महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा: Difference between revisions
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Revision as of 13:21, 25 December 2016
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप को अपने सरदारों की ओर से अभूतपूर्व समर्थन मिला। यद्यपि धन और उज्ज्वल भविष्य ने उनके सरदारों को काफ़ी प्रलोभन दिया, परन्तु किसी ने भी उनका साथ नहीं छोड़ा। जयमल के पुत्रों ने भी उनके कार्य के लिये अपना रक्त बहाया। पत्ता के वंशधरों ने भी ऐसा ही किया और सलूम्बर के कुल वालों ने भी चूण्डा की स्वामिभक्ति को जीवित रखा। इनकी वीरता और स्वार्थ-त्याग का वृत्तान्त मेवाड़ के इतिहास में अत्यन्त गौरवमय समझा जाता है।
प्रतिज्ञा
महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि- "वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे।" इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र अमर का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था। इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था।
तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, महाराणा प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। "चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।" महाराणा की यह प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही।
प्रताप के सरदारों का वचन
राणा प्रताप के समस्त सरदारों ने उनसे अंत समय में कहा था कि- "महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ की भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह उद्धार हो नहीं जायेगा, तब तक हम लोग कुटियों में निवास करेंगे।" जब महाराणा प्रताप (विक्रम संवत 1653 माघ शुक्ल 11) तारीख़ 29 जनवरी, सन 1597 ई. में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा।
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप॥
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