इशरत सुल्ताना

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इशरत सुल्ताना (अंग्रेज़ी: Ishrat Sultana) बिब्बो के नाम से प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि एक साल से भी कम समय के लिए मुंबइया फिल्मों से जुड़ने वाले प्रेमचंद ने 1934 में मजदूर उर्फ मिल नाम की जिस फिल्म की पटकथा लिखी उसकी नायिका थी बिब्बो। उनका असली नाम था इशरत सुल्ताना। इशरत सुल्ताना का जन्म पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाजार के समीपवर्ती इशरताबाद इलाक़े में हुआ था। उनकी मां हफीजन बाई कोठे पर नाचने-गाने वाली तवायफ़ थीं।

जीवन परिचय

इशरत सुल्ताना के आरंभिक जीवन के बारे में बहुत-सी बातें अज्ञात हैं या विवादास्पद हैं, जैसे कि उनका जन्म कब हुआ, उनके पिता का क्या नाम था और उनका नाम बिब्बो किसने रखा? प्रामाणिक स्त्रोतों के अनुसार उनकी पहली फिल्म 1933 में बनी मायाजाल थी। बिब्बो बहुत जल्दी हिंदी सिनेमा की प्रमुख अभिनेत्री बन गई। मायाजाल फिल्म की निर्देशक थी शांति दवे और निर्माता थे अजंता सिनेटोम कंपनी के मालिक मोहन भवनानी। मोहन भवनानी ने ही प्रेमचंद को मुंबई बुलाया और उनके साथ पटकथाएं लिखने का अनुबंध किया और उनकी मजदूर फिल्म का निर्देशन भी किया। बिब्बो ने प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य कथाकार की पहली और एकमात्र फिल्म में नायिका की भूमिका अदा की और वह हिंदी फिल्मों की पहली महिला संगीत निर्देशक भी थीं।

प्रसिद्धि

उत्कृष्ट अभिनय के लिए उन्हें पहला सम्मान भारत में नहीं, पाकिस्तान में मिला था निगार नामक सम्मान। आमतौर पर माना जाता है कि अभिनेत्री नर्गिस की मां जद्दन बाई मुंबइया फिल्मों की पहली महिला संगीत निर्देशक थीं, लेकिन सच्चाई यह है कि बिब्बो ने उनसे एक वर्ष पहले 1934 में अदले-जहांगीर फिल्म का संगीत निर्देशन किया था। बिब्बो ने 1937 में एक और फिल्म 'कज्जाक की लड़की' में भी संगीत दिया था। अगर फिल्मों की संख्या के आधार पर तुलना करें तो जद्दन बाई निश्चय ही बिब्बो से आगे थीं। उन्होंने 1936 में ह्दय मंथन, मैडम फैशन और 1937 में जीवन स्वप्न, मोती का हार में संगीत दिया। बिब्बो को घुट्टी में संगीत मिला था और फिल्मों में आते ही उन्होंने गाना शुरू कर दिया। हालांकि उस समय सारी अभिनेत्रियां गाती थीं, क्योंकि हिंदी फिल्मों में पार्श्व गायन शुरू नहीं हुआ था। 1930 और 1940 के दशक के हिंदी फिल्मों में बिब्बो के गानों को याद करते हैं। अभिनेत्री के रूप में फिल्म मजदूर में बिब्बो ने आदर्शवादी मिल मालकिन की भूमिका अदा की थी जिसका नाम था पद्मा। इसमें कपड़ा मिलों के शोषित मजदूरों के जीवन का यथार्थ चित्रण था जिसमें व्यापक रूप से प्रेमचंद के आदर्शवाद की पूरी छाप थी। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अगर मालिक उदार, दयालु और मजदूरों का हितचिंतक हो तो न केवल मजदूर ख़ुश रहते हैं, बल्कि वे मेहनत भी ज्यादा करते हैं। इसके विपरीत अगर मजदूरों पर अत्याचार किया जाए तो वे मालिकों से झगड़ा करते हैं और हड़तालें करते हैं। इस सुखांत फिल्म की शूटिंग एक मिल में की गई थी। भारतीय फिल्मों के इतिहास में इस तरह की लोकेशन शूटिंग पहली बार की गई थी, क्योंकि तब स्टूडियो में सेट लगाकर ही शूटिंग होती थी।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिंदी फिल्मों का एक भूला-बिसरा अध्याय (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) जागरण डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 7 फ़रवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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