दान केलिकौमुदी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - " सन " to " सन् ")
m (Text replacement - "पश्चात " to "पश्चात् ")
 
Line 1: Line 1:
यह नाटक एक ही अंक में समाप्त किया गया है, इसलिए इसे 'भाणिका' कहते हैं। इसके अन्त में [[रूप गोस्वामी]] ने लिखा है कि उन्होंने किसी सुहृद के अभिप्राय से इसकी रचना की हैं। कहा जाता हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ललित-माधव पढ़कर उसमें वर्णित राधा की विरह-वेदना से इतना मर्माहता हुए थे कि उनके प्राणों पर आ बीती थी। उनका अन्तर्दाह प्रशमन करने के लिए ही रूप गोस्वामी ने हास-परिहासपूर्ण इस भाणिका की रचना कीं इसे पढ़कर वे स्वस्थ हुए।  
यह नाटक एक ही अंक में समाप्त किया गया है, इसलिए इसे 'भाणिका' कहते हैं। इसके अन्त में [[रूप गोस्वामी]] ने लिखा है कि उन्होंने किसी सुहृद के अभिप्राय से इसकी रचना की हैं। कहा जाता हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ललित-माधव पढ़कर उसमें वर्णित राधा की विरह-वेदना से इतना मर्माहता हुए थे कि उनके प्राणों पर आ बीती थी। उनका अन्तर्दाह प्रशमन करने के लिए ही रूप गोस्वामी ने हास-परिहासपूर्ण इस भाणिका की रचना कीं इसे पढ़कर वे स्वस्थ हुए।  


भाणिका की आख्यान-कल्पना इस प्रकार है। राधा गुरुजनों के आदेश से सखियों सहित गोविन्दकुण्ड के यज्ञस्थल पर घृत विक्रय करने जा रही हैं। कृष्ण सखाओं समेत मानस गंगा के तट पर उपस्थित होकर उनका पथ रोक लेते हैं और उनके दान व शुल्क का दावा व्यक्त करते हैं। राधा और उनकी सखियाँ उनका दावा स्वीकार नहीं करतीं वाद-विवाद शुरू होता है। अनेक हास्य और मधुर रस पूर्ण तर्क-वितर्क के पश्चात पौर्णमासी की मध्यस्थता से वाद-विवाद समाप्त होता है। भाणिका की रचना सन् 1549 में हुई।
भाणिका की आख्यान-कल्पना इस प्रकार है। राधा गुरुजनों के आदेश से सखियों सहित गोविन्दकुण्ड के यज्ञस्थल पर घृत विक्रय करने जा रही हैं। कृष्ण सखाओं समेत मानस गंगा के तट पर उपस्थित होकर उनका पथ रोक लेते हैं और उनके दान व शुल्क का दावा व्यक्त करते हैं। राधा और उनकी सखियाँ उनका दावा स्वीकार नहीं करतीं वाद-विवाद शुरू होता है। अनेक हास्य और मधुर रस पूर्ण तर्क-वितर्क के पश्चात् पौर्णमासी की मध्यस्थता से वाद-विवाद समाप्त होता है। भाणिका की रचना सन् 1549 में हुई।


{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}

Latest revision as of 07:43, 23 June 2017

यह नाटक एक ही अंक में समाप्त किया गया है, इसलिए इसे 'भाणिका' कहते हैं। इसके अन्त में रूप गोस्वामी ने लिखा है कि उन्होंने किसी सुहृद के अभिप्राय से इसकी रचना की हैं। कहा जाता हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ललित-माधव पढ़कर उसमें वर्णित राधा की विरह-वेदना से इतना मर्माहता हुए थे कि उनके प्राणों पर आ बीती थी। उनका अन्तर्दाह प्रशमन करने के लिए ही रूप गोस्वामी ने हास-परिहासपूर्ण इस भाणिका की रचना कीं इसे पढ़कर वे स्वस्थ हुए।

भाणिका की आख्यान-कल्पना इस प्रकार है। राधा गुरुजनों के आदेश से सखियों सहित गोविन्दकुण्ड के यज्ञस्थल पर घृत विक्रय करने जा रही हैं। कृष्ण सखाओं समेत मानस गंगा के तट पर उपस्थित होकर उनका पथ रोक लेते हैं और उनके दान व शुल्क का दावा व्यक्त करते हैं। राधा और उनकी सखियाँ उनका दावा स्वीकार नहीं करतीं वाद-विवाद शुरू होता है। अनेक हास्य और मधुर रस पूर्ण तर्क-वितर्क के पश्चात् पौर्णमासी की मध्यस्थता से वाद-विवाद समाप्त होता है। भाणिका की रचना सन् 1549 में हुई।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध


टीका टिप्पणी और संदर्भ


संबंधित लेख