छप्पय: Difference between revisions
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Revision as of 14:00, 1 December 2011
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। 'प्राकृतपैंगलम्'[1] में इसका लक्षण और इसके भेद दिये गये हैं।
- मात्रायें
छप्पय भी संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पाद उल्लाला (15+13) के दो पाद के योग से बनता है। उल्लाला के दो भेदों के अनुसार छप्पय के पाँचवें और छठे पाद में 26 या 28 मात्राएँ हो सकती हैं।
- छप्पय के भेद
प्रधान रूप से 28 मात्राओं वाले भेद को कवियों ने अपनाया है। भानु ने इसके 71 भेदों का उल्लेख किया है।
हिंदी साहित्य में प्रयोग
छप्पय अपभ्रंश और हिन्दी में समान रूप से प्रिय रहा है। इसका प्रयोग हिन्दी के अनेक कवियों ने किया है। चन्द[2], तुलसी[3], केशव[4], नाभादास [5], भूषण [6], मतिराम [7], सूदन [8], पद्माकर [9] तथा जोधराज हम्मीर रासो ने इस छन्द का प्रयोग किया है। इस छन्द का प्रयोग वीर तथा समान रसों में चन्द से लेकर पद्माकर तक ने किया है। इस छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त रोला में गीता का चढ़ाव है और अन्त में उल्लाला में उतार है। इसी कारण युद्ध आदि के वर्णन में भावों के उतार-चढ़ाव का इसमें अच्छा वर्णन किया जाता है। पर नाभादास, तुलसीदास तथा हरिश्चन्द्र ने भक्ति-भावना के लिए इस छन्द का प्रयोग किया है। उदाहरण -
"डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
चौंकि बिरंचि शंकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ॥"[10]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 250।
बाहरी कड़ियाँ
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