कबीर की परिचई: Difference between revisions
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*इस ‘परिचई’ के लिखने वाले श्री अनन्तदासजी थे। उनका आविर्भाव पंद्रहवीं [[शताब्दी]] का उत्तरार्ध अर्थात [[संवत]] 1600 के आसपास माना जाता है। | *इस ‘परिचई’ के लिखने वाले श्री अनन्तदासजी थे। उनका आविर्भाव पंद्रहवीं [[शताब्दी]] का उत्तरार्ध अर्थात [[संवत]] 1600 के आसपास माना जाता है। |
Revision as of 14:03, 30 June 2017
कबीर की परिचई संत कबीरदास के चरित्र का परिचय है। भक्तिकाल में जिन महान् कवियों और संतों ने अपने सरल जीवन और कृतित्व से जनता का कल्याण किया, उनके जीवन को सरल छन्दों में लिखने की प्रवृत्ति उनके अनुयायियों और भक्तों में उत्पन्न हुई। ऐसे ही महान् संतों और कवियों में कबीर भी हुए, जिनके चरित्र का परिचय देने के लिए ‘परिचई’ लिखी गई।
- इस ‘परिचई’ के लिखने वाले श्री अनन्तदासजी थे। उनका आविर्भाव पंद्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध अर्थात संवत 1600 के आसपास माना जाता है।
- कबीर परिचई की छ: प्रतियाँ उपलब्ध हैं। दो प्रतियाँ काशी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी; एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, एक मलूकदास की गद्दी, कड़े में; एक पण्डित गणेशदत्त मिश्र और एक रामकुमार वर्मा (अध्यक्ष हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) के पास है। रामकुमार वर्मा के पास की प्रति श्री सरबगोटिका वाणी नो हज़ार के अंतर्गत है, जिसका लिपिकाल संवत 1842 पौष शुक्ल पंचमी मंगलवार है और लिपिकर्ता हैं साधु ब्रह्मदास, जो अमरदास के शिष्य और सेवादास के पोता शिष्य हैं।[1]
- इस परिचई में कबीर के जीवन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया गया है। इसमें कबीर के जीवन की तिथि तो नहीं दी गई, परंतु उनके 120 वर्ष तक जीवित रहने का उल्लेख है।
- इस ‘परिचई’ से यह स्पष्ट होता है कि-
- कबीर मुसलमान जुलाहे थे और काशी में निवास करते थे।
- उन्होंने रामानन्द से दीक्षा प्राप्त की थी।
- सिकन्दरशाह ने जब काशी में प्रवेश किया तो उसने कबीर पर अनेक अत्याचार किए।
- परिचई में कबीर के आध्यात्मिक चमत्कारों का भी उल्लेख है। समस्त ग्रंथ चौपाई और दोहों में लिखा गया है। उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-
- चौपाई - “हम तौ भगति मुकति मैं आया। गुरु परसाद राम गुन गाया। राम भरोसै गिनौं न काहू। सब मिलि राजा रंक रिसाहू॥“
- दोहा – “राषनहारा राम है, मारि न सकै कोइ। पातिसाह हूँ ना डरौं, करता करै सो होइ॥“[2]
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