लॉर्ड लिनलिथगो: Difference between revisions

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*(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-422
*(पुस्तक 'भारत ज्ञानकोश') पृष्ठ संख्या-163
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Revision as of 10:54, 27 July 2011

thumb|लॉर्ड लिनलिथगो लॉर्ड लिनलिथगो का पूरा नाम 'विक्टर अलेक्ज़ेण्डर जॉन होप लिनलिथगो' था। इसका जन्म 24 सितम्बर 1887 ई. में ऐबरकॉर्न, वेस्ट लोथियन, स्कॉटलैण्ड, इंग्लैण्ड में हुआ, और मृत्यु 5 जनवरी, 1952 ई. में ऐबरकॉर्न में हुई थी। लॉर्ड लिनलिथगो ब्रिटिश राजनेता और 1936 ई. से 1943 ई. तक भारत का सबसे लम्बे समय तक वाइसराय रहा, जिसने 'द्वितीय विश्वयुद्ध' के दौरान यहाँ ब्रिटिश उपस्थिति के विरोध का दमन किया। 1908 ई. में इसे 'मार्क्विस' की उपाधि मिली थी। लॉर्ड लिनलिथगो ने जर्मनी के ख़िलाफ़ युद्ध में भारतीय राजनीतिक दलों को एकजुट करने की अपील की थी। साथ न दिये जाने पर उसने कांग्रेस के नेताओं को नज़रबन्द कर दिया।

स्वशासन युक्त सरकार

लिनलिथगो ने 1936 ई. के 'गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया एक्ट' के पास होने के बाद पद ग्रहण किया। जिसमें ब्रिटिश भारत की स्वशासन युक्त प्रान्तीय सरकारों तथा देशी रियासतों की एक संघ सरकार बनाने की व्यवस्था की गई थी। अभी तक देशी रियासतों का सीधा सम्बन्ध ब्रिटिश सम्राट से था। लॉर्ड लिनलिथगो ने केन्द्र में प्रस्तावित संघ सरकार तथा प्रान्तों में उत्तरदायी स्वशासन युक्त सरकारों की स्थापना करके समूचे एक्ट को क्रियान्वित करने का प्रयास किया। प्रान्तीय चुनाव 1937 ई. में समाप्त हुए, जिनमें ग्यारह में से पाँच प्रान्तों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ तथा दो अन्य प्रान्तों में भी वह सरकार बना सकने की स्थिति में थी। इन परिस्थितियों में नये संविधान के प्रान्तों से सम्बन्धित भाग को क्रियान्वित कर दिया गया। किन्तु प्रस्तावित संघ सरकार में देशी रियासतों को सम्मिलित करने के प्रश्न पर वार्ता चलाने में काफ़ी समय लग गया। इस बीच 1939 ई. में 'द्वितीय विश्व-युद्ध' शुरू हो गया और संविधान के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग का क्रियान्वयन स्थगित कर दिया गया।

लिनलिथगो की अपील

सितम्बर 1939 ई. में लिनलिथगो ने भारतीय राजनीतिक दलों से परामर्श किए बिना जर्मनी के ख़िलाफ़ युद्ध में एकजुट होने की अपील की, इससे कांग्रेस आहत हुई और उसने अपने प्रान्तीय मंत्रियों को इस्तीफ़ा देने के लिए कहा। कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने लिनलिथगो की कार्यकारी परिषद में प्रतिनिधित्व के प्रस्ताव को ठुकरा दिया; फिर भी उसने परिषद में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ा दी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत के ब्रिटिश शासन को जापानियों से ख़तरे के साथ-साथ ब्रिटेन द्वारा भारत को स्वतंत्रता न दिये जाने से असंतुष्ट कांग्रेस पार्टी द्वारा अगस्त 1942 ई. में सामूहिक सविनय अवज्ञा के प्रयास से भी ख़तरा था। लिनलिथगो ने कांग्रेस के नेताओं को नज़रबन्द कर दिया और सरकार के ख़िलाफ़ होने वाले विरोध का दमन कर दिया।

कठिन परिस्थिति

'द्वितीय विश्व-युद्ध' छिड़ जाने पर लॉर्ड लिनलिथगो पर दोहरा कार्यभार आ पड़ा। एक ओर तो उसे भारत में जनमत को अपने पक्ष में बनाने का प्रयास करना पड़ा, जो अत्यन्त विक्षुब्ध हो गया था। दूसरी ओर उसे भारत में ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध प्रयत्नों को संगठित करना पड़ा। युद्ध में इंग्लैण्ड के विरुद्ध जापान के कूद पड़ने से उसकी कठिनाइयाँ और भी बढ़ गईं। 1941 ई. में जापान ने मलेशिया पर आक्रमण कर सिंगापुर पर अधिकार कर लिया। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लॉर्ड लिनलिथगो ने भारत को न केवल आवश्यक युद्ध-सामग्री भेजने का केवल अड्डा बना दिया, बल्कि ब्रिटिश भारतीय सेना की शक्ति 1,75,000 से बढ़ाकर दस लाख तक कर दी गई और इन सेनाओं को दक्षिण पूर्व एशिया तथा पश्चिम एशिया के युद्ध क्षुत्रों में भेज दिया गया। जिसकी वजह से ब्रिटिश पराजय धीरे-धीरे ब्रिटिश विजय में परवर्तित हो गई। परन्तु युद्ध प्रयत्नों के फलस्वरूप जहाँ एक ओर ख़र्च में उत्तरोत्तर भारी वृद्धि होती गई, वहीं दूसरी ओर बंगाल में सर्वक्षार नीति का अनुसरण करने के कारण 1943 ई. में भयंकर अकाल पड़ गया। लॉर्ड लिनलिथगो की सरकार इस अकाल का सामना करने में असफल रही और शीघ्र ही लॉर्ड लिनलिथगो का स्थान लॉर्ड वेवेल ने ग्रहण कर लिया। जिसने अपने फ़ौजी अनुभव और चुस्ती से काम कर स्थिति का सामना किया।

शान्ति का प्रयास

लॉर्ड लिनलिथगो ने क्षुब्ध भारतीय जनमत को कौशलपूर्ण ढंग से शान्त रखकर भारत में आन्तरिक शान्ति बनाये रखने जो प्रयत्न किया, उससे उसे आंशिक सफलता मिली। अक्टूबर 1939 ई. में उसने घोषणा की कि भारत के संवैधानिक विकास का लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना है। उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग की माँग की परस्पर विरोधी बातों पर ज़ोर देकर तथा भारत को क्रिप्स-प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के लिए राज़ी करने के उद्देश्य से 1942 ई. में सर स्ट्रेफ़र्ड क्रिप्स को भारत आमंत्रित करके देश के अन्दर कोई खुली बगावत नहीं होने दी। फिर भी ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वाधीनता प्रदान करने की कोई निश्चित तिथि की घोषणा करने से बार-बार इनकार करके महात्मा गाँधी को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' शुरू करने के लिए विवश कर दिया। महात्मा गाँधी ने माँग की कि ब्रिटेन को तुरन्त भारत पर अपनी प्रभुसत्ता का परित्याग करके यहाँ से चले जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इस माँग का समर्थन किया। जवाब में लॉर्ड लिनलिथगो ने महात्मा गाँधी को क़ैद कर लिया और समूची 'कांग्रेस वर्किंग कमेटी' को नज़रबन्द कर दिया। लॉर्ड लिनलिथगो ने 1943 ई. में भारत से अवकाश ग्रहण किया और चार वर्ष के बाद भारत को स्वाधीन कर दिया। इससे प्रकट होता है कि उसने बल प्रयोग के द्वारा भारत में ब्रिटेन की प्रभुसत्ता को बनाये रखने का जो प्रयत्न किया, वह कितना व्यर्थ था।

मृत्यु

लॉर्ड लिनलिथगो की मृत्यु 5 जनवरी 1952 ई. में ऐबरकॉर्न में हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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