विम कडफ़ाइसिस: Difference between revisions
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*इस अनुश्रुति की पुष्टि [[पंजाब]] की उन दन्तकथाओं द्वारा भी होती है, जो अब तक वहाँ पर प्रचलित है, और जिनका संग्रह कैप्टन आर. सी. टैम्पल ने 'द लीजेन्ड्स आफ़ पंजाब' नामक पुस्तक में किया है। | *इस अनुश्रुति की पुष्टि [[पंजाब]] की उन दन्तकथाओं द्वारा भी होती है, जो अब तक वहाँ पर प्रचलित है, और जिनका संग्रह कैप्टन आर. सी. टैम्पल ने 'द लीजेन्ड्स आफ़ पंजाब' नामक पुस्तक में किया है। | ||
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Revision as of 05:52, 28 May 2011
- युइशि राजा कुजुल कुषाण का उत्तराधिकारी उसका पुत्र विम कडफ़ाइसिस था।
- विम कडफ़ाइसिस ने सिंधु नदी पार करके तक्षशिला और पंजाब पर अधिकार कर लिया। उसने अपने सोने और ताँबे के सिक्कों में महाराज, राजाधिराज, महीश्वर, सर्वलोकेश्वर आदि विरुद धारण किए। उसके सिक्कों पर भी एक ओर यूनानी लिपि है और दूसरी ओर खरोष्ठी। उसके सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशूल आदि लक्षणों से ज्ञात होता है कि वह शैव धर्म से प्रभावित था। रोम के साथ उसके अच्छे सम्बन्ध थे।
- इसके भी बहुत से सिक्के अफ़ग़ानिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त और पंजाब से उपलब्ध हुए हैं, और इनसे इसके राज्य के विस्तार को जानने में सहायता मिलती है। इन सिक्कों पर जो लेख अंकित है, वे प्रायः इस ढंग के हैं - महरजस रजदिरजस सर्व लोग ईश्वरस महिश्वरस विम कथफ़िशस भरतस। इस राजा के अनेक सिक्के इस प्रकार के हैं, जिन पर राजा का नाम पूरा न देकर केवल वि अंकित है, जो स्पष्टतया विम को सूचित करता है, और 'वि' अक्षर से पहले 'महरजस रजदिरजस' आदि विशेषण प्राकृत या ग्रीक भाषा में दिए हुए हैं।
- चीन की ऐतिहासिक अनुश्रुति के अनुसार इस राजा ने भारत को फिर से विजय किया था, और इसके समय में युइशियों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। इसने भारत के अनेक राज्यों को जीतकर उनका शासन करने के लिए अपने प्रतिनिधित्व नियुक्त किए थे। इसमें सन्देह नहीं, कि गान्धार से आगे बढ़कर पंजाब और भारत के अन्य पश्चिमी प्रदेशों की विजय राजा विम द्वारा ही की गई थी, और उसकी विजयों से युइशि लोगों का शासन भारत में भली-भाँति स्थापित हो गया था। चीनी अनुश्रुति का यह कथन बहुत ही महतवपूर्ण है कि राजा विम ने भारत के राजाओं को मारकर शासन करने के लिए अपने प्रतिनिधित्व नियुक्त किए थे। राजा कुजुल कुषाण के समय में उत्तर-पश्चिमी भारत और पंजाब में जो बहुत से छोटे-छोटे राज्य थे, और जिनके शासक यवन, शक और पार्थियन जातियों के थे, विम ने उनका मूलोच्छेद किया, और उनके स्थान पर अपनी ओर से शासक नियुक्त किए थे, यही इस अनुश्रुति का अभिप्राय है।
- राजा विम केवल पंजाब तक ही अपनी शक्ति का विस्तार करके संतुष्ट नहीं हुआ, वह पंजाब से मथुरा की दिशा में और आगे उन प्रदेशों की ओर भी बढ़ा जो आजकल उत्तर प्रदेश के अंतर्गत हैं। उसके सिक्के वाराणसी तक उपलब्ध हुए हैं।
- मथुरा में एक मूर्ति मिली है, जिसके नीचे यह लेख है - महाराजों राजाधिराजो देवपुत्रो कुषाणपुत्रो देम...... मथुरा में राजा विम की मूर्ति प्राप्त होने से यह अनुमान किया गया है कि यह प्रदेश भी उसके राज्य में सम्मिलित था।
- ऐसा प्रतीत होता है, कि राजा विम ने भारत के सम्पर्क में आकर यहाँ के अन्यतम धर्म शैव धर्म को स्वीकार कर लिया था। उसके कुछ सिक्कों पर शिव तथा नन्दी की मूर्ति और त्रिशूल अंकित है। ऐसे भी सिक्के मिले हैं जिनमें विम के साथ 'महिश्वरस' भी अंकित है, जो उसके शैव धर्मानुयायी होने का प्रमाण है।
- मथुरा में विम की जो मूर्ति मिली है, उसकी वेश-भूषा भी ध्यान देने योग्य है। इस मूर्ति का परिधान लम्बा चोगा, कमरबन्द, घुटनों तक के जूते और उनमें टंका हुआ पायज़ामा तथा सिर पर नुकीली टोपी है। युइशि लोगों का शायद यही परिधान होता था। विम का शासन काल 35 से 65 से ई. पू. के लगभग तक था।
कुषाण राज्य की पराजय
राजा विम ने पंजाब और उत्तर-प्रदेश के जिन प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन किया था, उन पर उसका शासन देर तक नहीं स्थिर रह सका। भारत की प्रधान राजशक्ति इस समय सातवाहन राजाओं की थी, जो मगध पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर चुके थे। विम का समकालीन सातवाहन राजा कुन्तल सातकर्णि था, जो विक्रमादित्य द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध है। कुषाण राजा के भारत के मध्यदेश में प्रविष्ट होने की बात को यह सातवाहन राजा सहन नहीं कर सका। उसने विदेशी युइशि आक्रान्ताओं से भारत की रक्षा करने के लिए उन पर चढ़ाई की, और उन्हें परास्त कर 'शकारि' की पदवी धारण की। सातवाहन राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि के बाद कुन्तल सातकर्णि दूसरा 'शकारि' और दूसरा 'विक्रमादित्य' हुआ। प्राचीन भारतीय साहित्य की क में किया है। इन दन्तकथाओं के अनुसार राजा सातवाहन ने सिरकप नाम के प्रजापीड़क राजा पर आक्रमण करके पंजाब में उसे परास्त किया था। सिरकप सम्भवतः श्रीकपस या श्रीकथफ़िश का ही अपभ्रंश है।
- इस अनुश्रुति की पुष्टि पंजाब की उन दन्तकथाओं द्वारा भी होती है, जो अब तक वहाँ पर प्रचलित है, और जिनका संग्रह कैप्टन आर. सी. टैम्पल ने 'द लीजेन्ड्स आफ़ पंजाब' नामक पुस्तक में किया है।
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