कचनार: Difference between revisions
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thumb|250px|कचनार कचनार छोटे अथवा मध्यम ऊँचाई के वृक्ष, जो भारत में सर्वत्र होते हैं। चिकित्सकीय दृष्टि से यह काफ़ी लाभदायक है। कचनार के पुष्प तथा इसकी छाल का प्रयोग चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत किया जाता है। इसके पुष्प मधुर, ग्राही और रक्त पित्त, रक्त विकार, प्रदर, क्षय एवं खाँसी का नाश करते हैं।
वर्गीकरण
लेग्यूमिनोसी[1] कुल और सीज़लपिनिआयडी[2] उपकुल के अंतर्गत बॉहिनिया प्रजाति की समान, परंतु किंचित् भिन्न, दो वृक्ष जातियों को कचनार नाम दिया जाता है, जिन्हें 'बॉहिनिया वैरीगेटा'[3] और 'बॉहिनिया परप्यूरिया'[4] कहते हैं। बॉहिनिया प्रजाति की वनस्पतियों में पत्र का अग्रभाग मध्य में इस तरह कटा या दबा हुआ होता है, जैसे मानों दो पत्र जुड़े हुए हों। इसीलिए कचनार को 'युग्मपत्र' भी कहा जाता है।[5]
भेद
बॉहिनिया वैरीगेटा में पत्र के दोनों खंड गोल अग्र भाग वाले और तिहाई या चौथाई दूरी तक पृथक, पत्र शिराएँ 13 से 15 तक, पुष्प कलिका का घेरा सपाट और पुष्प बड़े, मंद सौरभ वाले, श्वेत, गुलाबी अथवा नीलारुण वर्ण के होते हैं। एक पुष्पदल चित्रित मिश्रवर्ण का होता है। अत: पुष्पवर्ण के अनुसार इसके श्वेत और लाल दो भेद माने जा सकते हैं। बॉहिनिया परप्यूरिया में पत्रखंड अधिक दूर तक पृथक पत्र शिराएँ 9 से 11 तक, पुष्प कलिकाओं का घेरा उभरी हुई संधियों के कारण कोण युक्त और पुष्प नीलारुण होते हैं।
नाम
संस्कृत साहित्य में दोनों जातियों के लिए 'कांचनार' और 'कोविदार' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। किंतु कुछ परवर्ती निघुटुकारों के मतानुसार ये दोनों नाम भिन्न-भिन्न जातियों के हैं। अत: बॉहिनिया वैरीगेटा को 'कांचनार' और बॉहिनिया परप्यूरिया को 'कोविदार' मानना चाहिए। इस दूसरी जाति के लिए आदिवासी बोलचाल में, 'कोइलार' अथवा 'कोइनार' नाम प्रचलित हैं, जो निस्संदेह 'कोविदार' के ही अपभ्रंश प्रतीत होते हैं। कुछ लोगों के मत से कांचनार को ही 'कर्णिकार' भी मानना चाहिए। परंतु संभवत: यह मत ठीक नहीं है।
औषधीय गुण
आयुर्वेदीय वाङ्मय में भी कोविदार और कांचनार का पार्थक्य स्पष्ट नहीं है। इसका कारण दोनों के गुण सादृश्य एवं रूप सादृश्य हो सकते हैं। चिकित्सा में इनके पुष्प तथा छाल का उपयोग होता है। कचनार कषाय, शीतवीर्य और कफ, पित्त, कृमि, कुष्ठ, गुदभ्रंश, गंडमाला एवं घ्राण का नाश करने वाला है। इसके पुष्प मधुर, ग्राही और रक्त पित्त, रक्त विकार, प्रदर, क्षय एवं खाँसी का नाश करते हैं। इसका प्रधान योग 'कांचनारगुग्गुल' है, जो गंडमाला में उपयोगी होता है। कोविदार की अविकसित पुष्प कलिकाओं का शाक भी बनाया जाता है, जिसमें हरे चने[6] का योग बड़ा स्वादिष्ट होता है।
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