स्वस्तिक तथा ओम

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को स्वस्तिक के रूप में लिया जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं, रेखा के आधार पर उनकी रचना हुई थी। ॐ को लिपिबद्ध करने के आरंभिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई।

निराकार परमात्मा का वास

जिस प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति, लय तीनों शक्तियों का समावेश होने के कारण इसे दिव्य गुणों से युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक माना गया है, उसी प्रकार स्वस्तिक में भी इसी निराकार परमात्मा का वास है, जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, लय की शक्ति है। अन्तर केवल इतना ही है कि, अंकित करने की कला निम्न है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभा-मंडल का चिह्न ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।

ग्रंथों में उल्लेख

स्वस्तिक को इण्डो-यूरोपीय प्राचीन देवता, वायु देवता, अग्नि पैदा करने का यंत्र नारी और पुरुष का मिलन, नारी, गणपति एवं सूर्य का प्रतीक माना गया है। यास्क ने स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमरकोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। 'सिद्धान्तसार' ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्मा जी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है।

अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। इस प्रकार स्वस्तिक छोटा-सा प्रतीक है, पर उसमें विराट सम्भावनाएं समाई हैं। हम उसका महत्त्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा करें, यही उचित है।



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