बप्पा रावल: Difference between revisions
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यह अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि [[अरब|अरबों]] से सफल युद्ध करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में बप्पा रावल ने [[मुहम्मद बिन क़ासिम]] से [[सिंध प्रांत|सिंधु]] को जीता। अरबों ने उसके बाद चारों ओर धावे करने शुरू किए। उन्होंने चावड़ों, [[मौर्य|मौर्यों]], सैंधवों, कच्छेल्लोंश् और [[गुर्जर|गुर्जरों]] को हराया। [[मारवाड़]], [[मालवा]], [[मेवाड़]], [[गुजरात]] आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएँ छा गईं। [[राजस्थान]] के कुछ | यह अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि [[अरब|अरबों]] से सफल युद्ध करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में बप्पा रावल ने [[मुहम्मद बिन क़ासिम]] से [[सिंध प्रांत|सिंधु]] को जीता। अरबों ने उसके बाद चारों ओर धावे करने शुरू किए। उन्होंने चावड़ों, [[मौर्य|मौर्यों]], सैंधवों, कच्छेल्लोंश् और [[गुर्जर|गुर्जरों]] को हराया। [[मारवाड़]], [[मालवा]], [[मेवाड़]], [[गुजरात]] आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएँ छा गईं। [[राजस्थान]] के कुछ महान् व्यक्ति जिनमें विशेष रूप से प्रतिहार सम्राट् [[नागभट्ट प्रथम]] और बप्पा रावल के नाम उल्लेख्य हैं। नागभट्ट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवा से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मौर्य करने में असमर्थ थे, और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी। | ||
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बप्पा रावल (शासनकाल 734-753) सिसोदिया राजवंश मेवाड़ का प्रतापी शासक था।[1] उदयपुर (मेवाड़) रियासत की स्थापना आठवीं शताब्दी में सिसोदिया राजपूतों ने की थी। बप्पा रावल को 'कालभोज' भी कहा जाता था। जनता ने बप्पा रावल के प्रजासंरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही इसे 'बापा' पदवी से विभूषित किया था।
कर्नल टॉड के अनुसार सन् 728 ई. में बप्पा रावल ने चित्तौड़गढ़ को राजपूताने पर राज्य करने वाले मौर्य वंश के अंतिम शासक मान मौर्य से छीनकर गुहिलवंशीय राज्य की स्थापना की।[2]
राज्यकाल
महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बप्पा रावल का समय संवत 810 (सन 753) ई. दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बप्पा रावल के राज्यत्याग का समय था। यदि बप्पा रावल का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। मेवाड़ में बप्पा रावल से पहले उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा भी हो चुके थे, किंतु बप्पा रावल का व्यक्तित्व उन सब राजाओं से बढ़कर था। उस समय तक चित्तौड़ का मज़बूत दुर्ग मौर्य वंश के राजाओं के हाथ में था। परंपराओं से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बप्पा ने मान मौर्य को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया।
टॉड के अनुसार, राजा मान मौर्य का विक्रम संवत 770 (सन 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बप्पा रावल और मान मौर्य के समय में विशेष अंतर नहीं है।
अरबों का आक्रमण
यह अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में बप्पा रावल ने मुहम्मद बिन क़ासिम से सिंधु को जीता। अरबों ने उसके बाद चारों ओर धावे करने शुरू किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लोंश् और गुर्जरों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएँ छा गईं। राजस्थान के कुछ महान् व्यक्ति जिनमें विशेष रूप से प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम और बप्पा रावल के नाम उल्लेख्य हैं। नागभट्ट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवा से मार भगाया। बापा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बापा ने वह कार्य किया जो मौर्य करने में असमर्थ थे, और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बापा रावल के मुस्लिम देशों पर विजय की अनेक दंतकथाएँ अरबों की पराजय की इस सच्ची घटना से उत्पन्न हुई होंगी।
बप्पा रावल के सिक्के
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अजमेर के सोने के सिक्के को बापा रावल का माना है। इस सिक्के का तोल 115 ग्रेन (65 रत्ती) है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है, बाई ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। सिक्के के पीछे की तरफ चमर, सूर्य, और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं।
मृत्यु
बप्पा रावल का देहान्त नागदा में हुआ था। नागदा में उसकी समाधि स्थित है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
मूल पाठ - शर्मा, दशरथ “खण्ड 8”, हिन्दी विश्वकोश, 1967 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पृष्ठ सं 191।