श्रीनाथजी उदयपुर: Difference between revisions

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[[उदयपुर]] [[राजस्थान]] का एक ख़ूबसूरत शहर है और [[उदयपुर पर्यटन]] का सबसे आकर्षक स्थल माना जाता है। माना जाता है, श्री [[वल्लभाचार्य]] जी को ही गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी की मूर्ति मिली थी। इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि  समय के साथ बढ़ती गई। पहली बार वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ जी को गुंसाई (गोस्वामी) पदवी मिली तब से उनकी संताने गुसांई कहलाने लगीं। विट्ठलनाथ जी के कुल सात पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग - अलग थीं। वैष्णवों में यह सात स्वरूप के नाम से प्रसिद्ध हैं। गिरिधर जी टिकायत (तिलकायत) उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। इसी से उनके वंशल नाथद्वारे के गुसांई जी टिकायत महाराज कहलाने लगे। श्रीनाथ जी की मूर्ति गिरिधर जी के पूजन में रही।
[[चित्र:Shrinathji-Temple.jpg|thumb|250px|श्रीनाथजी मंदिर, [[उदयपुर]]]]
'''श्रीनाथजी''' [[राजस्थान]] राज्य के [[उदयपुर]] शहर में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है।  
==इतिहास==
माना जाता है, श्री [[वल्लभाचार्य]] जी को ही [[गोवर्धन |गोवर्धन पर्वत]] पर श्रीनाथ जी की मूर्ति मिली थी। इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि  समय के साथ बढ़ती गई। पहली बार वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ जी को गुंसाई (गोस्वामी) पदवी मिली तब से उनकी संताने गुसांई कहलाने लगीं। विट्ठलनाथ जी के कुल सात पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग - अलग थीं। [[वैष्णव|वैष्णवों]] में यह सात स्वरूप के नाम से प्रसिद्ध हैं। गिरिधर जी टिकायत (तिलकायत) उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। इसी से उनके वंशल नाथद्वारे के गुसांई जी टिकायत महाराज कहलाने लगे। श्रीनाथ जी की मूर्ति गिरिधर जी के पूजन में रही।
 
[[औरंगजेब]] ने जब [[हिंदु|हिंदुओं]] की मूतियाँ तोड़ने की आज्ञा दी, तब दामोदर जी (बड़े दाऊजी) जो गिरिधर जी के पुत्र थे श्रीनाथ जी की भी मूर्ति तोड़ दिये जाने के भय से सन् 1669 ([[विक्रम संवत]] 1726) में गुप्तरीति से प्रतिमा लेकर [[गोवर्धन]] से निकल गये तथा कई स्थानों पर जैसे [[आगरा]], [[बूँदी राजस्थान|बूँदी]], [[कोटा]], [[पुष्कर]], कृष्णगढ़ आदि होते हुए चांपासणी गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुँचे। [[मेवाड़]] के तत्कालीन महाराणा राजसिंह की सहर्ष सहमति से इसे सन् 1671 (विक्रम संवत् 1728) को मेवाड़ ले आये जहाँ [[बनास नदी]] के किनारे सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई। धीरे-धीरे वहाँ एक नया गाँव बसने लगा तथा एक अच्छे कस्बे में बदल गया। बाद में उदयपुर के महाराणा, राजपूताना तथा अन्य बाहरी राज्यों के राजाओं व सरदारों ने श्रीनाथजी को कई गाँव व [[कुआँ|कुएँ]] उपहार स्वरूप भेंट में दिए।


[[औरंगजेब]] ने जब हिंदुओं की मूतियाँ तोड़ने की आज्ञा दी, तब दामोदर जी (बड़े दाऊजी) जो गिरिधर जी के पुत्र थे श्रीनाथ जी की भी मूर्ति तोड़ दिये जाने के भय से  सन् 1669 (विक्रम संवत 1726) में गुप्तरीति से प्रतिमा लेकर [[गोवर्धन]] से निकल गये तथा कई स्थानों पर जैसे [[आगरा]], [[बूंदी]], [[कोटा]], [[पुष्कर]], [[कृष्णगढ़]] आदि होते हुए चांपासणी गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुँचे। [[मेवाड़]] के तत्कालीन [[महाराणा राजसिंह]] की सहर्ष सहमति से इसे सन् 1671 (विक्रम संवत् 1728) को मेवाड़ ले आये जहाँ बनास नदी के किनारे सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई। धीरे-धीरे वहाँ एक नया गाँव बसने लगा तथा एक अच्छे कस्बे में बदल गया। बाद में उदयपुर के महाराणा, राजपूताना तथा अन्य बाहरी राज्यों के राजाओं व सरदारों ने श्रीनाथजी को कई गाँव व कुएँ उपहार स्वरूप भेंट में दिए।
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Latest revision as of 08:36, 6 August 2012

[[चित्र:Shrinathji-Temple.jpg|thumb|250px|श्रीनाथजी मंदिर, उदयपुर]] श्रीनाथजी राजस्थान राज्य के उदयपुर शहर में स्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है।

इतिहास

माना जाता है, श्री वल्लभाचार्य जी को ही गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी की मूर्ति मिली थी। इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि समय के साथ बढ़ती गई। पहली बार वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ जी को गुंसाई (गोस्वामी) पदवी मिली तब से उनकी संताने गुसांई कहलाने लगीं। विट्ठलनाथ जी के कुल सात पुत्रों की पूजन की मूर्तियाँ अलग - अलग थीं। वैष्णवों में यह सात स्वरूप के नाम से प्रसिद्ध हैं। गिरिधर जी टिकायत (तिलकायत) उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। इसी से उनके वंशल नाथद्वारे के गुसांई जी टिकायत महाराज कहलाने लगे। श्रीनाथ जी की मूर्ति गिरिधर जी के पूजन में रही।

औरंगजेब ने जब हिंदुओं की मूतियाँ तोड़ने की आज्ञा दी, तब दामोदर जी (बड़े दाऊजी) जो गिरिधर जी के पुत्र थे श्रीनाथ जी की भी मूर्ति तोड़ दिये जाने के भय से सन् 1669 (विक्रम संवत 1726) में गुप्तरीति से प्रतिमा लेकर गोवर्धन से निकल गये तथा कई स्थानों पर जैसे आगरा, बूँदी, कोटा, पुष्कर, कृष्णगढ़ आदि होते हुए चांपासणी गाँव (जोधपुर राज्य) में पहुँचे। मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राजसिंह की सहर्ष सहमति से इसे सन् 1671 (विक्रम संवत् 1728) को मेवाड़ ले आये जहाँ बनास नदी के किनारे सिहाड़ गाँव के पास वाले खेड़े में लाकर उसकी प्रतिष्ठा कर दी गई। धीरे-धीरे वहाँ एक नया गाँव बसने लगा तथा एक अच्छे कस्बे में बदल गया। बाद में उदयपुर के महाराणा, राजपूताना तथा अन्य बाहरी राज्यों के राजाओं व सरदारों ने श्रीनाथजी को कई गाँव व कुएँ उपहार स्वरूप भेंट में दिए।


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