अनुराग बाँसुरी -नूर मुहम्मद: Difference between revisions
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Revision as of 07:13, 30 July 2011
- नूर मुहम्मद का एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है 'अनुराग बाँसुरी'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है। दूसरी बात है हिन्दी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव।
- 'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूर मुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था कि तुम मुसलमान होकर हिन्दी भाषा में रचना करने क्यों गए। इसी से 'अनुराग बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी
जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥
रचनाकाल
- 'अनुराग बाँसुरी' का रचनाकाल 1178 हिजरी अर्थात् 1821 है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्वज्ञान संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर पूरा अध्यवसित रूपक (एलेगरी) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों के बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता है पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक हैं।
- एक विशेषता और है। चौपाइयों के बीच बीच में इन्होंने दोहे न लिखकर बरवै रखे हैं। प्रयोग भी ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियों में नहीं आए हैं। काव्यभाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं कहीं ब्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं। -
नगर एक मूरतिपुर नाऊँ । राजा जीव रहै तेहि ठाऊँ॥
का बरनौं वह नगर सुहावन । नगर सुहावन सब मन भावन॥
इहै सरीर सुहावन मूरतिपुर । इहै जीव राजा, जिव जाहु न दूर॥
तनुज एक राजा के रहा । अंत:करन नाम सब कहा॥
सौम्यसील सुकुमार सयाना । सो सावित्री स्वांत समाना॥
सरल सरनि जौ सो पग धारै । नगर लोग सूधौ पग परै॥
वक्र पंथ जो राखै पाऊ । वहै अधव सब होइ बटाऊ॥
रहे सँघाती ताके पत्तान ठावँ।एक संकल्प, विकल्प सो दूसर नावँ॥
बुद्धि चित्त दुइ सखा सरेखै। जगत बीच गुन अवगुन देखै।।
अंत:करन पास नित आवैं। दरसन देखि महासुख पावैं॥
अहंकार तेहि तीसर सखा निरंत्रा। रहेउ चारि के अंतर नैसुक अंत्रा॥
अंत:करन सदन एक रानी । महामोहनी नाम सयानी॥
बरनि न पारौं सुंदरताई । सकल सुंदरी देखि लजाई॥
सर्व मंगला देखि असीसै । चाहै लोचन मध्य बईसै॥
कुंतल झारत फाँदा डारै । लख चितवन सों चपला मारै।।
अपने मंजु रूप वह दारा । रूपगर्विता जगत मँझारा॥
प्रीतम प्रेम पाइ वह नारी । प्रेमगर्विता भई पियारी॥
सदा न रूप रहत है अंत नसाइ। प्रेम, रूप के नासहिं तें घटि जाइ॥
- नूर मुहम्मद को हिन्दी भाषा में कविता करने के कारण जगह जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे। अत: वे अपने इस ग्रंथ की प्रशंसा इस ढंग से करते हैं -
यह बाँसुरी सुनै सो कोई । हिरदय स्रोत खुला जेहि होई॥
निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार॥
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली॥
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै॥
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात। तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 87।