बिरहा

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बिरहा अहीरों का जातीय लोकगीत है। लोकगीतों में इसका स्थान उसी तरह महत्त्वपूर्ण है, जिस तरह संस्कृत में 'द्विपदी', प्राकृत में 'गाथा' और हिन्दी में 'बरवै' का है। यह दो कड़ियों की रचना है। जब एक पक्ष अपनी बात कह लेता है तो दूसरा पक्ष उसी छन्द में उत्तर देता है। मात्राओं की संख्या इसमें सीमित नहीं होतीं। गाने वाले की धुनकर मात्राएँ घट-बढ़ जाती हैं।

उत्पत्ति

"न बिरहा की खेती करै, भैया, न बिरहा फरै डार। बिरहा बसलै हिरदया में हो, राम, जब तुम गैले तब गाव।"

'बिरहा' की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भोजपुरी बिरहा की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। यह मुख्य रूप से प्रेम और विरह की उपयुक्त व्यंजना के लिए सार्थक लोक छन्द है। विप्रलम्भ शृंगार को अधिकांश बिरहा में स्थान प्राप्त है। कहते हैं, इसका जन्म भोजपुर प्रदेश में हुआ। गड़रिये, पासी, धोबी, अहीर और अन्य चरवाह जातियाँ कभी-कभी होड़ बदकर रातभर बिरहा गाती हैं।

गायन के विषय

बिरहा गायन में पहले देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है, तत्पश्चात् कौटुम्बिक जीवन के विभिन्न सम्बन्धों का स्वाभाविक वर्णन, ग्राम जीवन के चित्र, प्रेम और विरह के कोमल प्रसंग, नैहर और ससुराल की मीनमेख, नायिकाओं की प्रणय उमंगें, अनब्याही ग्रामीण नारी की व्यथा, सास-बहू के झगड़े, ननद-भावज की चुहल आदि विषयों के वर्णन मुखर होते हैं। यद्यपि विरहा भोजपुर की धरती में उपजा है, तथापि आज के लोक-जीवन में बिरहा ने समस्त कृषक जातियों के गीतों में अपना स्थान बना लिया है। गाते समय उठने वाली आवाज़ की ऊँचाई से दूर-दूर तक वन-प्रांतर में हृदय की टीस गूँजने लगती है।

विरह-व्यथा की अभिव्यक्ति

भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका लोकगीतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है। देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में लोक-संगीत की यह विधा अत्यन्त लोकप्रिय है, जिसे 'बिरहा' नाम से पहचाना जाता है।


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