योग: Difference between revisions
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'''योग''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Yoga'') [[भारत]] की प्राचीन विरासत है। यह एक आध्यात्मिक प्रकिया है, जिसमें शरीर, मन और [[आत्मा]] को एक साथ लाने (योग) का कार्य होता है। [[हिन्दू धर्म]] का योग से बड़ा ही घनिष्ठ सम्बंध है। हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी आदि योग के माध्यम से ही हज़ारों वर्ष तक कठिन तपस्या में लीन रहते थे। 'योग' [[हिन्दू धर्म]], [[जैन धर्म]] तथा [[बौद्ध धर्म]] में [[ध्यान]] प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग के माध्यम से शरीर, मन और [[मस्तिष्क]] को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया जा सकता है। लम्बी आयु, सिद्धि और समाधि के लिए योग किया जाता रहा है। 'योग' शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ [[चीन]], [[जापान]], [[तिब्बत]], दक्षिण पूर्व एशिया और [[श्रीलंका]] में भी फैला। इस समय सारे सभ्य जगत में लोग योग से परिचित हैं। योग के महत्त्व को देखते हुए ही [[संयुक्त राष्ट्र]] ने प्रत्येक वर्ष '[[21 जून]]' को '[[अंतरराष्ट्रीय योग दिवस]]' मनाने का निर्णय लिया। | '''योग''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Yoga'') [[भारत]] की प्राचीन विरासत है। यह एक आध्यात्मिक प्रकिया है, जिसमें शरीर, मन और [[आत्मा]] को एक साथ लाने (योग) का कार्य होता है। [[हिन्दू धर्म]] का योग से बड़ा ही घनिष्ठ सम्बंध है। हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी आदि योग के माध्यम से ही हज़ारों वर्ष तक कठिन तपस्या में लीन रहते थे। 'योग' [[हिन्दू धर्म]], [[जैन धर्म]] तथा [[बौद्ध धर्म]] में [[ध्यान]] प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग के माध्यम से शरीर, मन और [[मस्तिष्क]] को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया जा सकता है। लम्बी आयु, सिद्धि और समाधि के लिए योग किया जाता रहा है। 'योग' शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ [[चीन]], [[जापान]], [[तिब्बत]], दक्षिण पूर्व एशिया और [[श्रीलंका]] में भी फैला। इस समय सारे सभ्य जगत में लोग योग से परिचित हैं। योग के महत्त्व को देखते हुए ही [[संयुक्त राष्ट्र]] ने प्रत्येक वर्ष '[[21 जून]]' को '[[अंतरराष्ट्रीय योग दिवस]]' मनाने का निर्णय लिया। | ||
== | ==उत्पत्ति== | ||
पुरातत्त्ववेत्ताओं ने जो साक्ष्य प्राप्त किये हैं, उनसे पता चलता है कि योग की उत्पत्ति 5000 ई. पू. में हुई होगी। गुरू शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। लगभग 200 ई. पू. में [[पतंजलि (योगसूत्रकार)|महर्षि पतंजलि]] ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योगसूत्र की रचना की। योगसूत्र की रचना के कारण '''पतंजलि को योग का पिता''' कहा जाता है।<ref>{{cite web |url= http://www.jobsandeducationnews.com/adetails.php?aid=764|title= अन्तरर्राष्ट्रीय योग दिवस-21 जून|accessmonthday= 30 जून|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language= हिन्दी}} | पुरातत्त्ववेत्ताओं ने जो साक्ष्य प्राप्त किये हैं, उनसे पता चलता है कि योग की उत्पत्ति 5000 ई. पू. में हुई होगी। गुरू शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। लगभग 200 ई. पू. में [[पतंजलि (योगसूत्रकार)|महर्षि पतंजलि]] ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योगसूत्र की रचना की। योगसूत्र की रचना के कारण '''पतंजलि को योग का पिता''' कहा जाता है।<ref>{{cite web |url= http://www.jobsandeducationnews.com/adetails.php?aid=764|title= अन्तरर्राष्ट्रीय योग दिवस-21 जून|accessmonthday= 30 जून|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language= हिन्दी}} | ||
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==अर्थ== | ==अर्थ== | ||
'योग' [[संस्कृत]] धातु 'युज' से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- "व्यक्तिगत चेतना" या "आत्मा की सार्वभौमिक चेतना" या "रूह से मिलन"। यह शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ का अर्थ हुआ- "समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।" वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है, किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।<ref>{{cite web |url=http://www.artofliving.org/in-hi/%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97 |title=क्या है योग|accessmonthday=30 जून|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= आर्ट ऑफ लिविंग|language= हिन्दी}}</ref> | 'योग' [[संस्कृत]] धातु 'युज' से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- "व्यक्तिगत चेतना" या "आत्मा की सार्वभौमिक चेतना" या "रूह से मिलन"। यह शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ का अर्थ हुआ- "समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।" वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है, किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।<ref>{{cite web |url=http://www.artofliving.org/in-hi/%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97 |title=क्या है योग|accessmonthday=30 जून|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= आर्ट ऑफ लिविंग|language= हिन्दी}}</ref> | ||
==इतिहास== | |||
[[संहिता|वैदिक संहिताओं]] के अंतर्गत तथा प्राचीन काल से [[वेद|वेदों]] में (900 से 500 ई. पू.) तपस्वियों का उल्लेख मिलता है, जबकि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती हैं, [[सिंधु घाटी सभ्यता]] के स्थान पर प्राप्त हुईं हैं। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार- "ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार के योग से सम्बन्ध का संकेत करती है।" यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है, फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। [[ध्यान]] में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने की रीतियों का विकास श्र्मानिक परम्पराओं द्वारा एवं [[उपनिषद]] की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। [[बुद्ध]] के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे मे कोई ठोस सबूत नहीं मिलता। बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वह यह तर्क करते हैं कि निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली, इसलिए उपनिषद की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है और नहीं भी। | |||
उपनिषदों में [[ब्रह्माण्ड]] संबंधी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहा गया है कि नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर [[ऋग्वेद]] से पूर्व भी इशारा करते हैं। यह बौद्ध ग्रंथ शायद सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं, जिनमें ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते हैं, जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते हैं, जो पहले [[बौद्ध धर्म]] के भीतर विकसित हुईं। हिन्दू वांग्मय में योग शब्द पहले [[कथा]] उपनिषद में प्रस्तुत हुआ, जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में यह प्रयुक्त हुआ है, जो उच्चतम स्तिथि प्रदान करने वाला माना गया है। योग का ठोस आधार [[पतंजलि]] के 'योगसूत्र' से देखने को मिलता है। 'योगसूत्र' [[योग दर्शन]] का मूल ग्रंथ है। यह [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के छः [[दर्शन|दर्शनों]] में से एक है और योगशास्त्र का एक ग्रंथ है। छ: दर्शनों में योगदर्शन का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिससे समय के साथ योग की कई शाखाएँ निकलीं, जिनका प्रभाव बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर पड़ा। | |||
====योग शब्द का प्रयोग==== | ====योग शब्द का प्रयोग==== | ||
अत्यंत प्रसिद्धि के बाद भी योग की परिभाषा सुनिश्चित नहीं है। '[[श्रीमद्भागवदगीता]]' प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'योग' शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- 'बुद्धियोग', 'संन्यासयोग', 'कर्मयोग' आदि। वेदोत्तर काल में 'भक्तियोग' और 'हठयोग' नाम भी प्रचलित हो गए हैं। [[महात्मा गाँधी]] ने 'अनासक्ति योग' का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में 'क्रियायोग' शब्द देखने में आता है। 'पाशुपत योग' और 'माहेश्वर योग' जैसे शब्दों की भी चर्चा मिलती है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं, वह एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि योग की परिभाषा करना कठिन है। | अत्यंत प्रसिद्धि के बाद भी योग की परिभाषा सुनिश्चित नहीं है। '[[श्रीमद्भागवदगीता]]' प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'योग' शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- 'बुद्धियोग', 'संन्यासयोग', 'कर्मयोग' आदि। वेदोत्तर काल में 'भक्तियोग' और 'हठयोग' नाम भी प्रचलित हो गए हैं। [[महात्मा गाँधी]] ने 'अनासक्ति योग' का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में 'क्रियायोग' शब्द देखने में आता है। 'पाशुपत योग' और 'माहेश्वर योग' जैसे शब्दों की भी चर्चा मिलती है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं, वह एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि योग की परिभाषा करना कठिन है। | ||
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#[[बौद्ध धर्म]] के अनुसार - 'कुशल चितैकग्गता योगः।' अर्थात् 'कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।' | #[[बौद्ध धर्म]] के अनुसार - 'कुशल चितैकग्गता योगः।' अर्थात् 'कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।' | ||
#[[श्रीमद्भगवद गीता|भगवद्गीता]] के अनुसार - 'तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।' अर्थात् 'कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।' | #[[श्रीमद्भगवद गीता|भगवद्गीता]] के अनुसार - 'तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।' अर्थात् 'कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।' | ||
==योग के प्रकार== | |||
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये, उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय-समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा। योग की प्रमाणिक पुस्तकों में 'शिवसंहिता' तथा 'गोरक्षशतक' में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है- | |||
<poem>'मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः। | |||
चतुर्थो राजयोगः'<ref>शिवसंहिता, 5/11</ref> | |||
'मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात् | |||
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥'<ref>गोरक्षशतकम्</ref></poem> | |||
उपर्युक्त दोनों [[श्लोक|श्लोकों]] के आधार पर योग के चार प्रकार हुए- 'मंत्रयोग', 'हठयोग', 'लययोग' व 'राजयोग'। | |||
====मंत्रयोग==== | |||
'मंत्र' का सामान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः'। मन को त्राय<ref>पार कराने वाला</ref> [[मंत्र]] ही है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- 'मनन इति मनः'। जो मनन, चिन्तन करता है, वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में 'योगतत्वोपनिषद' में वर्णन इस प्रकार है- | |||
'योग सेवन्ते साधकाधमाः।' (अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है, अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है, जो अल्पबुद्धि है।') | |||
मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं। मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है। मंत्र जप में तीन घटकों का काफ़ी महत्त्व है, वे घटक 'उच्चारण', 'लय' व 'ताल' हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है- 'वाचिक', 'मानसिक', 'उपांशु' तथा 'अणपा'। | |||
====हठयोग==== | |||
'हठ' का शाब्दिक अर्थ हटपूर्वक किसी कार्य के करने से लिया जाता है। 'हठ प्रदीपिका' पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया गया है- | |||
<poem>हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते। | |||
सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥</poem> | |||
'ह' का अर्थ [[सूर्य]] तथ 'ठ' का अर्थ [[चन्द्रमा|चन्द्र]] बताया गया है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हज़ार नाड़ियाँ हैं। उनमें जिन तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं- 'सूर्यनाड़ी' अर्थात 'पिंगला' जो दाहिने स्वर का प्रतीक है। 'चन्द्रनाड़ी' अर्थात 'इड़ा' जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी 'सुषुम्ना' है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है, जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रह्मरंध्र में समाधिस्थ किया जाता है। 'हठ प्रदीपिका' में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- 'आसन', 'प्राणायाम', 'मुद्रा' और 'बन्ध'। 'घेरण्डसंहिता' में सात अंग- 'षटकर्म', 'आसन', 'मुद्राबन्ध', 'प्राणायाम', 'ध्यान', 'समाधि', जबकि 'योगतत्वोपनिषद' में आठ अंगों का वर्णन है- 'नियम', 'आसन', 'प्राणायाम', 'प्रत्याहार', 'धारणा', 'ध्यान', 'भ्रमध्येहरिम्' और 'समाधि'। | |||
====लययोग==== | |||
चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आती है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे, इसी को लययोग कहते हैं। 'योगत्वोपनिषद' में इस प्रकार वर्णन है- | |||
'गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात।'<ref>22-23</ref> | |||
====राजयोग==== | |||
राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता है, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग में [[पतंजलि (योगसूत्रकार)|महर्षि पतंजलि]] द्वारा रचित 'अष्टांगयोग' का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। | |||
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Revision as of 11:01, 30 June 2015
योग (अंग्रेज़ी: Yoga) भारत की प्राचीन विरासत है। यह एक आध्यात्मिक प्रकिया है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का कार्य होता है। हिन्दू धर्म का योग से बड़ा ही घनिष्ठ सम्बंध है। हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी आदि योग के माध्यम से ही हज़ारों वर्ष तक कठिन तपस्या में लीन रहते थे। 'योग' हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग के माध्यम से शरीर, मन और मस्तिष्क को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया जा सकता है। लम्बी आयु, सिद्धि और समाधि के लिए योग किया जाता रहा है। 'योग' शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में भी फैला। इस समय सारे सभ्य जगत में लोग योग से परिचित हैं। योग के महत्त्व को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष '21 जून' को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का निर्णय लिया।
उत्पत्ति
पुरातत्त्ववेत्ताओं ने जो साक्ष्य प्राप्त किये हैं, उनसे पता चलता है कि योग की उत्पत्ति 5000 ई. पू. में हुई होगी। गुरू शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा। लगभग 200 ई. पू. में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योगसूत्र की रचना की। योगसूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।[1]
अर्थ
'योग' संस्कृत धातु 'युज' से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- "व्यक्तिगत चेतना" या "आत्मा की सार्वभौमिक चेतना" या "रूह से मिलन"। यह शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ का अर्थ हुआ- "समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।" वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है, किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।[2]
इतिहास
वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तथा प्राचीन काल से वेदों में (900 से 500 ई. पू.) तपस्वियों का उल्लेख मिलता है, जबकि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती हैं, सिंधु घाटी सभ्यता के स्थान पर प्राप्त हुईं हैं। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार- "ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार के योग से सम्बन्ध का संकेत करती है।" यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है, फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है। ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने की रीतियों का विकास श्र्मानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था। बुद्ध के पूर्व एवं प्राचीन ब्रह्मिनिक ग्रंथों मे ध्यान के बारे मे कोई ठोस सबूत नहीं मिलता। बुद्ध के दो शिक्षकों के ध्यान के लक्ष्यों के प्रति कहे वाक्यों के आधार पर वह यह तर्क करते हैं कि निर्गुण ध्यान की पद्धति ब्रह्मिन परंपरा से निकली, इसलिए उपनिषद की सृष्टि के प्रति कहे कथनों में एवं ध्यान के लक्ष्यों के लिए कहे कथनों में समानता है। यह संभावित हो भी सकता है और नहीं भी।
उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी बयानों के वैश्विक कथनों में किसी ध्यान की रीति की सम्भावना के प्रति तर्क देते हुए कहा गया है कि नासदीय सूक्त किसी ध्यान की पद्धति की ओर ऋग्वेद से पूर्व भी इशारा करते हैं। यह बौद्ध ग्रंथ शायद सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं, जिनमें ध्यान तकनीकों का वर्णन प्राप्त होता है। वे ध्यान की प्रथाओं और अवस्थाओं का वर्णन करते हैं, जो बुद्ध से पहले अस्तित्व में थीं और साथ ही उन प्रथाओं का वर्णन करते हैं, जो पहले बौद्ध धर्म के भीतर विकसित हुईं। हिन्दू वांग्मय में योग शब्द पहले कथा उपनिषद में प्रस्तुत हुआ, जहाँ ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में यह प्रयुक्त हुआ है, जो उच्चतम स्तिथि प्रदान करने वाला माना गया है। योग का ठोस आधार पतंजलि के 'योगसूत्र' से देखने को मिलता है। 'योगसूत्र' योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। यह हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है और योगशास्त्र का एक ग्रंथ है। छ: दर्शनों में योगदर्शन का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिससे समय के साथ योग की कई शाखाएँ निकलीं, जिनका प्रभाव बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर पड़ा।
योग शब्द का प्रयोग
अत्यंत प्रसिद्धि के बाद भी योग की परिभाषा सुनिश्चित नहीं है। 'श्रीमद्भागवदगीता' प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'योग' शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे- 'बुद्धियोग', 'संन्यासयोग', 'कर्मयोग' आदि। वेदोत्तर काल में 'भक्तियोग' और 'हठयोग' नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गाँधी ने 'अनासक्ति योग' का व्यवहार किया है। पातंजल योगदर्शन में 'क्रियायोग' शब्द देखने में आता है। 'पाशुपत योग' और 'माहेश्वर योग' जैसे शब्दों की भी चर्चा मिलती है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं, वह एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु इतने विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि योग की परिभाषा करना कठिन है।
परिभाषा
परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। 'गीता' में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है- "योग: कर्मसु कौशलम्" अर्थात "कर्मो में कुशलता को 'योग' कहते हैं।" स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को 'योग' कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्ध मतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है, जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने 'योगदर्शन' में परिभाषा दी है- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात "चित्त की वृत्तियों के निरोध" पूर्णत: रुक जाने का नाम ही 'योग' है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं- 'चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है' या 'इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।'
विद्वान मतभेद
उपरोक्त परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? 'योगस्थ: कुरु कर्माणि', 'योग में स्थित होकर कर्म करो।' विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार को सम्यक रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या मानने वाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है।
विभिन्न परिभाषाएँ
- पातंजल योगदर्शन के अनुसार - 'योगश्चित्तवृत्त निरोधः'[3] अर्थात् 'चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।'
- सांख्य दर्शन के अनुसार - 'पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते।' अर्थात् 'पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।'
- 'विष्णुपुराण के अनुसार - 'योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने।' अर्थात् 'जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णत: मिलन ही योग है।'
- भगवद्गीता के अनुसार - 'सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते।'[4] अर्थात् 'दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।'
- आचार्य हरिभद्र के अनुसार - 'मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो।' अर्थात 'मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।'
- बौद्ध धर्म के अनुसार - 'कुशल चितैकग्गता योगः।' अर्थात् 'कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।'
- भगवद्गीता के अनुसार - 'तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।' अर्थात् 'कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।'
योग के प्रकार
योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये, उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय-समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा। योग की प्रमाणिक पुस्तकों में 'शिवसंहिता' तथा 'गोरक्षशतक' में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है-
'मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो राजयोगः'[5]
'मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥'[6]
उपर्युक्त दोनों श्लोकों के आधार पर योग के चार प्रकार हुए- 'मंत्रयोग', 'हठयोग', 'लययोग' व 'राजयोग'।
मंत्रयोग
'मंत्र' का सामान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः'। मन को त्राय[7] मंत्र ही है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- 'मनन इति मनः'। जो मनन, चिन्तन करता है, वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में 'योगतत्वोपनिषद' में वर्णन इस प्रकार है-
'योग सेवन्ते साधकाधमाः।' (अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है, अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है, जो अल्पबुद्धि है।')
मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं। मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है। मंत्र जप में तीन घटकों का काफ़ी महत्त्व है, वे घटक 'उच्चारण', 'लय' व 'ताल' हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है- 'वाचिक', 'मानसिक', 'उपांशु' तथा 'अणपा'।
हठयोग
'हठ' का शाब्दिक अर्थ हटपूर्वक किसी कार्य के करने से लिया जाता है। 'हठ प्रदीपिका' पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया गया है-
हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।
सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
'ह' का अर्थ सूर्य तथ 'ठ' का अर्थ चन्द्र बताया गया है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हज़ार नाड़ियाँ हैं। उनमें जिन तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं- 'सूर्यनाड़ी' अर्थात 'पिंगला' जो दाहिने स्वर का प्रतीक है। 'चन्द्रनाड़ी' अर्थात 'इड़ा' जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी 'सुषुम्ना' है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है, जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रह्मरंध्र में समाधिस्थ किया जाता है। 'हठ प्रदीपिका' में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- 'आसन', 'प्राणायाम', 'मुद्रा' और 'बन्ध'। 'घेरण्डसंहिता' में सात अंग- 'षटकर्म', 'आसन', 'मुद्राबन्ध', 'प्राणायाम', 'ध्यान', 'समाधि', जबकि 'योगतत्वोपनिषद' में आठ अंगों का वर्णन है- 'नियम', 'आसन', 'प्राणायाम', 'प्रत्याहार', 'धारणा', 'ध्यान', 'भ्रमध्येहरिम्' और 'समाधि'।
लययोग
चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आती है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे, इसी को लययोग कहते हैं। 'योगत्वोपनिषद' में इस प्रकार वर्णन है-
'गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात।'[8]
राजयोग
राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता है, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग में महर्षि पतंजलि द्वारा रचित 'अष्टांगयोग' का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्तरर्राष्ट्रीय योग दिवस-21 जून (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
- ↑ क्या है योग (हिन्दी) आर्ट ऑफ लिविंग। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2015।
- ↑ (1/2)
- ↑ (2/48)
- ↑ शिवसंहिता, 5/11
- ↑ गोरक्षशतकम्
- ↑ पार कराने वाला
- ↑ 22-23