पुरु: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
(''''पुरु''' का नाम यूनानी इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है।...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
Line 1: Line 1:
'''पुरु''' का नाम [[यूनानी]] इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है। उनके वर्णनानुसार मकदुनिया के राजा [[सिकन्दर]] ने 326 ई. पू. में जब [[पंजाब]] पर आक्रमण किया, उसका राज्य [[झेलम नदी|झेलम]] और [[चिनाब नदी|चिनाब]] नदियों के बीच में स्थित था। पुरु इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करता है कि भारतीय क्षत्रिय राजा शूरवीर और स्वाभिमानी होते थे। सिकन्दर ने पुरु की सेना की मुख्य शक्ति हाथी हैं, यह जान लिया था और युद्धभूमि में उनका सामना किस प्रकार करना है, यह सब उसने अपने सैनिकों को समझा दिया था। पुरु ने शत्रु की सेना की जरा भी जानकारी लेना उचित नहीं समझा और यही भूल उसकी सबसे बड़ी पराजय का कारण बन गई।
'''पुरु''' चौथी शताब्दी ई.पू. में [[भारत]] के एक महान राजा थे। पुरु का नाम [[यूनानी]] इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है। उनके वर्णनानुसार मकदुनिया के राजा [[सिकन्दर]] ने 326 ई. पू. में जब [[पंजाब]] पर आक्रमण किया, उस समय पुरु का राज्य [[झेलम नदी|झेलम]] और [[चिनाब नदी|चिनाब]] नदियों के बीच में स्थित था। पुरु इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करता है कि भारतीय क्षत्रिय राजा शूरवीर और स्वाभिमानी होते थे। यद्यपि पुरु की सिकन्दर द्वारा पराजय हो चुकी थी, फिर भी पुरु का युद्ध कौशल, उसकी वीरता तथा उत्साह ने सिकन्दर को बहुत प्रभावित किया और उसने पुरु से मित्रता कर ली।
==पुरु की भूल==
==पुरु की भूल==
पुरु के पड़ोसी, [[तक्षशिला]] के राजा [[आम्भि]] ने, जिसका राज्य झेलम नदी के पश्चिम में था, सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु पुरु ने सिकन्दर के आगे झुकने से इंकार कर दिया और उससे युद्ध भूमि में भेंट करने का निश्चय किया। सिकन्दर ने इस बात का पता लगा लिया था कि उसके शत्रु का मुख्य बल [[हाथी]] है और उसने अपनी सेना को बता दिया था कि उनका सामना किस रीति से करना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरु ने इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की कि यवन सेना की शक्ति का रहस्य क्या है। यवन सेना का मुख्य बल उसके द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार फ़ुर्तीले तीरंदाज़ थे। पुरु को अपनी वीरता और हस्तिसेना का विश्वास था और उसने सिकन्दर को झेलम नदी को पार करने से रोकने की चेष्टा भी नहीं की।
पुरु के पड़ोसी, [[तक्षशिला]] के राजा [[आम्भि]] ने, जिसका राज्य झेलम नदी के पश्चिम में था, सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु पुरु ने सिकन्दर के आगे झुकने से इंकार कर दिया और उससे युद्ध भूमि में भेंट करने का निश्चय किया। सिकन्दर ने इस बात का पता लगा लिया था कि उसके शत्रु का मुख्य बल [[हाथी]] है और उसने अपनी सेना को बता दिया था कि उनका सामना किस रीति से करना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरु ने इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की कि [[यवन]] सेना की शक्ति का रहस्य क्या है। यवन सेना का मुख्य बल उसके द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार फ़ुर्तीले तीरंदाज़ थे। पुरु को अपनी वीरता और हस्तिसेना का विश्वास था और उसने सिकन्दर को झेलम नदी को पार करने से रोकने की चेष्टा भी नहीं की। पुरु की यही भूल उसकी सबसे बड़ी पराजय का कारण बन गई।
==त्रुटिपूर्ण व्युहरचना तथा पराजय==
==त्रुटिपूर्ण व्युहरचना तथा पराजय==
सिकन्दर के द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार तीरंदाज़ जब सामने आ गये, तब जाकर उसने झेलम के पूर्वी तट पर कर्री के मैदान में व्युहरचना करके उनका सामना किया। उसकी धीरे-धीरे चलने वाली पदाति सेना सबसे आगे थी, उसके पीछे हस्तिसेना थी। उसने जिस ढंग की वर्गाकार व्युहरचना की थी, उसमें सेना के लिए तेज़ी से गमन करना सम्भव नहीं था। उसके धनुषधारी सैनिकों के धनुष इतने बड़े थे कि उन्हें चलाने के लिए ज़मीन पर टेकना पड़ता था। सिकन्दर ने अपनी द्रुतगामी सेना की गतिशीलता का पूरा लाभ उठाया और उसकी इस रणनीति ने उसे युद्ध में विजयी बना दिया। पुरु बड़ी वीरता के साथ लड़ा और घायल हो जाने पर भी उसने युद्धभूमि में पीठ नहीं दिखाई।
सिकन्दर के द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार तीरंदाज़ जब सामने आ गये, तब जाकर पुरु ने [[झेलम नदी|झेलम]] के पूर्वी तट पर कर्री के मैदान में व्युहरचना करके उनका सामना किया। उसकी धीरे-धीरे चलने वाली पदाति सेना सबसे आगे थी, उसके पीछे हस्तिसेना थी। उसने जिस ढंग की वर्गाकार व्युहरचना की थी, उसमें सेना के लिए तेज़ी से गमन करना सम्भव नहीं था। उसके धनुषधारी सैनिकों के धनुष इतने बड़े थे कि उन्हें चलाने के लिए ज़मीन पर टेकना पड़ता था। सिकन्दर ने अपनी द्रुतगामी सेना की गतिशीलता का पूरा लाभ उठाया और उसकी इस रणनीति ने उसे युद्ध में विजयी बना दिया। पुरु बड़ी वीरता के साथ लड़ा और घायल हो जाने पर भी उसने युद्धभूमि में पीठ नहीं दिखाई।
==सिकन्दर से मित्रता==
==सिकन्दर से मित्रता==
यवन सैनिकों ने जब उसे बंदी बना लिया तो सिकन्दर ने बुद्धिमत्ता से काम लेकर उसे अपना मित्र राजा बना लिया। उसने उसे पूरा राजोचित सम्मान प्रदान किया और उसका राज्य लौटा दिया और शायद [[पंजाब]] में जीते गये कुछ राज्य भी उसे ही सौंप दिये। सिकन्दर की वापसी के बाद पुरु की क्या भूमिका रही, यह ज्ञात नहीं है। पंजाब को यवनों से [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] ने मुक्त कराया।
यवन सैनिकों ने जब पुरु को बंदी बना लिया तो उसकी वीरता तथा कौशलता से प्रभावित होकर सिकन्दर ने बुद्धिमत्ता से काम लेकर उसे अपना मित्र राजा बना लिया। उसने उसे पूरा राजोचित सम्मान प्रदान किया और उसका राज्य लौटा दिया और शायद [[पंजाब]] में जीते गये कुछ राज्य भी उसे ही सौंप दिये। सिकन्दर की वापसी के बाद पुरु की क्या भूमिका रही, यह ज्ञात नहीं है। पंजाब को यवनों से [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] ने मुक्त कराया।


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}

Revision as of 05:46, 20 October 2011

पुरु चौथी शताब्दी ई.पू. में भारत के एक महान राजा थे। पुरु का नाम यूनानी इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है। उनके वर्णनानुसार मकदुनिया के राजा सिकन्दर ने 326 ई. पू. में जब पंजाब पर आक्रमण किया, उस समय पुरु का राज्य झेलम और चिनाब नदियों के बीच में स्थित था। पुरु इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करता है कि भारतीय क्षत्रिय राजा शूरवीर और स्वाभिमानी होते थे। यद्यपि पुरु की सिकन्दर द्वारा पराजय हो चुकी थी, फिर भी पुरु का युद्ध कौशल, उसकी वीरता तथा उत्साह ने सिकन्दर को बहुत प्रभावित किया और उसने पुरु से मित्रता कर ली।

पुरु की भूल

पुरु के पड़ोसी, तक्षशिला के राजा आम्भि ने, जिसका राज्य झेलम नदी के पश्चिम में था, सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु पुरु ने सिकन्दर के आगे झुकने से इंकार कर दिया और उससे युद्ध भूमि में भेंट करने का निश्चय किया। सिकन्दर ने इस बात का पता लगा लिया था कि उसके शत्रु का मुख्य बल हाथी है और उसने अपनी सेना को बता दिया था कि उनका सामना किस रीति से करना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरु ने इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की कि यवन सेना की शक्ति का रहस्य क्या है। यवन सेना का मुख्य बल उसके द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार फ़ुर्तीले तीरंदाज़ थे। पुरु को अपनी वीरता और हस्तिसेना का विश्वास था और उसने सिकन्दर को झेलम नदी को पार करने से रोकने की चेष्टा भी नहीं की। पुरु की यही भूल उसकी सबसे बड़ी पराजय का कारण बन गई।

त्रुटिपूर्ण व्युहरचना तथा पराजय

सिकन्दर के द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार तीरंदाज़ जब सामने आ गये, तब जाकर पुरु ने झेलम के पूर्वी तट पर कर्री के मैदान में व्युहरचना करके उनका सामना किया। उसकी धीरे-धीरे चलने वाली पदाति सेना सबसे आगे थी, उसके पीछे हस्तिसेना थी। उसने जिस ढंग की वर्गाकार व्युहरचना की थी, उसमें सेना के लिए तेज़ी से गमन करना सम्भव नहीं था। उसके धनुषधारी सैनिकों के धनुष इतने बड़े थे कि उन्हें चलाने के लिए ज़मीन पर टेकना पड़ता था। सिकन्दर ने अपनी द्रुतगामी सेना की गतिशीलता का पूरा लाभ उठाया और उसकी इस रणनीति ने उसे युद्ध में विजयी बना दिया। पुरु बड़ी वीरता के साथ लड़ा और घायल हो जाने पर भी उसने युद्धभूमि में पीठ नहीं दिखाई।

सिकन्दर से मित्रता

यवन सैनिकों ने जब पुरु को बंदी बना लिया तो उसकी वीरता तथा कौशलता से प्रभावित होकर सिकन्दर ने बुद्धिमत्ता से काम लेकर उसे अपना मित्र राजा बना लिया। उसने उसे पूरा राजोचित सम्मान प्रदान किया और उसका राज्य लौटा दिया और शायद पंजाब में जीते गये कुछ राज्य भी उसे ही सौंप दिये। सिकन्दर की वापसी के बाद पुरु की क्या भूमिका रही, यह ज्ञात नहीं है। पंजाब को यवनों से चन्द्रगुप्त मौर्य ने मुक्त कराया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 243 |


संबंधित लेख