उज्जयिनी: Difference between revisions

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प्राचीन उज्जयिनी

उज्जैन भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है। यह एक अत्यन्त प्राचीन शहर है। यह विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी। इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर 12 वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है । उज्जैन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर से 55 किमी पर है। उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयिनी, कनकश्रन्गा आदि है। उज्जैन मन्दिरों की नगरी है। यहाँ कई तीर्थ स्थल हैं। इसकी जनसंख्या लगभग 4 लाख है। यह सात मोक्षदायिनी नगरियों, सप्तपुरियों में आता है।

  • इसका प्राचीनतम नाम अवन्तिका, अवन्ति नामक राजा के नाम पर था। [1]
  • इस जगह को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है।
  • महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था।
  • उज्जयिनी महाराज विक्रमादित्य की राजधानी थी।
  • भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है।
  • यहाँ बारह वर्ष में एक बार कुम्भ मेला लगता है।
  • इसकी गणना सात पवित्र पुरियों में है।
  • अयोध्या मथुरा माया काशी कांशी अवन्तिका।

इतिहास

प्राचीन संस्कृत तथा पाली साहित्य में अवंती या उज्जयिनी का सैंकड़ों बार उल्लेख हुआ है। महाभारत सभा0 31,10 में सहदेव द्वारा अवंती को विजित करने का वर्णन है। बौद्धकाल में अवंती उत्तरभारत के षोडश महाजनपदों में से थी जिनकी सूची अंगुत्तरनिकाय में है। जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र में इसी जनपद को मालवा कहा गया है। इस जनपद में स्थूल रूप से वर्तमान मालवा, निमाड़, और मध्यप्रदेश का बीच का भाग सम्मिलित था। पुराणों के अनुसार अवंती की स्थापना यदुवंशी क्षत्रियों द्वारा की गई थी। बुद्ध के समय अवंती का राजा चंडप्रद्योत था। इसकी पुत्री वासवदत्ता से वत्सनरेश उदयन ने विवाह किया था जिसका उल्लेख भासरचित 'स्वप्नवासवदत्ता' नामक नाटक में है। वासवदत्ता को अवन्ती से संबंधित मानते हुए एक स्थान पर इस नाटक में कहा गया है-[2] चतुर्थ शती ई॰ पू॰ में अवन्ती का जनपद मौर्य-साम्राज्य में सम्मिलित था और उज्जयिनी मगध-साम्राज्य के पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। इससे पूर्व मगध और अवन्ती का संघर्ष पर्याप्त समय तक चलता रहा था जिसकी सूचना हमें परिशिष्टपर्वन्[3] से मिलती है। कथासरित्सागर[4] से यह भी ज्ञात होता है कि अवन्तीराज चंडप्रद्योत के पुत्र पालक ने कौशांबी को अपने राज्य में मिल लिया था।

विष्णुपुराण 4,24,68 से विदित होता है कि संभवत: गुप्तकाल से पूर्व अवन्ती पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था-[5] ऐतिहासिक परंपरा से हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई॰ पू॰ में (57 ई॰ पू॰ के लगभग) विक्रम संवत् के संस्थापक किसी अज्ञात राजा ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था। गुप्तकाल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका। कुछ विद्वानों के मत में 57 ई॰ पू॰ में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं था और चंद्रगुप्त द्वितीय ही ने अवंती-विजय के पश्चात मालव संवत् को जो 57 ई॰ पू॰ में प्रारम्भ हुआ था, विक्रम संवत् का नाम दे दिया।

चीनी यात्री युवानच्वांग के यात्रावृत्त से ज्ञात होता है कि अवन्ती या उज्जयिनी का राज्य उस समय (615-630 ई॰) मालवाराज्य से अलग था और वहाँ एक स्वतन्त्र राजा का शासन था। कहा जाता है शंकराचार्य के समकालीन अवन्तीनरेश सुधन्वा ने जैन धर्म का उत्कर्ष सूचित करने के लिए प्राचीन अवन्तिका का नाम उज्जयिनी (विजयकारिणी) कर दिया था किंतु यह केवल कपोलकल्पना मात्र है। क्योंकि गुप्तकालीन कालिदास को भी उज्जयिनी नाम ज्ञात था,[6] इसके साथ ही कवि ने अवन्ती का भी उल्लेख किया है- [7] इससे संभवत: यह जान पड़ता है कि कालिदास के समय में अवन्ती उस जनपद का नाम था जिसकी मुख्य नगरी उज्जयिनी थी।

9 वीं व 10वीं शतियों में उज्जयिनी में परमार राजाओं का शासन रहा। तत्पश्चात उन्होंने धारानगरी में अपनी राजधानी बनाई। मध्यकाल में इस नगरी को मुख्यत: उज्जैन ही कहा जाता था और इसका मालवा के सूबे के एक मुख्य स्थान के रूप में वर्णन मिलता है। दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश ने उज्जैन को बुरी तरह से लूटा और यहाँ के महाकाल के अतिप्राचीन मन्दिर को नष्ट कर दिया। (यह मंदिर संभवत: गुप्तकाल से भी पूर्व का था। मेघदूत, पूर्वमेघ 36 में इसका वर्णन है-[8] अगले प्राय: पाँच सौ वर्षों तक उज्जैन पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। 1750 ई॰ में सिंधियानरेशों का शासन यहाँ स्थापित हुआ और 1810 ई॰ तक उज्जैन में उनकी राजधानी रही। इस वर्ष सिंधिया ने उज्जैन से हटाकर राजधानी ग्वालियर में बनाई। मराठों के राज्यकाल में उज्जैन के कुछ प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया गया था। इनमें महाकाल का मंदिर भी है। यहीं से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी, अत: इसका नाम उज्जयिनी पड़ा।

जैन-ग्रंथ विविध तीर्थ कल्प में मालवा-प्रदेश का ही नाम अवंति या अवंती है। राजा शंबर के पुत्र अभिनंदनदेव का चैत्य अवन्ति के मेद नामक ग्राम में स्थित था। इस चैत्य को मुसलमान सेना ने नष्ट कर दिया था किंतु इस ग्रन्थ के अनुसार वैज नामक व्यापारी की तपस्या से खण्डित मूर्ति फिर से जुड़ गई थी।

मंदिर

महाकाल का मंदिर

भारत का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, जिसका सम्बन्ध ज्योतिर्लिंग महाकाल से है। उज्जयिनी के वर्तमान की तपस्या में मुख्य, महाकाल का मंदिर शिप्रा नदी के तट पर भूमि के नीचे बना हैं इसका निर्माण प्राचीन मंदिर के स्थान पर रणोजी सिंधिया के मन्त्री रामचन्द्र बाबा ने 19वीं शती के उत्तरार्ध में करवाया था। महाकाल की शिव के द्वादश ज्योतिलिंगों में गणना की जाती है। इसी कारण इस नगरी को शिवपुरी भी कहा गया है।

हरसिद्धि का मन्दिर

हरसिद्धि देवी का मन्दिर 51 शक्तिपीठों में ही एक सिद्ध पीठ है। कहा जाता है हरसिद्धि का मन्दिर, उसी प्राचीन मन्दिर का प्रतिरूप है। जहाँ विक्रमादित्य इस देवी की पूजा किया करते थे।

  • राजा भर्तृ हरि की गुफा संभवत: 11वीं शती का अवशेष है।
  • चौबीस खंभा दरवाजा शायद प्राचीन महाकाल मंदिर के प्रांगण का मुख्य द्वार था।
  • कालीदह-महल 1500 ई॰ में बना था। यहाँ की प्रसिद्ध वेधशाला जयपुरनरेश जयसिंह द्वितीय ने 1733 ई॰ में बनवाई थी। वेधशाला का जीर्णोद्वार 1925 ई॰ में किया गया था।

प्राचीन अवंती वर्तमान उज्जैन के स्थान पर ही बसी थी, यह तथ्य इस बात से सिद्ध होता है कि शिप्रा नदी जो आजकल भी उज्जैन के निकट बहती है, प्राचीन साहित्य में भी अवंती के निकट ही वर्णित है-[9] उज्जैन से एक मील उत्तर की ओर भैरोगढ़ में दूसरी-तीसरी शत्ती ई॰ पू॰ की उज्जयिनी के खंडहर पाए गए हैं। यहाँ वैश्या-टेकरी और कुम्हार-टेकरी नाम के टीले हैं जिनका सम्बन्ध प्राचीन किंवदंतियों से है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्कन्द पुराण
  2. 'हम्! अतिसदृशी खल्वियमार्याय अवंतिकाया:' अंक 6 ।
  3. परिशिष्टपर्वन् (पृ0 42)
  4. कथासरित्सागर (टाँनी का अनुवाद जिल्द 2, पृ0 484)
  5. 'सौराष्ट्रावन्ति.. विषयांश्च- आभीर शूद्राद्या भोक्ष्यन्ते'।
  6. 'वक्र: पंथा यदपि भवत: प्रस्थिस्योत्तराशां, सौधोत्संगप्रणय-विमुखोमास्म भूरूज्जयिन्या:' पूर्वमेघ0 29।
  7. 'प्राप्यावन्तीमुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान्' पूर्वमेघ 32।
  8. 'अप्यन्यस्मिन् जलधर महाकालमासाद्यकाले')
  9. 'यत्र स्त्रीणां हरत्ति सुरतग्लानिमंगानुकूल: शिप्रावात: प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकार:' पूर्वमेघ 33।

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