आमवातज्वर: Difference between revisions

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'''आमवातज्वर''' (रूमैटिक ज्वर) का कारण आजकल स्टैफिलोकोकस (एक प्रकार के रोगाणु) समूह का विलंबित संक्रमण समझा जाता है, परंतु इसमें पूयोत्पादन नहीं होता (पीब नहीं बनती)। अब तक इसका बहुत कुछ प्रमाण मिल चुका है कि रक्तद्रावक स्टैफिलोकोकस जीवाणु की उपस्थिति से रोग प्रकट होता है। पहले श्वासमार्ग के ऊपरी भाग का संक्रमण, फिर एक से दो सप्ताह का गुप्तकाल , तत्पश्चात्‌ रूमैटिक ज्वर का उत्पन्न होना, यह क्रम रोग में इतनी अधिक बार पाया जाता है कि उससे इन अवस्थाओं के आपस में संबंधित होने की बहुत अधिक संभावना जान पड़ती है। किंतु इस संबंध की सभी बातों का अभी तक ठीक ठीक पता नहीं चल सका है। बहुत से विद्वान्‌ परिवर्तित ऊतक प्रतिक्रिया को इसका कारण मानते हैं।
'''आमवातज्वर''' (रूमैटिक ज्वर) का कारण आजकल स्टैफिलोकोकस (एक प्रकार के रोगाणु) समूह का विलम्बित संक्रमण समझा जाता है, परंतु इसमें पूयोत्पादन नहीं होता (पीब नहीं बनती)। अब तक इसका बहुत कुछ प्रमाण मिल चुका है कि रक्तद्रावक स्टैफिलोकोकस जीवाणु की उपस्थिति से रोग प्रकट होता है। पहले श्वासमार्ग के ऊपरी भाग का संक्रमण, फिर एक से दो सप्ताह का गुप्तकाल , तत्पश्चात्‌ रूमैटिक ज्वर का उत्पन्न होना, यह क्रम रोग में इतनी अधिक बार पाया जाता है कि उससे इन अवस्थाओं के आपस में संबंधित होने की बहुत अधिक संभावना जान पड़ती है। किंतु इस संबंध की सभी बातों का अभी तक ठीक ठीक पता नहीं चल सका है। बहुत से विद्वान्‌ परिवर्तित ऊतक प्रतिक्रिया को इसका कारण मानते हैं।


रूमैटिक ज्वर में शरीर के सौत्रिक ऊतकों में विशेष परिवर्तन होते हैं; उनमें छोटी गाँठें निकल आती हैं, जिनकों 'ऐशॉफ़ पिंड' कहते हैं। यह रोग सारे संसार में होता है। शीत प्रदेशों में, जहाँ आर्द्रता आधिक होता है, रोग विशेषकर होता है और अस्वच्छ दशाओं में रहनेवाले व्यक्तियों में अधिक पाया जाता है। यह दो से 15 वर्ष के, अर्थात स्कूल जानेवाले बालकों को विशेष कर होता है।
रूमैटिक ज्वर में शरीर के सौत्रिक ऊतकों में विशेष परिवर्तन होते हैं; उनमें छोटी गाँठें निकल आती हैं, जिनकों 'ऐशॉफ़ पिंड' कहते हैं। यह रोग सारे संसार में होता है। शीत प्रदेशों में, जहाँ आर्द्रता आधिक होता है, रोग विशेषकर होता है और अस्वच्छ दशाओं में रहनेवाले व्यक्तियों में अधिक पाया जाता है। यह दो से 15 वर्ष के, अर्थात स्कूल जानेवाले बालकों को विशेष कर होता है।

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आमवातज्वर (रूमैटिक ज्वर) का कारण आजकल स्टैफिलोकोकस (एक प्रकार के रोगाणु) समूह का विलम्बित संक्रमण समझा जाता है, परंतु इसमें पूयोत्पादन नहीं होता (पीब नहीं बनती)। अब तक इसका बहुत कुछ प्रमाण मिल चुका है कि रक्तद्रावक स्टैफिलोकोकस जीवाणु की उपस्थिति से रोग प्रकट होता है। पहले श्वासमार्ग के ऊपरी भाग का संक्रमण, फिर एक से दो सप्ताह का गुप्तकाल , तत्पश्चात्‌ रूमैटिक ज्वर का उत्पन्न होना, यह क्रम रोग में इतनी अधिक बार पाया जाता है कि उससे इन अवस्थाओं के आपस में संबंधित होने की बहुत अधिक संभावना जान पड़ती है। किंतु इस संबंध की सभी बातों का अभी तक ठीक ठीक पता नहीं चल सका है। बहुत से विद्वान्‌ परिवर्तित ऊतक प्रतिक्रिया को इसका कारण मानते हैं।

रूमैटिक ज्वर में शरीर के सौत्रिक ऊतकों में विशेष परिवर्तन होते हैं; उनमें छोटी गाँठें निकल आती हैं, जिनकों 'ऐशॉफ़ पिंड' कहते हैं। यह रोग सारे संसार में होता है। शीत प्रदेशों में, जहाँ आर्द्रता आधिक होता है, रोग विशेषकर होता है और अस्वच्छ दशाओं में रहनेवाले व्यक्तियों में अधिक पाया जाता है। यह दो से 15 वर्ष के, अर्थात स्कूल जानेवाले बालकों को विशेष कर होता है।

पुस्तकों में वर्णित लक्षण, शीत के साथ ज्वर आना, 100 से 102 डिग्री तक ज्वर, एक के पश्चात्‌ दूसरे जोड़ में शोथ होना तथा संधियों में पीड़ा और सूजन, पसीना आधिक आना आदि बहुत कम रोगियों में पाए जाते हैं। अधिकतर अंगों तथा जोड़ों में पीड़ा, मंदज्वर, थकान और दुर्बलता, ये ही लक्षण पाए जाते हैं। इसी प्रकार के मंद रोगक्रम में हृदय तथा मस्तिष्क आक्रांत हो जाते हैं।

युवावस्था में हुए उग्र आक्रमणों में रोग शीघ्रता से बढ़ता है। ज्वर 103 से 104 डिग्री तक हो जाता है। संधिशोथ भी तीव्र होता है, किंतु हृदय और मस्तिष्क अपेक्षाकृत बच जाते हैं। उचित चिकित्सा से ज्वर और संधिशोथ शीघ्र ही कम हो जाते हैं और रोगी आरोग्यलाभ करता है।

हृदार्ति - बालक का अकस्मात्‌ नीलवर्ण हो जाना, श्वास लेने में कठिनाई होना, हदवेग का बढ़ जाना, नवीन संधि के आक्रांत न होने पर भी ज्वर का बढ़ना, ये लक्षण हृदय के आक्रांत होने के द्योतक हैं। इस दशा में विशिष्ट चिह्न ये हैं-परिहृच्छदीय (पेरिकार्डियल) घर्षण ध्वनि, हृदगति में क्रमहीनता, विशेषकर हृदयरोध (हार्ट ब्लॉक) हृदय की त्वरित गति (गैलप रिद्य), हृदय के शिखर पर हत्संकोची तीव्र मर्मर ध्वनि, हृदय के महाधमनी क्षेत्र में संकोची मृदु मर्मर और विस्तारीयकाल के बीच में गड़गड़ाहट की ध्वनि। इन लक्षणों की अनुपस्थिति में हृदय के आक्रांत हो जाने का निश्चय करना कठिन हो जाता है। यदि पी.आर.अंत:काल बढ़ा हुआ हो,टी तरंगों का विपर्यय हो अथवा क्यू.टी.अंत:काल परिवर्तित हो, तो ऐसी दशा में इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम से सहायता मिल सकती है।

कोरिया-यह रूमैटिक ज्वर का दूसरा रूप है, जो विशेषकर बच्चों में पाया जाता है। पश्चिमी शीतप्रधान देशों में 50 प्रतिशत बच्चों को यह रोग होता है, किंतु उष्ण प्रदेशों में इतना अधिक नहीं होता। यह लक्षण देर से प्रकट होता है तथा इसका आरंभ अप्रकट रूप से हो जाता है। इसमें बेचैनी, मानसिक उद्विग्नता और अंगों में अकारण, अनियमित तथा बिना इच्छा के गति होती रहती है। हलके रोग में इसको पहचानने के लिए बहुत सावधानी की आवश्यकता है।

अधश्चर्म गुमटे (नोड्यूल) - ये रूमैटिक ज्वर के विशिष्ट लक्षण हैं, किंतु अज्ञात कारणों से उष्ण देशों में नहीं पाए जाते। ये गुमटे नाप में एक से दो सेंटीमीटर तक होते हैं और कलाइयों, कोहनियों, घुटनों तथा रीढ़ की हड्डी पर और सिर के पीछे उभड़ते हैं।

प्रयोगात्मक जाँच की अनुपस्थिति में केवल लक्षणों से ही निदान करना पड़ता है और इसलिए बहुत सावधानी से निरीक्षण करना आवश्यक है।

इसकी विशिष्ट चिकित्सा सैलीसिलेटों, ऐसिटिल सैलिसिलिक ऐसिड और स्टेराइडों की उँची मात्राओं से होती है। हृदय के आक्रांत होने पर पुनराक्रमणों को रोकने के लिए बहुत दिनों तक विश्राम तथा सावधानी से सुश्रूषा आवश्यक है तथा इसी उद्देश्य से पेनिसिलिन तथा सल्फोनामाइड मुख से देने की परीक्षा हो रही है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 391-92 |

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