अग्रहार: Difference between revisions
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Revision as of 13:21, 15 November 2016
अग्रहार
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विवरण | दक्षिण भारत के तमिलनाडु तथा केरल अदि राज्यों में 'अग्रहार' ऐसे ग्राम को कहा जाता है, जहाँ के सभी निवासी ब्राह्मण हों। |
देश | भारत |
राज्य | तमिलनाडु, केरल आदि। |
अन्य नाम | अग्रहारम, बहुत समय पहले इन्हें 'चतुर्वेदीमंगलम' भी कहा जाता था। |
संबंधित लेख | दक्षिण भारत, अग्रहारिक, तमिलनाडु की संस्कृति, केरल की संस्कृति |
अन्य जानकारी | अग्रहारम के चारों तरफ़ दूसरी जाति के लोग भी बसते थे, जैसे- बढ़ई, कुम्हार, बसोड, लोहार, सुनार, वैद्य, व्यापारी और खेतिहर मज़दूर आदि, क्योंकि ब्राह्मणों को मन्दिर आदि के लिए इनकी सेवाओं की आवश्यकता रहती थी। |
अग्रहार अथवा 'अग्रहारम' दक्षिण भारत में उस ग्राम को कहा जाता है, जिसके निवासी पूर्णतः ब्राह्मण हों। विभिन्न जाति वाले गावों के उस भाग को भी अग्रहार कहते हैं, जिसमें ब्राह्मण रहते हैं। बहुत समय पहले इन्हें 'चतुर्वेदीमंगलम' भी कहा जाता था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के सेनापति मलिक काफ़ूर ने 14वीं सदी के प्रारंभ में मदुरै पर आक्रमण करके इस शहर पर कब्ज़ा कर लिया था। इतिहास में संभवतः यही वह समय था, जब उस अंचल के ब्राह्मण, जो अग्रहारमों में रहा करते थे, भयभीत हो गए और हिन्दू राज्यों में जाकर शरण लेने की सोची। तमिलनाडु से सामूहिक पलायन कर जिन लोगों का केरल आना हुआ था, उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ और उन्हें शहर या गाँव के एक अलग भाग में बसाया गया। ऐसी बसावट को भी 'अग्रहारम' या 'ग्रामं' कहा गया। एक छोर पर या बीच में शिव का मंदिर और अगल-बगल उत्तर से दक्षिण की ओर कतारों में बने लगभग 100 घर, एक-दूसरे से जुड़े हुए। दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग थे, जो तामिलनाडू में ही रह गए, परन्तु कालांतर में कुछ परिवार केरल में अपनी किस्मत आजमाने के लिए चले आये और अलग-अलग गाँवों में बसते गए। उनके घरों को 'मठ' कहा जाता है। इस तरह का विस्थापन लगभग 250 वर्ष पहले ही हुआ था। ये दूसरे प्रकार के लोग अधिक खुले विचारों के थे, क्योंकि स्थानीय लोगों के वे अधिक करीब थे, जिसके कारण वे स्थानीय संस्कृति और परम्पराओं में सरलता से रच बस गए।[1]
संगमकालीन साहित्य में वर्णन
विशुद्ध रूप से यह ब्राह्मणों की ही बस्ती हुआ करती थी और इसका उल्लेख तीसरी सदी के संगम काल के साहित्य में भी पर्याप्त मिलता है। इन्हें 'चतुर्वेदिमंगलम' भी कहा गया है। अग्रहार का तात्पर्य ही है "फूलों की तरह माला में पिरोये हुए घरों की श्रृंखला"। वे प्राचीन नगर नियोजन के उत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं। इन ग्रामों (अग्रहारम) में रहने वालों की दिनचर्या पूरी तरह वहां के मंदिर के इर्द गिर्द और उससे जुड़ी हुई होती थी। यहाँ तक कि उनकी अर्थव्यवस्था भी मंदिर के द्वारा प्रभावित हुआ करती थी। प्रातःकाल सूर्योदय के बहुत पहले ही दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी। जैसे महिलाओं और पुरुषों का तालाब या बावड़ी जाकर स्नान करना, घरों के सामने गोबर से लीपकर सादा रंगोली बनाना, भगवान के दर्शन के लिए मंदिर जाना और वहां से वापस आकर ही अपने दूसरे कार्यों में लग जाना।
कृषि आधारित अर्थव्यवस्था
अग्रहारम के चारों तरफ़ दूसरी जाति के लोग भी बसते थे, जैसे- बढ़ई, कुम्हार, बसोड, लोहार, सुनार, वैद्य, व्यापारी और खेतिहर मज़दूर आदि। मंदिर को और वहां के ब्राह्मणों को भी उनकी सेवाओं की आवश्यकता जो रहती थी। ब्राह्मणों के पास स्वयं की कृषि योग्य भूमि भी हुआ करती थी या फिर वे पट्टे पर मंदिर से प्राप्त करते थे। मंदिर की संपत्ति की देखरेख और अन्य क्रिया कलापों के लिए पर्याप्त कर्मी भी हुआ करते थे, जिन्हें नकद या वस्तु (धान/चावल) रूप में वेतन दिया जाता था। मंदिर के प्रशासन के लिए एक न्यास भी हुआ करता था। कुल मिलाकर मंदिर को केंद्र में रखते हुए एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था थी।[1]
मूलतः तमिलनाडु के कुम्भकोणम, तंजावूर तथा तिरुनेल्वेलि से भयभीत ब्राह्मणों का पलायन हुआ था। बड़ी संख्या में वे लोग पालक्काड में आकर बस गए थे और कुछ कोच्चि के राजा के शरणागत हुए। तिरुनेल्वेलि से पलायन करने वालों ने त्रावन्कोर में शरण ली और बस गये। उन्हें राजकार्य, शिक्षण आदि के लिए उपयुक्त समझा गया और लगभग सभी को कृषि भूमि भी उपलब्ध हुई। केरल आकर उन्होंने अपने अग्रहारम बना लिए और अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को संजोये रखा। उनके आग्रहाराम में शिव के मंदिर के अतिरिक्त विष्णु के लिए भी दूसरे छोर पर मंदिर बनाये गए।
आधुनिकता का प्रभाव
अब समय बदल चुका है। आधुनिकता के चक्कर में कई घरों को तोड़कर नया रूप दे दिया गया है। इन ग्रामों की आबादी भी घटती जा रही, क्योंकि घरों के युवा रोज़ी रोटी के लिए देश में ही अन्यत्र या विदेशों में जा बसे हैं और यह प्रक्रिया जारी है। अतः कई मकान स्थानीय लोगों ने ख़रीद लिए हैं। जो ब्राह्मण परिवार बचे जुए हैं, उनमें अधिकतर वृद्ध ही रह गये हैं। पालक्काड के आसपास अब भी बहुत-से अग्रहारम हैं, जहाँ उत्सव आदि आधुनिकता के आगोश में रहते हुए भी परंपरागत रूप में मनाये जाते हैं। दीपावली के बाद नवम्बर/दिसंबर में एक 'तमिल त्यौहार' पड़ता है, जिसे 'कार्थिकई' कहते हैं। यह कुछ-कुछ भाईदूज जैसा है। हर घर के सामने रंगोली तो बनती ही है, परन्तु शाम को उन पर नाना प्रकार के पीतल के दिए जलाकर रखे जाते हैं। यही वह एक अवसर होता है, जब लोगों के घरों के बाहर दिए जलते हैं, क्योंकि ऐसा दीपावली में भी नहीं होता।[1]
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख