विनय मोहन शर्मा: Difference between revisions

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'''विनय मोहन शर्मा''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Vinay Mohan Sharma'', जन्म: [[16 अक्टूबर]], [[1905]]) का वास्तविक नाम 'शुकदेव प्रसाद तिवारी' है। यों 'वेरात्मा' उपनाम से उन्होंने कुछ कविताएँ इत्यादि भी लिखी हैं। इनका जन्म [[मध्य प्रदेश]] के करकबेल में हुआ।
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==प्रकाशित पुस्तकें==
==प्रकाशित पुस्तकें==साहित्यावलोकन, 'साहित्य कला'
विनय मोहन शर्मा की अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से मुख्य ये है-  
विनय मोहन शर्मा की अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से मुख्य ये है-  
* 'भूले गीत' (1944) (कविता संग्रह)
* 'भूले गीत' (1944) (कविता संग्रह)

Revision as of 14:19, 3 January 2015

विनय मोहन शर्मा
पूरा नाम विनय मोहन शर्मा
अन्य नाम मूल नाम- पं. शुकदेव प्रसाद तिवारी
जन्म 16 अक्टूबर, 1905
जन्म भूमि करकबेल, मध्य प्रदेश
कर्म-क्षेत्र निबंधकार एवं लेखक
मुख्य रचनाएँ 'हिन्दी को मराठी संतों की देन' (शोध-ग्रंथ), 'हिन्दी गीत गोविन्द' (अनुवाद), 'भूले गीत' (कविता संग्रह),
भाषा हिन्दी
विद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, नागपुर विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय
शिक्षा एम.ए., पी-एच.डी., एल.एल.बी.,
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी अपने शोध-ग्रंथ एवं कुछ निबन्धों में उन्होंने अंतरप्रांतीय साहित्यों (हिन्दी और मराठी) के तुलनात्मक अध्ययन को उपस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
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इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

विनय मोहन शर्मा (अंग्रेज़ी: Vinay Mohan Sharma, जन्म: 16 अक्टूबर, 1905) का वास्तविक नाम 'पं. शुकदेव प्रसाद तिवारी' है। यों 'वेरात्मा' उपनाम से उन्होंने कुछ कविताएँ इत्यादि भी लिखी हैं। इनका जन्म मध्य प्रदेश के करकबेल में हुआ।

शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए., एवं नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. तथा पी-एच.डी. तथा आगरा विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त हुई। नागपुर विश्वविद्यालय में वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे तथा रायगढ़ के गवर्नमेंट डिग्री कालेज के प्रिंसिपल के पद से उन्होंने 1960 ई. में अवकाश ग्रहण किया। आप कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। ==प्रकाशित पुस्तकें==साहित्यावलोकन, 'साहित्य कला' विनय मोहन शर्मा की अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से मुख्य ये है-

  • 'भूले गीत' (1944) (कविता संग्रह)
  • 'कवि प्रसाद': 'आँसू तथा अन्य कृतियाँ' (1945)
  • 'हिन्दी गीत गोविन्द' (1955 ई.) (अनुवाद)
  • 'दृष्टिकोण' (1950 ई.)
  • 'साहित्यावलोकन' (1952 ई.)
  • 'हिन्दी को मराठी संतों की देन' (1957 ई.)
  • 'साहित्य, शोध, समीक्षा' (1958 ई.)
  • 'साहित्य कला' (1980)
  • 'रेखा और रंग' (1955 ई.)
  • 'हिन्दी के व्यावहारिक रूप' (1968 ई.)
  • 'साहित्यांवेषण' (1969 ई.)
  • 'साहित्य-नया और पुराना' (1972 ई.)
  • 'भाषा, साहित्य, समीक्षा' (1972 ई.)।

'हिन्दी को मराठी-संतों का योगदान' उनका शोध-ग्रंथ तथा शेष पुस्तकें निबन्धों के संकलन हैं। इन निबन्धों में कतिपय अनुसन्धानपरक हैं एवं कुछ में स्वतंत्र समीक्षात्मक प्रयास हैं। कुछ निबन्ध या समीक्षाएँ या तो छात्रोपयोगी हैं या फिर परिचयात्मक टिप्पणियाँ मात्र। उनकी पुस्तकों में संस्मरण भी मिले जाते हैं तथा 'कवि प्रसाद: आँसू तथा अन्य कृतियाँ' में उन्होंने आँसू के कुछ दुरूह स्थलों की टीका भी की है। अपने शोध-ग्रंथ एवं कुछ निबन्धों में उन्होंने अंतरप्रांतीय साहित्यों (हिन्दी और मराठी) के तुलनात्मक अध्ययन को उपस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।

साहित्यिक विशेषताएँ

विनयमोहन शर्मा की आलोचनाओं का मूल स्वर वस्तुत: 'अकादमिक' है। वे मुख्यत: अध्यापक रहे हैं और अध्यापक का स्वर उनमें सर्वत्र प्रमुख है। भरसक उन्होंने चेष्टा की है कि किसी भी 'वादी' दृष्टि में न बँधकर तटस्थ एवं वैज्ञानिक समीक्षाएँ लिखी जाएँ। अपने दृष्टिकोण को 'साहित्यावलोकन' के 'दृष्टिक्षेप' में उपस्थित करते हुए उन्होंने लिखा है, "एक बात का यत्न मैंने अवश्य किया है कि साहित्य के अवलोकन में अपनी दृष्टि को वादग्रस्त होने से बचाया है। अनुभूति के सहज प्रकाश को साहित्य की कसौटी मान कर उसका रसास्वादन मेरा ध्येय रहा है।" पर इस रसवादी दृष्टिकोण में भी एक बात व्याख्या-सापेक्ष है और वह है 'अनुभूति का प्रकाश'। विनयमोहन ने इसके लिए बहुधा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा प्रवर्तित शास्त्रीय दृष्टिकोण को अपनाया है पर शुक्लजी के पूर्वाग्रहों से उन्होंने अपने को बचाकर 'संतसाहित्य' या 'छायावाद' को अपनी सहृदयता दी है। आधुनिक काल के दो प्रभावशाली मतवादों 'फ्रायडवाद' और 'मार्क्सवाद' को उन्होंने एकांगी माना है। फ्रायड का तो उन्होंने बहुत विरोध किया है और मनोविश्लेषण-शास्त्र के आधार पर रचित साहित्य को सामाजिक स्वास्थ्य के लिए वे अनुचित मानते हैं। प्रगतिवादी साहित्य के बारे में उनकी धारणा है कि उसमें "प्रेरणा नहीं प्रयास" होता है, इसी से उसके 'स्थायित्व में सन्देह है' उन्हें। उनकी समीक्षा-दृष्टि के मूल में "नैतिक आचार" और "समाज-स्वास्थ्य" की धारणा भी बराबर बनी रहती है। यह अवश्य है कि भौतिक प्रतिमानों को वे शाश्वत नहीं मानते पर उनकी परिवर्तमान सत्ता पर शर्माजी का विश्वास है। आदर्शवाद और यथार्थवाद के समांवय पर भी उन्होंने बल दिया है। शर्माजी की भाषा शैली में भी एक अध्यापक की सरलता एवं स्पष्टता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- हिन्दी साहित्य कोश-2 | लेखक- डॉ. धीरेंद्र वर्मा | पृष्ठ संख्या- 567

बाहरी कड़ियाँ

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