सरस्वती देवी का फ़िल्मी कॅरियर: Difference between revisions
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[[1920]] के दशक में जब [[मुम्बई]] में रेडियो स्टेशन खुला, तो वहां खुर्शीद अपनी बहन मानेक के साथ मिलकर होमजी सिस्टर्स के नाम से नियमित रूप से संगीत के कार्यक्रम पेश किया करती थीं। उनका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसी कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए हिमांशु राय ने जब बॉम्बे टॉकीज शुरू किया, तो उन्होंने खुर्शीद को अपने स्टूडियो के संगीत कक्ष में बुलाया और उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। यह एक चुनौती भरा काम था और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। वहीं 'सरस्वती देवी' के रूप में उनका नया नामकरण भी हुआ। उनकी पहली फ़िल्म का नाम था ‘जवानी की हवा’ इसमें उनकी बहन मानेक ने भी चंद्रप्रभा के नाम से एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। पहली फ़िल्म 'जवानी की हवा' के लिए संगीत तैयार करते हुए सरस्वती देवी को पता चल गया था कि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि फ़िल्म के नायक नजमुल हुसैन और नायिका देविका रानी को गाने का कोई अभ्यास नहीं था। आसान धुनों को भी उनसे गवाने में खासी मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फ़िल्म का सिर्फ़ एक ही गाना ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर उपलब्ध है। गाने के बोल है- ‘सखी री मोहे प्रेम का सार बता दे’। संगीत वाद्यों के रूप में [[तबला]], [[सारंगी]], [[सितार]] और जलतरंग का इस्तेमाल किया गया था। इस गाने में नजमुल हुसैन और देविका रानी के अलावा चंद्रप्रभा की आवाजें भी हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.udayindia.in/hindi/?p=7532|title=पहली महिला संगीतकार, सरस्वती देवी |accessmonthday=15 जून |accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=www.udayindia.in |language=हिंदी }}</ref> | [[1920]] के दशक में जब [[मुम्बई]] में रेडियो स्टेशन खुला, तो वहां खुर्शीद अपनी बहन मानेक के साथ मिलकर होमजी सिस्टर्स के नाम से नियमित रूप से संगीत के कार्यक्रम पेश किया करती थीं। उनका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसी कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए हिमांशु राय ने जब बॉम्बे टॉकीज शुरू किया, तो उन्होंने खुर्शीद को अपने स्टूडियो के संगीत कक्ष में बुलाया और उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। यह एक चुनौती भरा काम था और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। वहीं 'सरस्वती देवी' के रूप में उनका नया नामकरण भी हुआ। उनकी पहली फ़िल्म का नाम था ‘जवानी की हवा’ इसमें उनकी बहन मानेक ने भी चंद्रप्रभा के नाम से एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। पहली फ़िल्म 'जवानी की हवा' के लिए संगीत तैयार करते हुए सरस्वती देवी को पता चल गया था कि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि फ़िल्म के नायक नजमुल हुसैन और नायिका देविका रानी को गाने का कोई अभ्यास नहीं था। आसान धुनों को भी उनसे गवाने में खासी मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फ़िल्म का सिर्फ़ एक ही गाना ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर उपलब्ध है। गाने के बोल है- ‘सखी री मोहे प्रेम का सार बता दे’। संगीत वाद्यों के रूप में [[तबला]], [[सारंगी]], [[सितार]] और जलतरंग का इस्तेमाल किया गया था। इस गाने में नजमुल हुसैन और देविका रानी के अलावा चंद्रप्रभा की आवाजें भी हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.udayindia.in/hindi/?p=7532|title=पहली महिला संगीतकार, सरस्वती देवी |accessmonthday=15 जून |accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=www.udayindia.in |language=हिंदी }}</ref> | ||
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लेकिन जिस फ़िल्म ने सरस्वती देवी को संगीतकार के रूप में अमर कर दिया, वह थी [[1936]] में बनी उनकी फ़िल्म 'अछूत कन्या'। इस फ़िल्म में नौ गाने थे। फ़िल्म के सभी गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। फ़िल्म का एक गाना ‘कित गए हो खेवनहार’ सरस्वती देवी ने खुद गाया था। दरअसल यह गाना उनकी बहन चंद्रप्रभा को गाना था, लेकिन ऐन वक्त पर उसका गला खराब हो गया। तब हिमांशु राय ने ही उन्हें सलाह दी कि वह खुद इस गाने को गाएं और परदे पर चंद्रप्रभा सिर्फ होंठ हिलाए। इसे एक तरह से ‘प्लेबैक सिंगिंग’ की शुरुआत माना जा सकता है। हालांकि इस समय तक [[कोलकाता]] के न्यू थिएटर्स में राय चंद्र बोराल भी अपनी फ़िल्म ‘धूप-छांव’ के लिए कुछ इसी तरह एक गाना गवा चुके थे। लेकिन फ़िल्म का सबसे लोकप्रिय गाना तो रहा, अशोक कुमार और देविका रानी का गाया ‘मैं बन की चिडिय़ा बनके बन बन बोलूं रे’। | लेकिन जिस फ़िल्म ने सरस्वती देवी को संगीतकार के रूप में अमर कर दिया, वह थी [[1936]] में बनी उनकी फ़िल्म 'अछूत कन्या'। इस फ़िल्म में नौ गाने थे। फ़िल्म के सभी गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। फ़िल्म का एक गाना ‘कित गए हो खेवनहार’ सरस्वती देवी ने खुद गाया था। दरअसल यह गाना उनकी बहन चंद्रप्रभा को गाना था, लेकिन ऐन वक्त पर उसका गला खराब हो गया। तब हिमांशु राय ने ही उन्हें सलाह दी कि वह खुद इस गाने को गाएं और परदे पर चंद्रप्रभा सिर्फ होंठ हिलाए। इसे एक तरह से ‘प्लेबैक सिंगिंग’ की शुरुआत माना जा सकता है। हालांकि इस समय तक [[कोलकाता]] के न्यू थिएटर्स में राय चंद्र बोराल भी अपनी फ़िल्म ‘धूप-छांव’ के लिए कुछ इसी तरह एक गाना गवा चुके थे। लेकिन फ़िल्म का सबसे लोकप्रिय गाना तो रहा, अशोक कुमार और देविका रानी का गाया ‘मैं बन की चिडिय़ा बनके बन बन बोलूं रे’। | ||
Revision as of 13:05, 15 June 2017
सरस्वती देवी का फ़िल्मी कॅरियर
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पूरा नाम | खुर्शीद मिनोखर होमजी |
प्रसिद्ध नाम | सरस्वती देवी |
जन्म | 1912 |
जन्म भूमि | मुम्बई |
मृत्यु | 10 अगस्त |
मृत्यु स्थान | 1980 |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | संगीतकार (हिंदी सिनेमा) |
मुख्य फ़िल्में | 'जीवन नैया', 'अछूत कन्या', 'बंधन', 'नया संसार', 'प्रार्थना', 'भक्त रैदास', 'पृथ्वी वल्लभ', 'खानदानी', 'नकली हीरा', 'उषा हरण' |
शिक्षा | संगीत |
विद्यालय | मॉरिस कॉलेज, लखनऊ |
प्रसिद्धि | भारत की पहली महिला संगीतकार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | सरस्वती देवी की 1961 में आखिरी फ़िल्म थी, राजस्थानी की ‘बसरा री लाडी’। इसके बाद उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया और संगीत सिखाने का काम हाथ में ले लिया। |
सरस्वती देवी ने करीब 20 फ़िल्मों में संगीत दिया था। उन्होंने 1936 में पहली बार फ़िल्म 'जीवन नैया' संगीत दिया था। इसके अलावा 'अछूत कन्या', 'बंधन', 'नया संसार', 'प्रार्थना', 'भक्त रैदास', 'पृथ्वी वल्लभ', 'खानदानी', 'नकली हीरा', 'उषा हरण' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिए। उन्होंने कुल तीस फ़िल्मों में काम किया और करीब डेढ़ सौ गीतों को अपने संगीत से संवारा। [1]
फ़िल्मी कॅरियर की शुरुआत
1920 के दशक में जब मुम्बई में रेडियो स्टेशन खुला, तो वहां खुर्शीद अपनी बहन मानेक के साथ मिलकर होमजी सिस्टर्स के नाम से नियमित रूप से संगीत के कार्यक्रम पेश किया करती थीं। उनका कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हो गया था। इसी कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए हिमांशु राय ने जब बॉम्बे टॉकीज शुरू किया, तो उन्होंने खुर्शीद को अपने स्टूडियो के संगीत कक्ष में बुलाया और उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। यह एक चुनौती भरा काम था और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। वहीं 'सरस्वती देवी' के रूप में उनका नया नामकरण भी हुआ। उनकी पहली फ़िल्म का नाम था ‘जवानी की हवा’ इसमें उनकी बहन मानेक ने भी चंद्रप्रभा के नाम से एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। पहली फ़िल्म 'जवानी की हवा' के लिए संगीत तैयार करते हुए सरस्वती देवी को पता चल गया था कि यह आसान काम नहीं है, क्योंकि फ़िल्म के नायक नजमुल हुसैन और नायिका देविका रानी को गाने का कोई अभ्यास नहीं था। आसान धुनों को भी उनसे गवाने में खासी मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फ़िल्म का सिर्फ़ एक ही गाना ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर उपलब्ध है। गाने के बोल है- ‘सखी री मोहे प्रेम का सार बता दे’। संगीत वाद्यों के रूप में तबला, सारंगी, सितार और जलतरंग का इस्तेमाल किया गया था। इस गाने में नजमुल हुसैन और देविका रानी के अलावा चंद्रप्रभा की आवाजें भी हैं।[2]
- प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत
लेकिन जिस फ़िल्म ने सरस्वती देवी को संगीतकार के रूप में अमर कर दिया, वह थी 1936 में बनी उनकी फ़िल्म 'अछूत कन्या'। इस फ़िल्म में नौ गाने थे। फ़िल्म के सभी गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित थे। फ़िल्म का एक गाना ‘कित गए हो खेवनहार’ सरस्वती देवी ने खुद गाया था। दरअसल यह गाना उनकी बहन चंद्रप्रभा को गाना था, लेकिन ऐन वक्त पर उसका गला खराब हो गया। तब हिमांशु राय ने ही उन्हें सलाह दी कि वह खुद इस गाने को गाएं और परदे पर चंद्रप्रभा सिर्फ होंठ हिलाए। इसे एक तरह से ‘प्लेबैक सिंगिंग’ की शुरुआत माना जा सकता है। हालांकि इस समय तक कोलकाता के न्यू थिएटर्स में राय चंद्र बोराल भी अपनी फ़िल्म ‘धूप-छांव’ के लिए कुछ इसी तरह एक गाना गवा चुके थे। लेकिन फ़िल्म का सबसे लोकप्रिय गाना तो रहा, अशोक कुमार और देविका रानी का गाया ‘मैं बन की चिडिय़ा बनके बन बन बोलूं रे’।
सरस्वती देवी ने अपने सहायकों को भी स्वतंत्र रूप से संगीत रचना के लिए प्रोत्साहित किया। फ़िल्म 'कंगन' के लिए उनके सहायक रह चुके रामचंद्र पाल ने संगीत तैयार किया। इस फ़िल्म के लिए गीत कवि प्रदीप ने लिखे। यह फ़िल्मों की दुनिया में उनकी शुरुआत थी। फ़िल्म के गीत संगीत खासे लोकप्रिय हुए। बाद की फ़िल्मों में सरस्वती देवी ने दूसरे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत देना शुरू कर दिया। दरअसल संगीत अब नए रंग में ढल रहा था और सरस्वती देवी उसके साथ चलने की भरसक कोशिश करते हुए भी पीछे छूट रही थी। बॉम्बे टॉकीज के लिए सरस्वती देवी ने करीब बीस फ़िल्में की थीं। उनके लिए सरस्वती देवी की अंतिम फ़िल्म 1941 की 'नया संसार' थी। अब तक की फ़िल्मों में एस.एन. त्रिपाठी उनके आर्केस्ट्रा का संचालन करते थे और बहुत अच्छी वॉयलिन बजाते थे। सरस्वती देवी के साथ ही उन्होंने भी बॉम्बे टॉकीज छोड़ दिया था और स्वतंत्र रूप से संगीतकार के रूप में काम करने लगे थे।
बॉम्बे टॉकीज छोडऩे के बाद सरस्वती देवी ने किसी अन्य स्टूडियो में नौकरी तो नहीं की लेकिन उनके लिए फ़िल्में जरूर कीं। मिनर्वा मूवीटोन के लिए उन्होंने छह फ़िल्में की थीं। कुछ फ़िल्मों में उन्होने अकेले ही संगीत दिया और कुछ में उनके साथ अन्य संगीतकार भी थे। 1943 में उन्होंने फ़िल्म ‘प्रार्थना’ में जानी मानी गायिका जहांआरा कज्जन के लिए संगीत तैयार किया, तो उसी साल मिनर्वा मूवीटोन की फ़िल्म ‘पृथ्वी वल्लभ’ में रफीक गजनवी के लिए गाने की धुन तैयार की। 1945 में उन्होंने फ़िल्म 'आम्रपाली' के लिए अकेले संगीत तैयार किया। इसमें अमीर बाई कर्नाटकी ने कुछ अच्छे गाने गाए। लेकिन अब साफ लगने लगा था कि वह समय से कहीं पिछड़ रही हैं। उनकी अंतिम लोकप्रिय फ़िल्म 'ऊषा हरण' (1949) थी, जिसमें 12 गाने थे। इसमें दो गाने लता मंगेशकर ने भी गाए थे। इसे दो पीढिय़ों के दो महानों का संगम भी मान सकते हैं। इसके बाद 1950 में उनकी फ़िल्म ‘बैचलर हस्बैंड’ आई थी। फिर पांच साल के बाद 1955 में फ़िल्म 'इनाम' के लिए उन्होंने एक गाने की धुन तैयार की थी। 1961 में उनकी आखिरी फ़िल्म थी, राजस्थानी की ‘बसरा री लाडी’। इसके बाद उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कहकर संगीत सिखाने का काम हाथ में ले लिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिनेमा के सौ साल, भुला दी गईं पहली महिला संगीतकार (हिंदी) hindi.news18.com। अभिगमन तिथि: 15 जून, 2017।
- ↑ पहली महिला संगीतकार, सरस्वती देवी (हिंदी) www.udayindia.in। अभिगमन तिथि: 15 जून, 2017।
बाहरी कड़ियाँ
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