हनुमान प्रसाद पोद्दार: Difference between revisions

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भारत के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार (जन्म-1949 - मृत्यु- 22 मार्च 1971) की जगह नहीं ले सकते। भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नाम का एक ऐसा सूरज उदय हुआ जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। आज 'गीता प्रेस गोरखपुर' का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह पोद्दार जी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।

जीवन परिचय

भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। राजस्थान के रतनगढ़ में 'लाला भीमराज अग्रवाल' और उनकी पत्नी 'रिखीबाई' हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'हनुमान प्रसाद' रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया। दादी के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने - सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के 'संत ब्रजदास' जी ने बालक को दीक्षा दी।

स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रभाव

उस समय देश ग़ुलामी की जंज़ीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादा जी के साथ असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं, झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो पोद्दार जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधी जी से हुई। वीर सावरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। विक्रम संवत 1971 में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो पोद्दार जी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

आन्दोलन और जेल

कलकत्ता में आज़ादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जख़ीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में पोद्दार जी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरू कर दी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान पोद्दार जी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया। वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीज़ों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, पोद्दार जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद ख़ुद ही मरीज़ों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

खादी प्रचार मंडल

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिद्ध संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे।

गीता प्रेस की स्थापना

उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के 'वाणिक प्रेस' में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हज़ार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन पोद्दार जी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों ग़लतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी ग़लतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयनका जी का व्यापार तब बांकुड़ा, बंगाल में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होंने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई 1922 में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

कल्याण पत्रिका

1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर सेठ घनश्यामदास बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़ला जी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को 'कल्याण' नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। अगस्त 1955 में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। इसके बाद 'कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित हो गई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। 'कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त 1926 से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।

पोद्दार जी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए देश भर के महात्माओं, लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रूप देने का कार्य भी पोद्दार जी ही देखते थे। वह प्रतिदिन अठारह घंटे कार्य करते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

गोरखपुर की बाढ़

1936 में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आ गई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज़ कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरू जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरू जी को दे दी।

राजस्थान का अकाल

1938 में जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा तो पोद्दार जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद - भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में पोद्दार जी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में पोद्दार जी ने 25 हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

उपाधि

अंग्रेज़ों के समय में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर पेडले ने उन्हें 'राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन पोद्दार जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर होबर्ट ने 'राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन पोद्दार जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ. संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने पोद्दार जी को 'भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्होंने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।

निधन

22 मार्च 1971 को पोद्दार जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो हमारी संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।


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