मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला

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दिल्ली सल्तनत काल में प्रचलित वास्तुकला की ‘भारतीय इस्लामी शैली’ का विकास मुग़ल काल में हुआ। मुग़लकालीन वास्तुकला में फ़ारस, तुर्की, मध्य एशिया, गुजरात, बंगाल, जौनपुर आदि स्थानों की शैलियों का अनोखा मिश्रण हुआ था। पर्सी ब्राउन ने ‘मुग़ल काल’ को भारतीय वास्तुकला का ग्रीष्म काल माना है, जो प्रकाश और उर्वरा का प्रतीक माना जाता है। स्मिथ ने मुग़लकालीन वास्तुकला को कला की रानी कहा है।

स्थापत्य कला

मुग़लकालीन स्थापत्य कला के विकास और प्रगति की आरम्भिक क्रमबद्ध परिणति ‘फ़तेहपुर सीकरी’ आदि नगरों के निर्माण में और चरम परिणति शाहजहाँ के ‘शाहजहाँनाबाद’ नगर के निर्माण में दिखाई पड़ती है। मुग़ल काल में वास्तुकला के क्षेत्र में पहली बार ‘आकार’ एवं डिजाइन की विविधता का प्रयोग तथा निर्माण की साम्रगी के रूप में पत्थर के अलावा पलस्तर एवं गचकारी का प्रयोग किया गया। सजावट के क्षेत्र में संगमरमर पर जवाहरात से की गयी जड़ावट का प्रयोग भी इस काल की एक विशेषता थी। सजावट के लिए पत्थरों को काट कर फूल पत्ते, बेलबूटे को सफ़ेद संगमरमर में जड़ा जाता था। इस काल में बनने वाले गुम्बदों एवं बुर्जों को ‘कलश’ से सजाया जाता था।

बाबर

बाबर ने भारत में अपने अल्पकाली शासन में वास्तुकला में विशेष रुचि दिखाई। तत्कालीन भारत में हुए निर्माण कार्य हिन्दू शैली में निर्मित ग्वालियर के मानसिंह एवं विक्रमाजीत सिंह के महलों से सर्वाधिक प्रभावित हैं। ‘बाबरनामा’ नामक संस्मरण में कही गयी बाबर की बातों से लगता है कि, तत्कालीन स्थानीय वास्तुकला में संतुलन या सुडौलपन का अभाव था। अतः बाबर ने अपने निर्माण कार्य में इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि, उसका निर्माण सामंजस्यपूर्ण और पूर्णतः ज्यामितीय हो। भारतीय युद्धों से फुरसत मिलने पर बाबर ने अपने आराम के लिए आगरा में ज्यामितीय आधार पर 'आराम बाग़' का निर्माण करवाया। उसके ज्यामितीय कार्यों में अन्य हैं, ‘पानीपत के 'काबुली बाग़' में निर्मित एक स्मारक मस्जिद (1524 ई.), रुहेलखण्ड के सम्भल नामक स्थान पर निर्मित ‘जामी मस्जिद’ (1529 ई.), आगरा के पुराने लोदी के क़िले के भीतर की मस्जिद आदि। पानीपत के मस्जिद की विशेषता उसका ईटों द्वारा किया गया निर्माण था।

हुमायू

राजनीतिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण हुमायूँ वास्तुकला के क्षेत्र में कुछ ख़ास नहीं कर सका। उसने 1533 ई. में ‘दीनपनाह’ (धर्म का शरणस्थल) नामक नगर की नींव डाली। इस नगर जिसे ‘पुराना क़िला’ के नाम से जाना जाता है, की दीवारें रोड़ी से निर्मित थीं। इसके अतिरिक्त हुमायूँ की दो मस्जिदें, जो फ़तेहाबाद में 1540 ई. में बनाई गई थीं, फ़ारसी शैली में निर्मित हैं।

शेरशाह

शेरशाह का लघु समय का शासन मध्यकालीन भारत की वास्तुकला के क्षेत्र में ‘संक्रमण काल’ माना जाता है। उसने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर ‘शेरगढ़’ या ‘दिल्ली शेरशाही’ की नींव डाली। आज इस नगर के अवशेषों में ‘लाल दरवाज़ा’ एवं ‘खूनी दरवाज़ा’ ही देखने को मिलते हैं। शेरशाह ने 'दीन पनाह' को तुड़वाकर उसके मलवे पर ‘पुराने क़िले’ का निर्माण करवाया। 1542 ई. में शेरशाह ने इस क़िले के अन्दर ‘क़िला-ए-कुहना’ नाम की मस्जिद का निर्माण करवाया। समय के थपेड़ों को सहते हुए इस समय इस क़िले का एक भाग ही शेष है। बिहार के रोहतास नामक स्थान पर शेरशाह ने एक क़िले का निर्माण करवाया। शेरशाह का सासाराम (बिहार) में झील के अन्दर एक ऊंचे टीले पर निर्मित ‘मक़बरा’ हिन्दू-मुस्लिम वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है। मक़बरा बाहर से मुस्लिम प्रभाव एवं अन्दर से हिन्दू प्रभाव में निर्मित है। पर्सी ब्राउन ने इसे सम्पूर्ण उत्तर भारत की सर्वोत्तम कृति कहा है। ‘क़िला-ए-कुहना’ मस्जिद के परिसर में एक ‘शेरमण्डल’ नाम का अष्टभुजी तीन मंजिला मण्डप निर्मित है।

अकबर

अकबर के शासन काल के निर्माण कार्यों में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का व्यापक समन्वय दिखता है। अबुल फ़ज़ल ने अकबर के विषय में कहा है कि, ‘सम्राट सुन्दर इमारतों की योजना बनाता है और अपने मस्तिष्क एवं ह्रदय के विचार से पत्थर एवं गारे का रूप दे देता है।

हुमायूँ का मक़बरा

यह एक ऐसा निर्माण है, जिसने स्थापत्य कला को एक नवीन दिशा प्रदान की। यह मक़बरा अपनी परम्परा का बना पहला भवन है। इसका निर्माण कार्य अकबर की सौतेली माँ हाजी बेगम की देख-रेख में 1564 ई. में हुआ। इस मक़बरे का ख़ाका ईरान के मुख्य वास्तुकार ‘मीरक मिर्ज़ा ग़ियास’ ने तैयार किया था। इसी के नेतृत्व में मक़बरे का निर्माण कार्य पूरा हुआ। यही कारण है कि, मक़बरे में ईरानी या फ़ारसी प्रभाव दिखाई देता है। मक़बरा चारों तरफ़ से ज्यामितीय चतुर्भुज आकारा के उद्यान से घिरा है। ईरानी प्रभाव के साथ-साथ इस मक़बरे में हिन्दू शैली की ‘पंचरथ’ से भी प्रेरणा ली गई है। प्रधान मक़बरा 22 फुट ऊँचे पत्थर के चबूतरें पर निर्मित है। पश्चिम दिशा में मक़बरे का मुख्य दरवाज़ा है। सफ़ेद संगमरमर से निर्मित मक़बरे की गुम्बद ही इसकी मुख्य विशेषता है। उभरी हुई दोहरी गुम्बद वाला यह मक़बरा भारत में बना पहला उदाहरण है। मक़बरा तराशे गये लाल रंग के पत्थरों द्वार निर्मित है। उद्यानों में निर्मित मक़बरों का आयोजन प्रतीकात्मक रूप में करते हुए मक़बरों में दफनाये गये व्यक्तियों के दैवी स्वरूप की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार के भवनों की परम्परा में पहला भवन हुमायूँ का मक़बरा है। इस परम्परा की परिणति ताजमहल में हुई। हुमायूँ के मक़बरे को ‘ताजमहल का पूर्वगामी’ भी कहते है। इसे एक 'वफादार बीबी की महबूबाना पेशकश' कहा जाता है।

अकबर ने निर्माण कार्य पर अधिक धन अपव्यय न कर ऐसी इमारतों का निर्माण करवाया, जो अपनी सादगी से ही सुन्दर लगती थी। अकबर ने ‘मेहराबी’ एवं ‘शहतीरी’ शैली का समान अनुपात में प्रयोग किया। अकबर ने अपने निर्माण कार्यों में लाल पत्थर का प्रयोग किया। अकबर के ग्रहणशील स्वभाव के कारण उसके निर्माण कार्य में फ़ारसी शैली में हिन्दू एवं बौद्ध परंपराओं का अधिक सम्मिश्रण हुआ।

आगरा का क़िला

1566 ई. में अकबर के मुख्य वास्तुकार कासिम ख़ाँ के नेतृत्व में इस क़िले का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। लगभग 15 वर्षों तक लगातार निर्माण कार्य एवं 35 लाख रुपये ख़र्च के बाद यह क़िला बनकर तैयार हुआ। यमुना नदी के किनारे यह क़िला लगभग 1-1/2 मील में फैला हुआ है। क़िले की मेहराबों पर अकबर ने क़ुरान की आयतों के स्थान पर पशु-पक्षी, फूल-पत्तों की आकृतियों को खुदवाया है, जो सम्भवतः इस क़िले की एक विशेषता है। 70 फुट ऊँची तराशे गये लाल पत्थर से निर्मित क़िले की दीवारों में कहीं भी एक बाल के भी घुसने की जगह शेष नहीं है। क़िले के पश्चिम में स्थित ‘दिल्ली दरवाज़े’ का निर्माण 1566 ई. में किया गया। पर्सी ब्राउन ने दरवाज़े के बारे में कहा है कि, “निःसन्देह ही वह भारत के सबसे अधिक प्रभावशाली दरवाज़ों में से है।” क़िले का दूसरा दरवाज़ा अमर सिंह दरवाज़ा के नाम से जाना जाता है। क़िले के अन्दर अकबर ने लगभग ऐसे 500 निर्माण करवाये हैं, जिनमें लाल पत्थर का प्रयोग हुआ है, साथ ही बंगाल एवं गुजरात की निर्माण शैली का भी प्रयोग हुआ है।

जहाँगीरी महल

ग्वालियर के राजा मानसिंह के महल की नकल कर आगरा के क़िले में बना ‘जहाँगीरी महल’ अकबर का सर्वोत्कृष्ट निर्माण कार्य है। यह महल 249 फुट लम्बा एवं 260 फुट चौड़ा है। महल के चारों कोने में 4 बड़ी छतरियाँ हैं। महल में प्रवेश हेतु बनाया गया दरवाज़ा नोंकदार मेहराब का है। महल के मध्य में 17 फुट का आयताकार आँगन बना है। पूर्णतः हिन्दू शैली में बने इस महल में संगमरमर का अल्प प्रयोग किया गया है। कड़ियाँ तथा तोड़े का प्रयोग इसकी विशेषता है। जहाँगीरी महल के सामने लॉन में प्याले के आकार का एक हौज निर्मित है, जिस पर फ़ारसी भाषा आयतें खुदी हैं। जहाँगीरी महल के दाहिनी ओर अकबरी महल का निर्माण हुआ था, जिसके खण्डहरों से निर्माण की योजना का अहसास होता है। जहाँगीरी महल की सुन्दरता का अकबरी महल में अभाव दिखता है।

फ़तेहपुर सीकरी

अकबर ने सलीम (जहाँगीर) के जन्म के बाद 1571 ई. में शेख़ सलीम चिश्ती के प्रति आदर प्रकट करने के उदेश्य से फ़तेहपुर सीकरी के निर्माण का आदेश दिया। 1570 में अकबर ने गुजरात को जीतकर इस स्थान का नाम ‘फ़तेहपुर सीकरी’ (विजयी नगरी) रखा। 1571 ई. में इसे मुग़ल साम्राज्य की राजधानी बनाया गया। यह नगर 7 मील लम्बे पहाड़ी क्षेत्र मे फैला हुआ है। इसमें बने 9 प्रवेश द्वारों में आगरा, दिल्ली, अजमेर, ग्वालियर एवं धौलपुर प्रमुख हैं।

फ़तेहपुर सीकरी नगर अकबर की उस राजनीति का पारदर्शक वास्तुकलात्मक प्रतिबिंब है, जिसके द्वारा वह अपने विशाल साम्राज्य के विविध तत्वों के मध्य एकता स्थापित करना चाहता था। फ़र्ग्युसन ने कहा है कि, ‘फ़तेहपुर सीकरी पत्थर में प्रेम तथा एक महान व्यक्ति के मस्तिष्क की अभिव्यक्ति है।’ फ़तेहपुर सीकरी नगर के निर्माण का श्रेय वास्तुकला विशेषज्ञ बहाउद्दीन को मिलता है। सचमुच फ़तेहपुर सीकरी एक महान समृद्धशाली तथा शक्तिशाली शासक के व्यक्तित्व का प्रतीक है। स्मिथ के अनुसार- 'फ़तेहपुर सीकरी जैसी वास्तुकला की कृति न तो अतीत में हुई है और न भविष्य में होगी'।

दीवान-ए-आम

ऊँचे आधार पर लौकिक प्रयोग हेतु निर्मित 'दीवान-ए-आम' में खम्बों पर निकली हुई बरामदों की छत थी। यह एक आयताकार कक्ष है। 'दीवान-ए-आम' में मनसबदारों एवं उनके नौकरों के लिए मेहराबी बरामदे बने हैं। 'दीवान-ए-आम' में अकबर के लिए एक सिंहासन बना है। इसके बरामदे में लाल पत्थर से बना अकबर का ‘दफ्तरखाना’ है। 'दीवान-ए-आम' में अकबर अपने मंत्रियों से सलाह-मशविरा करता था।

दीवान-ए-ख़ास

बौद्ध एवं हिन्दू कला शैली के प्रभाव वाला ‘दीवान-ए-ख़ास’ 47 फुट का एक वर्गाकार भवन हैं। भवन के मध्य में बने ऊँचे चबूतरे पर बैठकर बादशाह अकबर अपने कर्मचारियों की बहस को सुनता था। 'दीवान-ए-ख़ास' ही अकबर का प्रसिद्ध इबादतखाना है, जहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार की संध्या को अकबर विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों से चर्चाएँ करता था। 'दीवान-ए-ख़ास' के कक्ष के मध्य में स्थित स्तम्भ पर आपस में जुड़े हुए फूल की पंखुड़ियों की तरह के 36 लहरदार ब्रेकेट हैं, जिनके ऊपर गोल पत्थर का मंच जैसा निर्माण हुआ है। ‘हावेल’ इसकी तुलना विष्णु स्तम्भ व विश्व वृक्ष से करते हैं। 'दीवान-ए-ख़ास' के उत्तर में ‘कोषागार’ के निर्माण एवं पश्चिम में एक वर्गाकार चंदोबा सा ‘ज्योतिषी की बैठक’ का निर्माण किया गया है। पर्सी ब्राउन के अनुसार- 'अकबर ने ज्योतिषी की बैठक में अपने पागलपन या सनकीपन का प्रदर्शन किया है'।






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