल का भारमितीय आगणन मिम्नलिखित प्रकार से किया जाता हैं-

डाइ-मेथिल ग्लाइ ऑक्सिम-

लवण के रूप में सिक्के या मिश्रधातु को उपयुक्त रीति से अम्ल में विलीन किया जाता है। विलयन की उचित मात्रा को तनु करके तनु ऐमोनियम हाइड्रॉक्साइड के मिश्रण से हल्का क्षारीय बनाते हैं। विलयन को गरम करते हैं और गरम विलयन में डाइ-मेथिल-ग्लाइ-ऑक्सिम का ऐलकोहली विलयन अधिकता के साथ मिलाते हैं, जिससे निकल लाल यौगिक के रूप में अवक्षिप्त हो जाता है। इसके बाद विलयन को ऐमोनियम हाइड्रॉक्साइड द्वारा स्पष्ट क्षारीय बनाकर, गरम धातुपट्ट पर जमने के लिये रख छोड़ते हैं। इसके बाद लाल योगिक को तौली हुई छिद्रित मूषा में छानकर और धोकर, भार के स्थिर होने तक 1200-1250 सें. तक गरम करते हैं। इस प्रकार प्राप्त लाल योगिक के भार से सिक्के या मिश्रधातु में निकल के प्रतिशत की गणना करते हैं। निकल मुद्रा में निकल कम से कम 99 प्रतिशत रहना चाहिए। अपद्रव्यों में लोहा 0.2 प्रतिशत, कार्बन 0.6 प्रतिशत और गंधक 0.004 प्रतिशत क्षम्य हैं।thumb|300px|भारतीय 5 रुपये का सिक्का (2002)

विद्युद्विश्लेषिक आगणन-

ताँबे के समान निकल का भी वैद्युत आगणन किया जा सकता है। सिक्के या मिश्रधातु के तुले हुए अंश से, यदि हो तो ताँबा और टिन अलग करके और विलयन को तीव्र ऐमोनियामय करके, उसमें एमोनियम सल्फेट मिलाते हैं। जैसा ताँबे के विद्युद्विश्लेषिक निर्धारण के अंतर्गत वणित है, सेल के ऋणाग्र प्लैटिनम गाँज पर इस विलयन का सारा निकल संचित होता है। इस प्रकार संचित निकल के भार से मिश्रधातु में निकल के प्रतिशत की गणना की जाती है।[1]

जस्ते का आगणन

मिश्रधातु या सिक्के से ताँबा, निकल आदि अन्य धातुओं को अलग करने के बाद उसे जस्ते के लिए आमापित करते हैं। अन्य धातुओं को अलग करने के बाद विलयन की आवश्यक मात्रा को उदासीन करके उसमें इतना सल्फयूरिक अम्ल मिलाते हैं कि विलयन की अंतिम अम्लीय सांद्रता 0.1 नार्मल हो जाय। विलयन में हाइड्रोजन सल्फाइड गैस की तीव्र धारा प्रवाहित करते हैं, जिससे जिंक सल्फाइड अवक्षिप्त हो जाता है। अवक्षेपण पूरा होने पर विलयन को थोड़ी देर के लिए रख छोड़ते हैं और फिर उसे छानकर अवक्षेप को पानी से अच्छी तरह धोते हैं। अवक्षेप को सुखाने के बाद तुली हुई पोर्सिलेन मूषा में सावधानी के साथ जलाते हैं, जिससे सल्फाइड ऑक्साइड में बदल जाता है। प्राप्त जिंक ऑक्सइड के भार से मिश्रधातु या सिक्के में जस्ते के प्रतिशत की गणना कर लेते हैं।

भारतीय विधि

thumb|300px|भारतीय 10 रुपये का सिक्का (2008-09) यद्यपि अब भारतीय सिक्कों में चाँदी का प्रयोग पूर्णत: समाप्त हो गया है और सन 1946 के पूर्व जिन सिक्कों में मुख्य धातु चाँदी होती थी, उनमें चाँदी का स्थान शुद्ध निकल ने ले लिया है, फिर भी भारतीय टकसालों में प्रयुक्त चाँदी के आमापन की विधि का उल्लेख कर देना आवश्यक है। 1851 ई. में कलकत्ता (आधुनिक कोलकाता) की टकसाल में चाँदी के आमापन की भारतीय विधि का आविष्कार हुआ। सिक्कों और धातु मुद्राओं में चाँदी का आमापन करने के लिये शताधिक वर्षों तक इस विधि का प्रयोग हुआ। अन्य सभी देशों की टकसालें चाँदी के आमापन के लिये एक मात्र गे-लूसाक[9] की विधि का प्रयोग करती है, जबकि भारत में देशी विधि का प्रयोग होता था और इस दावे के साथ कि भारतीय विधि गे-लूसाक विधि से अधिक न सही, उसके बराबर परिशुद्ध परिणाम अवश्य देती है।

भारतीय विधि का संक्षिप्त वर्णन

धातु मुद्रा या सिक्के की निश्चित मात्रा लेकर उसके चाँदी को रजत क्लोराइड के रूप में अवक्षिप्त कर लिया जाता है। रजत क्लोराइड के भार से सिक्के या धातु मुद्रा की शुद्धता सीधे ही ज्ञात हो जाती है। आमापन के लिये धातु मुद्रा का परिमाण 18.821 ग्रेन निश्चित है, और यदि यह धातु मुद्रा शुद्ध रजत की बनी हो तो 25 ग्रेन रजत क्लोराइड प्राप्त होता है। धातु मुद्रा को ख़ास आकार प्रकार की, घिसे कांच की, डाटदार बोतल में तनु नाइट्रिक अम्ल में विलीन करते हैं। विलयन पूर्ण होने पर उसे और भी तनु करके, उसमें तनु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल मिलाकर चाँदी को क्लोराइड के रूप में अवक्षिप्त कर लेते हैं। हलोर यंत्र[10] में हलोरने से क्लोराइड आसानी से बैठ जाता है। अत: यंत्र में हलोरकर और फिर बोतल में पानी भरकर एक ओर रख छोड़ते हैं। इसके बाद साइफन से अधिपृष्ठ[11] द्रव सावधानी से निकालते हैं, जिससे कि रजत क्लोराइड न निकल जाए, और बोतल में फिर पानी भरते हैं। इसके बाद जलपूरित द्रोणी[12] में स्थित वेजकाठ[13] प्याले में, बोतल का मुँह नीचे करके, सारा क्लोराइड एक साथ उलट देते हैं। फिर प्याले के अतिरिक्त जल को गिराकर, काँच की छड़ से थपकाकर, क्लोराइड को तोड़कर सुखा लेते हैं। अच्छी तरह सुखाने पर सारा रजत क्लोराइड एक टिकिया बन जाता है। इसे गरम रहते ही चिमटी से उठाकर आमापन तुला के अपनेय[14] पलड़े पर रखकर तौलने के लिये प्लैटिनमइरीडियम के बाटों का, जो भारतीय टकसालों के लिये ही बने होते हैं, प्रयोग होता है। इनमें '1000' अंकित बाट का भार 25 ग्रेन और छोटे बाट अनुपात में कम भार के होते हैं। इस प्रकार मिश्रधातु का संघटन, अर्थात्‌ धातु मुद्रा में चाँदी की शुद्धता बिना गणना के मालूम हो जाती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 1.5 1.6 टकसाल (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 19 जून, 2014।
  2. एक धातु, जिसमें सोना और चाँदी प्राकृतिक रूप से मिले रहते हैं।
  3. क्यूप्रो निकेल
  4. electrolysis
  5. estimation
  6. indicator
  7. titration
  8. crucible
  9. Gay-lussac
  10. shaking machine
  11. supernatant
  12. trough
  13. wedgewood
  14. removable

बाहरी कड़ियाँ

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