वाद्य कला: Difference between revisions

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[[चौंसठ कलाएँ जयमंगल के मतानुसार|जयमंगल के मतानुसार]] चौंसठ कलाओं में से यह एक कला है। अनेक प्रकार के वाद्यों का निर्माण करने और उनके बजाने का ज्ञान 'कला' है। वाद्यों के मुख्यतया चार भेद हैं-  
[[चौंसठ कलाएँ जयमंगल के मतानुसार|जयमंगल के मतानुसार]] [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में से यह एक [[प्रांगण:कला|कला]] है। अनेक प्रकार के वाद्यों का निर्माण करने और उनके बजाने का ज्ञान 'कला' है। वाद्यों के मुख्यतया चार भेद हैं-  
#तत-तार अथवा ताँत का जिसमें उपयोग होता है, वे वाद्य 'तत' कहे जाते हैं- जैसे [[वीणा]], [[तम्बूरा]], [[सारगीं]], [[बेला]], [[सरोद]] आदि।  
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#सुषिर-  जिसका भीतरी भाग सच्छिद्र (पोला) हो और जिसमें वायु का उपयोग होता हो, उसको 'सुषिर' कहते हैं- जैसे [[बांसुरी]], [[अलगोजा]], [[शहनाई]], [[बैण्ड]], [[हारमोनियम]], [[शंख]] आदि।  
#[[सुषिर वाद्य|सुषिर]]-  जिसका भीतरी भाग सच्छिद्र (पोला) हो और जिसमें वायु का उपयोग होता हो, उसको 'सुषिर' कहते हैं- जैसे [[बांसुरी]], [[अलगोजा]], [[शहनाई]], बैण्ड, [[हारमोनियम]], [[शंख]] आदि।  
#अवनद्ध -चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य 'अवनद्ध' कहा जाता है- जैसे [[ढोल]], [[नगाड़ा]], [[तबला]], [[मृदंग]], [[डफ]], [[खँजड़ी]] आदि।  
#अवनद्ध -चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य 'आनद्ध' कहा जाता है- जैसे [[ढोल]], [[नगाड़ा]], [[तबला]], [[मृदंग]], [[डफ]], खँजड़ी आदि।  
#घन- परस्पर आघात से बजाने योग्य वाद्य 'घन' कहलाता है- जैसे [[झांझ]], [[मंझीरा]], [[करताल]] आदि। यह कला गाने से सम्बन्ध रखती है बिना वाद्य के गान में मधुरता नहीं आती। प्राचीन काल में [[भारत]] के वाद्यों में वीणा मुख्य थी। इसका उल्लेख प्राचीन [[संस्कृत]] ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] और [[नारद]] का वीणा वादन, श्री[[कृष्ण]] की [[वंशी]], [[महादेव]] का डमरू तो प्रसिद्ध ही है। वाद्य आदि विषयों के संस्कृत में अनेक ग्रन्थ हैं। उनमें अनेक वाद्यों के परिमाण, उनके बनाने और मरम्मत करने की विधियाँ मिलती हैं। राज्यभिषेक, यात्रा, उत्सव, [[विवाह]], [[उपनयन]] आदि मांगलिक कार्यों के अवसरों पर भिन्न-भिन्न वाद्यों का उपयोग होता था। युद्ध में सैनिकों के उत्साह, शौर्य को बढ़ाने के लिये अनेक तरह के वाद्य बजाये जाते थे।
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[[चित्र:Pandit-Ravi-Shankar.jpg|thumb|200px|सितार वादक पंडित रवि शंकर]] जयमंगल के मतानुसार चौंसठ कलाओं में से यह एक कला है। अनेक प्रकार के वाद्यों का निर्माण करने और उनके बजाने का ज्ञान 'कला' है। वाद्यों के मुख्यतया चार भेद हैं-

  1. तत-तार अथवा ताँत का जिसमें उपयोग होता है, वे वाद्य 'तत' कहे जाते हैं- जैसे वीणा, तम्बूरा, सारंगी, बेला, सरोद आदि।
  2. सुषिर- जिसका भीतरी भाग सच्छिद्र (पोला) हो और जिसमें वायु का उपयोग होता हो, उसको 'सुषिर' कहते हैं- जैसे बांसुरी, अलगोजा, शहनाई, बैण्ड, हारमोनियम, शंख आदि।
  3. अवनद्ध -चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य 'आनद्ध' कहा जाता है- जैसे ढोल, नगाड़ा, तबला, मृदंग, डफ, खँजड़ी आदि।
  4. घन- परस्पर आघात से बजाने योग्य वाद्य 'घन' कहलाता है- जैसे झांझ, मंझीरा, करताल आदि। यह कला गाने से सम्बन्ध रखती है बिना वाद्य के गान में मधुरता नहीं आती। प्राचीन काल में भारत के वाद्यों में वीणा मुख्य थी। इसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। सरस्वती और नारद का वीणा वादन, श्रीकृष्ण की वंशी, महादेव का डमरू तो प्रसिद्ध ही है। वाद्य आदि विषयों के संस्कृत में अनेक ग्रन्थ हैं। उनमें अनेक वाद्यों के परिमाण, उनके बनाने और मरम्मत करने की विधियाँ मिलती हैं। राज्यभिषेक, यात्रा, उत्सव, विवाह, उपनयन आदि मांगलिक कार्यों के अवसरों पर भिन्न-भिन्न वाद्यों का उपयोग होता था। युद्ध में सैनिकों के उत्साह, शौर्य को बढ़ाने के लिये अनेक तरह के वाद्य बजाये जाते थे।

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