हर हर हर महादेव: Difference between revisions
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सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी। | सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी। | ||
अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥ हर हर | अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥ हर हर | ||
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प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता। हर हर .. | प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता। हर हर .. | ||
हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै। | हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै। | ||
सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै। हर हर .. | सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै। हर हर ..</poem></span></blockquote> | ||
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शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी। | शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी। | ||
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥ | नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥ | ||
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सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥ | सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥ | ||
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो। | तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो। | ||
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥ | सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥</poem></span></blockquote> | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== |
Revision as of 23:16, 3 January 2011
सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी।
अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥ हर हर
आदि, अनन्त, अनामय, अकल कलाधारी।
अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी॥ हर हर..
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तुम त्रिमूर्तिधारी।
कर्ता, भर्ता, धर्ता तुम ही संहारी॥ हर हर ..
रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय औघरदानी।
साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता, अभिमानी॥ हर हर ..
मणिमय भवन निवासी, अति भोगी, रागी।
सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी॥ हर हर ..
छाल कपाल, गरल गल, मुण्डमाल, व्याली।
चिताभस्मतन, त्रिनयन, अयनमहाकाली॥ हर हर ..
प्रेत पिशाच सुसेवित, पीत जटाधारी।
विवसन विकट रूपधर रुद्र प्रलयकारी॥ हर हर ..
शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।
अतिकमनीय, शान्तिकर, शिवमुनि मनहारी॥ हर हर ..
निर्गुण, सगुण, निर†जन, जगमय, नित्य प्रभो।
कालरूप केवल हर! कालातीत विभो॥ हर हर .
सत्, चित्, आनन्द, रसमय, करुणामय धाता।
प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता। हर हर ..
हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै।
सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै। हर हर ..
शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा-सी॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु लाग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत करत दुग्ध की वर्षा-सी॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित सेवत सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन कछु शिव हमकू फरमासी॥
ऋद्धि सिद्ध के दाता शंकर नित सत् चित् आनन्दराशी।
जिनके सुमिरत ही कट जाती कठिन काल यमकी फांसी॥
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर प्रेम सहित जो नरगासी।
दूर होय विपदा उस नर की जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥
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- REDIRECT साँचा:आरती स्तुति स्तोत्र