अस्थिसंध्यार्ति

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अस्थिसंध्यार्ति (ऑस्टियो-आ्थ्राार्इटिस) नामक रोग में दो प्रकार के परिवर्तन होते हैं: (1) अस्थियों के कुछ भाग गल जाते हैं और (2) बहिस्थ भाग में नई अस्थि बन जाती है। प्राय: मध्यस्थ भाग गलता है। जानुसंधि में अर्धचंद्र उपास्थि के टूटे हुए भाग के रह जाने से ऐसा होता है। किंतु जहाँ किसी व्यक्ति में अनेक वर्षो में भी इस प्रकार के परिवर्तन नहीं होते, वहाँ दूसरे व्यक्ति में थोड़े ही समय में ऐसे परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं। अस्वाभाविक प्रकार से बहुत समय तक संधि के अवयवों पर भार पड़ता ता कुछ रोगविषों की क्रिया या संधि अथवा उसके समीप के अस्थिभाग का कुसंयोजित होना, पास की अस्थियों के रोग, स्नायुओं का ढीला पड़ जाना संधि का अतिचलायमान हो जाना तथा इसी प्रकार के अन्य कारण जिनसे चलने में संधि के अंतर्गत अस्थिभाग पर अनुचित दिशा में भार पड़ता है, उपर्युक्त परिवर्तनों के कारण होते हैं। किंतु परिवर्तनों की ठीक ठीक उत्पतिविधि का अभी तक ज्ञान नहीं हो सका है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 312 |

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