उन्माद

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उन्माद एक प्रकार का मानसिक रोग है जिसको मनस्ताप के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाता है। यह रोग ऐसे व्यक्तियों को होता है जिनमें मानसिक दुर्बलता होती है और जिसके कारण वे बाह्य तथा संवेगात्मक परिस्थितियों से सहज ही उद्वेलित हो जाते हैं। वर्तमान अनुसंधानों द्वारा प्रमाणित हो गया है कि यह मानसिक रोग स्त्री और पुरुष दोनों में होता है। प्राचीन तथा मध्यकालीन युग में इस रोग का कारण भूत प्रेत माना जाता था। इसके उपचार के लिए झाड़ फूँक, गंडे ताबीज आदि का उपयोग होता था। आधुनिक काल में शारकों, जैने, मॉटर्न प्रिंस और फ्रॉयड इत्यादि मनोवैज्ञानिकों ने इसका कारण मानसिक बतलाया है। उन्माद में प्राय: मानसिक विकार का परिवर्तन शारीरिक विकार में हो जाता है। रिबट का कथन है कि उन्माद में मानसिक क्षोभ की अवस्था शारीरिक क्रियाओं में प्रकट होती है। फेरेंक्ज़ी का कथन है कि परिवर्तित शारीरिक क्रियाएँ मानसिक विकार की प्रतीक होती हैं। फ्रायड ने रूपांतर उन्माद, जिसमें मानसिक विप्लव शारीरिक लक्षणों में परिवर्तित हो जाता है, और चिंता उन्माद, जिसमें केवल मानसिक लक्षण होते है, का उल्लेख किया है।

उन्माद के बारे में फ्रॉयड का अन्वेषण प्रामाणिक है। फ्रॉयड के दृष्टिकोण से उन्माद के रोग में दो बातें प्रमुखत: मिलती हैं : (1) इसमें काम प्रवृत्ति का प्राधान्य रहता है, (2) इसमें बचपन की अनुभूतियों का विशेष महत्व होता है। उन्माद प्राय: कामवृत्ति संबंधी अनुभूतियों का पुन:स्फुरण होता है। अक्सर वे ही व्यक्ति उन्माद रोग के शिकार होते हैं जिनकी कामशक्ति का उचित विकास नहीं हो पाता। वस्तुत: उन्माद के रोगी की क्रियाओं और सम्मोहनावस्था तथा कामविपरीतीकरण की क्रियाओं में पर्याप्त समानता मिलती है। विकृत कामभाव होने के कारण जब उन्माद के रोगी से कुछ पूछा जाता है तो वह यही कहता है : मैं नहीं जानता, मुझे ऐसी कुछ बातें स्मरण नहीं हैं-इसका अर्थ यह है कि वह कुछ कहना नहीं चाहता क्योंकि इससे उसके अज्ञात अचेतन मन में पड़ी भावनग्रंथि को ठेस पहुँचती है।

उन्माद के लक्षण - शरीर के किसी भाग में लकवा मारना, बेहोशी, अकड़न, हँसना रोना, अंगों का शून्य, संवेदनहीन होना, आकुंचन, तालबद्ध गति, कामविकृति, कामशून्यता, निद्राविचरण, आत्मविस्मरण, द्विव्यक्तित्व, भोजन में रुचि न रखना इत्यादि। उन्माद में मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार के लक्षण मिलते हैं।

उपचार विधि - इस रोग के उचार की सबसे उपयुक्त विधि मुक्त साहचर्य है। प्रारंभ में सम्मोहन का प्रयोग होता था। किंतु यह सफल नहीं रहा। मुक्त साहचर्य से रोगी का रुख जीवन के प्रति परिवर्तित हो जाता है और वह स्थायी रूप से, अल्प अथवा दीर्घकाल में रोग से मुक्त हो जाता है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तथा मानसिक स्वास्थ्य के नियमों से अवगत कराने से लाभ होता है। इसमें औषधि, प्रघात चिकित्सा तथा शल्य उपचार का प्रयोग नहीं किया जाता।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 110 |

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