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{{see also|कहावत लोकोक्ति मुहावरे|अनमोल वचन}}
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*जीवन अविकल कर्म है, न बुझने वाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं। <br> -'''भगवती चरण वर्मा''' (चित्रलेखा, पृ0 24)<br>
*जीवन अविकल कर्म है, न बुझने वाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं। <br> -'''[[भगवती चरण वर्मा]]''' (चित्रलेखा, पृ0 24)<br>


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*उदारता और स्वाधीनता मिल कर ही जीवनतत्त्व है। <br> -'''अमृतलाल नागर''' (मानस का हंस, पृ0 367)<br>
*उदारता और स्वाधीनता मिल कर ही जीवनतत्त्व है। <br> -'''[[अमृतलाल नागर]]''' (मानस का हंस, पृ0 367)<br>


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*सत्य, आस्था और लगन जीवन-सिद्धि के मूल हैं। <br> -'''अमृतलाल नागर''' (अमृत और विष, पृ0 437)<br>
*सत्य, आस्था और लगन जीवन-सिद्धि के मूल हैं। <br> -'''[[अमृतलाल नागर]]''' (अमृत और विष, पृ0 437)<br>


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*[[गंगा नदी|गंगा]] तुमरी साँच बड़ाई।<br> एक सगर-सुत-हित जग आई तारयौ॥<br> नाम लेत जल पिअत एक तुम तारत कुल अकुलाई।<br> 'हरीचन्द्र' याही तें तो सिव राखी सीस चढ़ाई॥<br> -'''भारतेन्दु हरिश्चंद्र''' ([[कृष्ण]]-चरित्र, 37)<br>
*[[गंगा नदी|गंगा]] तुमरी साँच बड़ाई।<br> एक सगर-सुत-हित जग आई तारयौ॥<br> नाम लेत जल पिअत एक तुम तारत कुल अकुलाई।<br> 'हरीचन्द्र' याही तें तो सिव राखी सीस चढ़ाई॥<br> -'''[[भारतेन्दु हरिश्चंद्र]]''' ([[कृष्ण]]-चरित्र, 37)<br>


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*मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट काम के लिए सारे पक्षों का एक हो जाना ज़िन्दा राष्ट्र का लक्षण है ।<br> - '''लोकमान्य तिलक'''
*मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट काम के लिए सारे पक्षों का एक हो जाना ज़िन्दा राष्ट्र का लक्षण है ।<br> - '''[[लोकमान्य तिलक]]'''


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*चापलूसी करके स्वर्ग प्राप्त करने से अच्छा है स्वाभिमान के साथ नर्क में रहना।<br>- '''चौधरी दिगम्बर सिंह'''
*चापलूसी करके स्वर्ग प्राप्त करने से अच्छा है स्वाभिमान के साथनरकमें रहना।<br>- '''[[चौधरी दिगम्बर सिंह]]'''


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*तिलक-गीता का पूर्वार्द्ध है ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, और उसका उत्तरार्द्ध है ‘स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध कर्तव्य है’ । स्वदेशी को लोकमान्य बहिष्कार से भी ऊँचा स्थान देते थे।<br> - '''महात्मा गाँधी'''
*तिलक-गीता का पूर्वार्द्ध है ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, और उसका उत्तरार्ध है ‘स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध कर्तव्य है’ । स्वदेशी को लोकमान्य बहिष्कार से भी ऊँचा स्थान देते थे।<br> - '''[[महात्मा गाँधी]]'''


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*न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविस्वसेत् ।<br>विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति ॥<br /> जो विश्वासपात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वासपात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है ।<br> - '''वेदव्यास''' ([[महाभारत]], [[शांति पर्व]], 138 । 144 - 45)
*न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविस्वसेत् ।<br>विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति ॥<br /> जो विश्वासपात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वासपात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है ।<br> - '''[[वेदव्यास]]''' ([[महाभारत]], [[शान्ति पर्व महाभारत|शांति पर्व]], 138 । 144 - 45)


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*पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा । वैसे ही मानव की जितनी अधिक शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी ।<br> - '''तिरुवल्लुवर''' (तिरुक्कुरल, 396)
*पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा । वैसे ही मानव की जितनी अधिक शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी ।<br> - '''तिरुवल्लुवर''' ([[तिरुक्कुरल]], 396)


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*शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्त्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।<br> - '''स्वामी विवेकानंद''' (सिंगारावेलु मुदालियार को पत्र में, 3 मार्च 1894)
*शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्त्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।<br> - '''[[स्वामी विवेकानंद]]''' (सिंगारावेलु मुदालियार को पत्र में, 3 मार्च 1894)


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*शब्द खतरनाक वस्तु हैं । सर्वाधिक खतरे की बात तो यह है कि वे हमसे यह कल्पना करा लेते हैं कि हम बातों को समझते हैं जबकि वास्तव में हम नहीं समझते ।<br> - '''चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य'''
*शब्द खतरनाक वस्तु हैं । सर्वाधिक खतरे की बात तो यह है कि वे हमसे यह कल्पना करा लेते हैं कि हम बातों को समझते हैं जबकि वास्तव में हम नहीं समझते ।<br> - '''[[चक्रवर्ती राजगोपालाचारी]]'''


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*शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर।<br>सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बिखेरो। <br> - '''अथर्ववेद''' (3।24।5)
*शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर।<br>सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बिखेरो। <br> - '''[[अथर्ववेद]]''' (3।24।5)


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*दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।<br>देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकंस्मृतम्॥<br> दान देना अपना कर्त्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह सात्त्विक दान है।<br> - '''वेदव्यास''' (महाभारत, भीष्मपर्व 41।20 अथवा [[गीता]], 17।20)
*दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।<br>देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकंस्मृतम्॥<br> दान देना अपना कर्त्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह सात्त्विक दान है।<br> - '''[[वेदव्यास]]''' ([[महाभारत]], [[भीष्म पर्व महाभारत|भीष्मपर्व]] 41।20 अथवा [[गीता]], 17।20)


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*प्रत्येक भारतवासी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह ऐसा न समझे कि अपने और अपने परिवार के खाने-पहनने भर के लिए कमा लिया तो सब कुछ कर लिया। उसे अपने समाज के कल्याण के लिए दिल खोलकर दान देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।<br> - '''महात्मा गाँधी''' (इंडियन ओपिनियन, दि:नांक अगस्त 1903)
*प्रत्येक भारतवासी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह ऐसा न समझे कि अपने और अपने परिवार के खाने-पहनने भर के लिए कमा लिया तो सब कुछ कर लिया। उसे अपने समाज के कल्याण के लिए दिल खोलकर दान देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।<br> - '''[[महात्मा गाँधी]]''' (इंडियन ओपिनियन, दि:नांक अगस्त 1903)


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*नकसन पनही<balloon style="color: blue;" title="नस काटने वाला जूता">*</balloon> बतकट जोय।<balloon style="color: blue;" title="बात काटने वाली स्त्री">*</balloon> जो पहिलौठी बिटिया होय।<balloon style="color: blue;" title="पहली संतान बेटी हो तो उसको विदा करते बहुत कष्ट होता है">*</balloon><br> पातरि<balloon style="color: blue;" title="कमज़ोर">*</balloon> कृषि बौहरा भाय।<balloon style="color: blue;" title="बौहरा (महाजन)। यदि भाई से ही कर्ज़ा लिया हो तो हर समय तकाजा करेगा">*</balloon> घाघ कहैं दुख कहाँ समाय॥<br> - '''घाघ'''(घाघ की कहावतें)  
*नकसन पनही<balloon style="color: blue;" title="नस काटने वाला जूता">*</balloon> बतकट जोय।<balloon style="color: blue;" title="बात काटने वाली स्त्री">*</balloon> जो पहिलौठी बिटिया होय।<balloon style="color: blue;" title="पहली संतान बेटी हो तो उसको विदा करते बहुत कष्ट होता है">*</balloon><br> पातरि<balloon style="color: blue;" title="कमज़ोर">*</balloon> कृषि बौहरा भाय।<balloon style="color: blue;" title="बौहरा (महाजन)। यदि भाई से ही कर्ज़ा लिया हो तो हर समय तकाजा करेगा">*</balloon> घाघ कहैं दु:ख कहाँ समाय॥<br> - '''घाघ''' (घाघ की कहावतें)  


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*शायद दुनिया-भर के लोगों की कमज़ोरी का पता लगाने की अपेक्षा अपनी कमज़ोरी का पता लगा लेना ज़्यादा विश्वसनीय होता है।<br> - '''हज़ारी प्रसाद द्विवेदी'''(कल्पलता, पृष्ठ 34)
*शायद दुनिया-भर के लोगों की कमज़ोरी का पता लगाने की अपेक्षा अपनी कमज़ोरी का पता लगा लेना ज़्यादा विश्वसनीय होता है।<br> - '''[[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]]'''(कल्पलता, पृष्ठ 34)


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*सख्यं कारणनिर्व्यपेक्षमिनताहंकारहीना सतीभावो वीतजनापवाद उचितोक्तित्वं समस्तप्रियम्।<br>विद्वत्ता विभवान्विता तरुणिमा पारिप्लत्वोज्झितो राजस्वं विकलंकमत्र चरमे काले किलेत्यन्यथा॥<br> कारण-रहित मित्रता, अहंकार-रहित स्वामित्व, लोकापवाद-रहित सतीत्व, सब को प्रिय उचित कथनशीलता, वैभव-युक्त विद्वता, चंचलता-रहित यौवन तथा अंत तक कलंक-रहित राजस्व संसार में दुर्लभ है।<br> - '''कल्हण''' (राजतरंगिणी, 8।161)
*सख्यं कारणनिर्व्यपेक्षमिनताहंकारहीना सतीभावो वीतजनापवाद उचितोक्तित्वं समस्तप्रियम्।<br>विद्वत्ता विभवान्विता तरुणिमा पारिप्लत्वोज्झितो राजस्वं विकलंकमत्र चरमे काले किलेत्यन्यथा॥<br> कारण-रहित मित्रता, अहंकार-रहित स्वामित्व, लोकापवाद-रहित सतीत्व, सब को प्रिय उचित कथनशीलता, वैभव-युक्त विद्वता, चंचलता-रहित यौवन तथा अंत तक कलंक-रहित राजस्व संसार में दुर्लभ है।<br> - '''[[कल्हण]]''' (राजतरंगिणी, 8।161)


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*पृथिवीं धर्मणा धृतां शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा।<br> धर्म के द्वारा धारण की गई इस मातृभूमि की सेवा हम सदैव करते रहें।<br> - '''अथर्ववेद''' (12।1।17)
*पृथिवीं धर्मणा धृतां शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा।<br> धर्म के द्वारा धारण की गई इस मातृभूमि की सेवा हम सदैव करते रहें।<br> - '''[[अथर्ववेद]]''' (12।1।17)


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*अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।<br>जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥<br> हे लक्ष्मण! मुझे स्वर्णमयी लंका भी अच्छी नहीं लगती; माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं। <br> - '''भगवान राम'''
*अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।<br>जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥<br> हे लक्ष्मण! मुझे स्वर्णमयी लंका भी अच्छी नहीं लगती; माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं। <br> - '''[[राम|भगवान राम]]'''


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*अपने देश या अपने शासक के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरित देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देशभक्ति है।<br> - '''महात्मा गाँधी (सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 41, पृष्ठ 590)'''
*अपने देश या अपने शासक के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरित देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देशभक्ति है।<br> - '''[[महात्मा गाँधी]] (सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 41, पृष्ठ 590)'''


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*देश की सेवा करने में जो मिठास है, वह और किसी चीज़ में नहीं है।<br> - '''सरदार पटेल (सरदार पटेल के भाषण, पृष्ठ 259)'''
*देश की सेवा करने में जो मिठास है, वह और किसी चीज़ में नहीं है।<br> - '''[[सरदार पटेल]] (सरदार पटेल के भाषण, पृष्ठ 259)'''


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*पश्चिम में आने से पहले भारत को मैं प्यार ही करता था, अब तो भारत की धूलि ही मेरे लिए पवित्र है। भारत की हवा मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए तीर्थ है।<br> - '''विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 5, पृष्ठ 203)'''
*पश्चिम में आने से पहले भारत को मैं प्यार ही करता था, अब तो भारत की धूलि ही मेरे लिए पवित्र है। भारत की हवा मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए तीर्थ है।<br> - '''[[विवेकानन्द]] (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 5, पृष्ठ 203)'''


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*मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष, हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमाचल मेरा शिर है। मेरे बालों में श्री [[गंगा नदी|गंगा]] जी बहती हैं। मेरे शिर से [[सिन्धु नदी|सिन्धु]] और ब्रह्मपुत्र निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमरबन्द है। कुरुमण्डल मेरी दाहिनी और मलाबार मेरी बाईं जंघा (टाँगें) है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है? यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परन्तु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं मान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं [[शंकर]] हूँ, मैं [[शिव]] हूँ। स्वदेशभक्ति का यह अति उच्च अनुभव है, और यही 'व्यावहारिक वेदान्त' है।<br> - '''रामतीर्थ (स्वामी रामतीर्थ ग्रन्थावली, भाग 7, पृष्ठ 126)'''
*मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष, हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमाचल मेरा शिर है। मेरे बालों में श्री [[गंगा नदी|गंगा]] जी बहती हैं। मेरे शिर से [[सिन्धु नदी|सिन्धु]] और ब्रह्मपुत्र निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमरबन्द है। कुरुमण्डल मेरी दाहिनी और मलाबार मेरी बाईं जंघा (टाँगें) है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है? यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परन्तु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं मान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं [[शंकर]] हूँ, मैं [[शिव]] हूँ। स्वदेशभक्ति का यह अति उच्च अनुभव है, और यही 'व्यावहारिक वेदान्त' है।<br> - '''[[स्वामी रामतीर्थ|रामतीर्थ]] (स्वामी रामतीर्थ ग्रन्थावली, भाग 7, पृष्ठ 126)'''


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*मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए कोई स्मारक बनवाया जाये, या मेरी प्रतिमा खड़ी की जाये। मेरी कामना केवल यही है कि लोग देश से प्रेम करते रहें और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए प्राण भी न्यौछावर कर दें।<br> - '''गोपालकृष्ण गोखले ('भारत सेवक समाज' के सदस्यों से अन्तिम शब्द)'''
*मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए कोई स्मारक बनवाया जाये, या मेरी प्रतिमा खड़ी की जाये। मेरी कामना केवल यही है कि लोग देश से प्रेम करते रहें और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए प्राण भी न्यौछावर कर दें।<br> - '''[[गोपाल कृष्ण गोखले]] ('भारत सेवक समाज' के सदस्यों से अन्तिम शब्द)'''


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*वाक ही नाम से बढ़कर है। यदि वाणी न होती तो न धर्म का और न अधर्म का ही ज्ञान होता। तथा न सत्य, न असत्य, न साधु, न असाधु, न मनोज्ञ और न अमनोज्ञ का ही ज्ञान हो सकता। वाणी ही इन सब का ज्ञान कराती है। - '''छान्दोग्योपनिषद (7।2।1)'''
*वाक ही नाम से बढ़कर है। यदि वाणी न होती तो न धर्म का और न अधर्म का ही ज्ञान होता। तथा न सत्य, न असत्य, न साधु, न असाधु, न मनोज्ञ और न अमनोज्ञ का ही ज्ञान हो सकता। वाणी ही इन सब का ज्ञान कराती है। - '''[[छान्दोग्य उपनिषद|छान्दोग्योपनिषद]] (7।2।1)'''


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*कर्म की दृढ़ता वस्तुत: व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक ही ठहरते हैं। <br> -'''तिरुवल्लुवर''' (तिरुक्कुरल, 661)
*कर्म की दृढ़ता वस्तुत: व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक् ही ठहरते हैं। <br> -'''तिरुवल्लुवर''' (तिरुक्कुरल, 661)


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*देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है।<br> -'''महात्मा गाँधी''' (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ. 515)
*देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है।<br> -'''[[महात्मा गाँधी]]''' (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ. 515)


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*संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया। <br> -'''शरतचंद्र चट्टोपाध्याय''' (शेष परिचय,पृ.31)
*संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया। <br> -'''[[शरतचंद्र चट्टोपाध्याय]]''' (शेष परिचय,पृ.31)


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*असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। <br> -'''महादेवी वर्मा''' (सप्तपर्णा, पृ.49)
*असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। <br> -'''[[महादेवी वर्मा]]''' (सप्तपर्णा, पृ.49)


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*मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि प्रासादों का भिखारी भी कुटी का अतिथि बनना स्वीकार नहीं करेगा। <br> -'''महादेवी वर्मा''' (दीपशिखा, चिंतन के कुछ क्षण)
*मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि प्रासादों का भिखारी भी कुटी का अतिथि बनना स्वीकार नहीं करेगा। <br> -'''[[महादेवी वर्मा]]''' (दीपशिखा, चिंतन के कुछ क्षण)


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*केवल हृदय में अनुभव करने से ही किसी चीज़ को भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता । सभी चीज़ों को कुछ सीखना पड़ता है और यह सीखना सदा अपने आप नहीं होता ।<br> -'''शरतचन्द्र''' (शरत पत्रावली, पृ. 60)
*केवल हृदय में अनुभव करने से ही किसी चीज़ को भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता । सभी चीज़ों को कुछ सीखना पड़ता है और यह सीखना सदा अपने आप नहीं होता ।<br> -'''[[शरत चंद्र चट्टोपाध्याय|शरतचन्द्र]]''' (शरत पत्रावली, पृ. 60)


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*प्रलय होने पर समुद्र भी अपनी मर्यादा को छोड़ देते हैं लेकिन सज्जन लोग महाविपत्ति में भी मर्यादा को नहीं छोड़ते। <br> -'''चाणक्य'''
*प्रलय होने पर समुद्र भी अपनी मर्यादा को छोड़ देते हैं लेकिन सज्जन लोग महाविपत्ति में भी मर्यादा को नहीं छोड़ते। <br> -'''[[चाणक्य]]'''


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*जो कमज़ोर होता है वही सदा रोष करता है और द्वेष करता है। हाथी चींटी से द्वेष नहीं करता। चींटी, चींटी से द्वेष करती है। <br> -'''महात्मा गाँधी''' (नवजीवन, 16-1-1912)
*जो कमज़ोर होता है वही सदा रोष करता है और द्वेष करता है। हाथी चींटी से द्वेष नहीं करता। चींटी, चींटी से द्वेष करती है। <br> -'''[[महात्मा गाँधी]]''' (नवजीवन, 16-1-1912)


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*द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। <br> -'''प्रेमचन्द''' (गोदान, पृ. 44)
*द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। <br> -'''[[प्रेमचन्द]]''' (गोदान, पृ. 44)


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*सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम है। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खीच लाता है। <br> -'''जयशंकर प्रसाद''' (ध्रुवस्वामिनी, पृ. 38)
*सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम है। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खीच लाता है। <br> -'''[[जयशंकर प्रसाद]]''' (ध्रुवस्वामिनी, पृ. 38)


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*कबीर सो धन संचिये, जो आगै कूँ होइ।<br>सीस चढ़ाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥<br> -'''कबीर''' (कबीर ग्रन्थावली, पृ. 33)
*कबीर सो धन संचिये, जो आगै कूँ होइ।<br>सीस चढ़ाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥<br> -'''[[कबीर]]''' (कबीर ग्रन्थावली, पृ. 33)


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*धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है। <br> -'''प्रेमचन्द''' (गोदान, पृ.297)
*धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है। <br> -'''[[प्रेमचन्द]]''' (गोदान, पृ.297)


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*जामैं रस कछु होत है पढ़त ताहि सब कोय।<br>बात अनूठी चाहिए भाषा कोऊ होय॥<br> -'''भारतेन्दु हरिशचन्द्र'''
*जामैं रस कछु होत है पढ़त ताहि सब कोय।<br>बात अनूठी चाहिए भाषा कोऊ होय॥<br> -'''[[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]]'''


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*भाषा संस्कृति का वाहन है और उसका अंग भी।<br> -'''रामविलास शर्मा''' (भाषा और समाज, पृ. 445)
*भाषा संस्कृति का वाहन है और उसका अंग भी।<br> -'''[[रामविलास शर्मा]]''' (भाषा और समाज, पृ. 445)


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*प्रेम रीति से जो मिलै, तासों मिलिए धाय ।<br > अंतर राखे जो मिलै, तासौ मिलै बलाय॥<br> -'''कबीर'''
*प्रेम रीति से जो मिलै, तासों मिलिए धाय ।<br > अंतर राखे जो मिलै, तासौ मिलै बलाय॥<br> -'''[[कबीर]]'''


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*जब मरने के बाद श्मशान में डाल दिए जाने पर सभी लोग समान रूप से पृथ्वी की गोद में सोते हैं, तब मूर्ख मानव इस संसार में क्यों एक दूसरे को ठगने की इच्छा करते हैं।<br> -'''वेद व्यास''' (महाभारत, स्त्रीपर्व|4|18)
*जब मरने के बाद श्मशान में डाल दिए जाने पर सभी लोग समान रूप से पृथ्वी की गोद में सोते हैं, तब मूर्ख मानव इस संसार में क्यों एक दूसरे को ठगने की इच्छा करते हैं।<br> -'''[[वेदव्यास]]''' (महाभारत, स्त्रीपर्व|4|18)


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*नीच मनुष्य विघ्नों के भय से आरम्भ नहीं करते, मध्यम कोटि के लोग प्रारम्भ करने के बाद विघ्न आने पर रुक जाते हैं, किन्तु उत्तम कोटि के मनुष्य विघ्नों के बार-बार आने पर भी एक बार प्रारम्भ किए गए काम को नहीं छोड़ते।<br> -'''भर्तु हरि''' (नीतिशतक, 27)
*नीच मनुष्य विघ्नों के भय से आरम्भ नहीं करते, मध्यम कोटि के लोग प्रारम्भ करने के बाद विघ्न आने पर रुक जाते हैं, किन्तु उत्तम कोटि के मनुष्य विघ्नों के बार-बार आने पर भी एक बार प्रारम्भ किए गए काम को नहीं छोड़ते।<br> -'''[[भृतहरि]]''' (नीतिशतक, 27)


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*पुष्पों के गुच्छे की तरह महापुरूषों की दो ही गतियाँ होती हैं - या तो वे सब लोगों के सिर पर विराजते हैं अथवा वन में ही मुरझा जाते हैं।<br> -'''भर्तृहरि (नीतिशतक,33)'''
*पुष्पों के गुच्छे की तरह महापुरुषों की दो ही गतियाँ होती हैं - या तो वे सब लोगों के सिर पर विराजते हैं अथवा वन में ही मुरझा जाते हैं।<br> -'''[[भृतहरि]] (नीतिशतक,33)'''


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*अनुभव वह नहीं है जो आपके साथ घटित होता है, अपितु जो आपके साथ घटित होता है, उसका आप क्या करते हैं, वह अनुभव है।<br> -'''एल्डस लियोनार्ड हक्सले'''
*अनुभव वह नहीं है जो आपके साथ घटित होता है, अपितु जो आपके साथ घटित होता है, उसका आप क्या करते हैं, वह अनुभव है।<br> -'''एल्डस लियोनार्ड हक्सले'''
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Latest revision as of 10:51, 11 February 2021

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  • जीवन अविकल कर्म है, न बुझने वाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं।
    -भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, पृ0 24)

  • उदारता और स्वाधीनता मिल कर ही जीवनतत्त्व है।
    -अमृतलाल नागर (मानस का हंस, पृ0 367)

  • सत्य, आस्था और लगन जीवन-सिद्धि के मूल हैं।
    -अमृतलाल नागर (अमृत और विष, पृ0 437)

  • गंगा तुमरी साँच बड़ाई।
    एक सगर-सुत-हित जग आई तारयौ॥
    नाम लेत जल पिअत एक तुम तारत कुल अकुलाई।
    'हरीचन्द्र' याही तें तो सिव राखी सीस चढ़ाई॥
    -भारतेन्दु हरिश्चंद्र (कृष्ण-चरित्र, 37)

  • गंगा की पवित्रता में कोई विश्वास नहीं करने जाता। गंगा के निकट पहुँच जाने पर अनायास, वह विश्वास पता नहीं कहाँ से आ जाता है।
    -लक्ष्मीनारायण मिश्र (गरुड़ध्वज, पृ0 79)

  • मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट काम के लिए सारे पक्षों का एक हो जाना ज़िन्दा राष्ट्र का लक्षण है ।
    - लोकमान्य तिलक


  • राष्ट्रीयता भी सत्य है और मानव जाति की एकता भी सत्य है । इन दोनों सत्यों के सामंजस्य में ही मानव जाति का कल्याण है ।
    - अरविन्द (कर्मयोगी)

  • अन्तराष्ट्रीयता तभी पनप सकती है जब राष्ट्रीयता का सुदृढ़ आधार हो ।
    - श्यामाप्रसाद मुखर्जी

  • लघुता में प्रभुता बसे,
    प्रभुता लघुता भोन ।
    दूब धरे सिर वानबा,
    ताल खडाऊ कोन
    लघुता में प्रभुता निवास करती है और प्रभुता, लघुता का भवन है । दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं बनाकर भी नहीं पहनता ।
    - दयाराम (दयाराम सतसई, 404)

  • तिलक-गीता का पूर्वार्द्ध है ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, और उसका उत्तरार्ध है ‘स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध कर्तव्य है’ । स्वदेशी को लोकमान्य बहिष्कार से भी ऊँचा स्थान देते थे।
    - महात्मा गाँधी

  • न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविस्वसेत् ।
    विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति ॥
    जो विश्वासपात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वासपात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है ।
    - वेदव्यास (महाभारत, शांति पर्व, 138 । 144 - 45)


  • पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा । वैसे ही मानव की जितनी अधिक शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी ।
    - तिरुवल्लुवर (तिरुक्कुरल, 396)

  • शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्त्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।
    - स्वामी विवेकानंद (सिंगारावेलु मुदालियार को पत्र में, 3 मार्च 1894)

  • शब्द खतरनाक वस्तु हैं । सर्वाधिक खतरे की बात तो यह है कि वे हमसे यह कल्पना करा लेते हैं कि हम बातों को समझते हैं जबकि वास्तव में हम नहीं समझते ।
    - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी

  • शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर।
    सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बिखेरो।
    - अथर्ववेद (3।24।5)

  • दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
    देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकंस्मृतम्॥
    दान देना अपना कर्त्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह सात्त्विक दान है।
    - वेदव्यास (महाभारत, भीष्मपर्व 41।20 अथवा गीता, 17।20)

  • आदित्तस्मिं अगारस्मि यं नीहरति भाजनं। तं तस्स होति अत्थायनो च यं तत्थ डह्यति॥
    एवं आदोपितो लोको जराय मरणेन च। नीहरेथ एच दानेन दिन्नं हि होति सुनीहतं॥

जलते हुए घर में से आदमी जिस वस्तु को निकाल लेता है, वही उसके काम की होती है, न कि वह जो वहाँ जल जाती है। इसी प्रकार यह संसार जरा और मरण से जल रहा है। इसमें से दान देकर निकाल लो। जो दिया जाता है वही सुरक्षित होता है।
- [पालि] जातक(आदित्त जातक)


  • प्रत्येक भारतवासी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह ऐसा न समझे कि अपने और अपने परिवार के खाने-पहनने भर के लिए कमा लिया तो सब कुछ कर लिया। उसे अपने समाज के कल्याण के लिए दिल खोलकर दान देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
    - महात्मा गाँधी (इंडियन ओपिनियन, दि:नांक अगस्त 1903)

  • Charity is a virtue of the heart, and not of the hands.
    दानशीलता हृदय का गुण है, हाथों का नहीं।
    - एडीसन (दी गार्डियन, ॠ. 166)

  • Give accordings to your means, or God will make your means according to your giving.
    अपने साधनों के अनुरूप दान करो अन्यथा ईश्वर तुम्हारे दान के अनुरूप तुम्हारे साधन बना देगा।
    - जॉन हाल

  • नकसन पनही<balloon style="color: blue;" title="नस काटने वाला जूता">*</balloon> बतकट जोय।<balloon style="color: blue;" title="बात काटने वाली स्त्री">*</balloon> जो पहिलौठी बिटिया होय।<balloon style="color: blue;" title="पहली संतान बेटी हो तो उसको विदा करते बहुत कष्ट होता है">*</balloon>
    पातरि<balloon style="color: blue;" title="कमज़ोर">*</balloon> कृषि बौहरा भाय।<balloon style="color: blue;" title="बौहरा (महाजन)। यदि भाई से ही कर्ज़ा लिया हो तो हर समय तकाजा करेगा">*</balloon> घाघ कहैं दु:ख कहाँ समाय॥
    - घाघ (घाघ की कहावतें)

  • शायद दुनिया-भर के लोगों की कमज़ोरी का पता लगाने की अपेक्षा अपनी कमज़ोरी का पता लगा लेना ज़्यादा विश्वसनीय होता है।
    - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी(कल्पलता, पृष्ठ 34)

  • सख्यं कारणनिर्व्यपेक्षमिनताहंकारहीना सतीभावो वीतजनापवाद उचितोक्तित्वं समस्तप्रियम्।
    विद्वत्ता विभवान्विता तरुणिमा पारिप्लत्वोज्झितो राजस्वं विकलंकमत्र चरमे काले किलेत्यन्यथा॥
    कारण-रहित मित्रता, अहंकार-रहित स्वामित्व, लोकापवाद-रहित सतीत्व, सब को प्रिय उचित कथनशीलता, वैभव-युक्त विद्वता, चंचलता-रहित यौवन तथा अंत तक कलंक-रहित राजस्व संसार में दुर्लभ है।
    - कल्हण (राजतरंगिणी, 8।161)

  • पृथिवीं धर्मणा धृतां शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा।
    धर्म के द्वारा धारण की गई इस मातृभूमि की सेवा हम सदैव करते रहें।
    - अथर्ववेद (12।1।17)

  • अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
    जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
    हे लक्ष्मण! मुझे स्वर्णमयी लंका भी अच्छी नहीं लगती; माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं।
    - भगवान राम

  • अपने देश या अपने शासक के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरित देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देशभक्ति है।
    - महात्मा गाँधी (सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 41, पृष्ठ 590)

  • देश की सेवा करने में जो मिठास है, वह और किसी चीज़ में नहीं है।
    - सरदार पटेल (सरदार पटेल के भाषण, पृष्ठ 259)

  • ये देश मेगिना येंदु कालिडिना
    ये पीठ मेकिकना, एवरेमनिना
    योगडरा नी तल्लि भूमि भारतिनि
    योगडरा नी जाति निंडु गौरवमु।
    जिस किसी भी देश में जाये, जहाँ कहीं भी आदर पावे, लोग जो कुछ भी कहें, तू अपनी भारत भूमि का यशोगान गाकर अपनी जाति का मान अखण्ड रख।
    - रायप्रोलु सुब्बाराव

  • पश्चिम में आने से पहले भारत को मैं प्यार ही करता था, अब तो भारत की धूलि ही मेरे लिए पवित्र है। भारत की हवा मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए तीर्थ है।
    - विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 5, पृष्ठ 203)

  • मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष, हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमाचल मेरा शिर है। मेरे बालों में श्री गंगा जी बहती हैं। मेरे शिर से सिन्धु और ब्रह्मपुत्र निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमरबन्द है। कुरुमण्डल मेरी दाहिनी और मलाबार मेरी बाईं जंघा (टाँगें) है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है? यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परन्तु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं मान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ। स्वदेशभक्ति का यह अति उच्च अनुभव है, और यही 'व्यावहारिक वेदान्त' है।
    - रामतीर्थ (स्वामी रामतीर्थ ग्रन्थावली, भाग 7, पृष्ठ 126)

  • मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए कोई स्मारक बनवाया जाये, या मेरी प्रतिमा खड़ी की जाये। मेरी कामना केवल यही है कि लोग देश से प्रेम करते रहें और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए प्राण भी न्यौछावर कर दें।
    - गोपाल कृष्ण गोखले ('भारत सेवक समाज' के सदस्यों से अन्तिम शब्द)

  • देवता न बड़ा होता है, न छोटा, न शक्तिशाली होता है, न अशक्त । वह उतना ही बड़ा होता है जितना बड़ा उसे उपासक बनाना चाहता है।
    - हज़ारीप्रसाद द्विवेदी (पुनर्नवा, पृ. 22)

  • वाक ही नाम से बढ़कर है। यदि वाणी न होती तो न धर्म का और न अधर्म का ही ज्ञान होता। तथा न सत्य, न असत्य, न साधु, न असाधु, न मनोज्ञ और न अमनोज्ञ का ही ज्ञान हो सकता। वाणी ही इन सब का ज्ञान कराती है। - छान्दोग्योपनिषद (7।2।1)

  • अनेक विद्याओं का अध्ययन करके भी जो समाज के साथ मिलकर आचरण्युक्त जीवन व्यतीत करना नहीं जानते, वे अज्ञानी ही समझे जायेंगे।
    - तिरुवल्लुवर (तिरुक्कुरल, 140)

  • कर्म की दृढ़ता वस्तुत: व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक् ही ठहरते हैं।
    -तिरुवल्लुवर (तिरुक्कुरल, 661)

  • देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है।
    -महात्मा गाँधी (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ. 515)


  • परंपरा को स्वीकार करने का अर्थ बंधन नहीं, अनुशासन का स्वेच्छा से वरण है।
    -विद्यानिवास मिश्र (परंपरा बंधन नहीं, पृ.53 )

  • असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे।
    -महादेवी वर्मा (सप्तपर्णा, पृ.49)

  • हम ऐसा मानने की ग़लती कभी न करें कि अपराध, आकार में छोटा या बड़ा होता है।
    -महात्मा गाँधी (बापू के आशीर्वाद, 268)

  • मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि प्रासादों का भिखारी भी कुटी का अतिथि बनना स्वीकार नहीं करेगा।
    -महादेवी वर्मा (दीपशिखा, चिंतन के कुछ क्षण)

  • प्राय: प्रत्ययमाघत्ते स्वगुणेषूत्तमादर:॥
    “बड़े लोगों से प्राप्त सम्मान अपने गुणों में विश्वास उत्पन्न कर देता है।”
    -कालिदास (कुमारसंभव,6|20)

  • केवल हृदय में अनुभव करने से ही किसी चीज़ को भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता । सभी चीज़ों को कुछ सीखना पड़ता है और यह सीखना सदा अपने आप नहीं होता ।
    -शरतचन्द्र (शरत पत्रावली, पृ. 60)

  • सभी लोग हिंसा का त्याग कर दें तो फिर क्षात्रधर्म रहता ही कहाँ है ? और यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो जाता है तो जनता का कोई त्राता नहीं रहेगा ।
    -लोकमान्य तिलक (गीतारहस्य, पृ.32)

  • प्रलय होने पर समुद्र भी अपनी मर्यादा को छोड़ देते हैं लेकिन सज्जन लोग महाविपत्ति में भी मर्यादा को नहीं छोड़ते।
    -चाणक्य

  • दूसरों पर दोषारोपण नहीं करोगे तो तुम पर भी दोषारोपण नहीं किया जाएगा। दूसरों को दोषी नहीं ठहराओगे तो तुम्हें भी दोषी नहीं ठहराया जाएगा। दूसरों को क्षमा करोगे तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा।
    -नवविधान (लूका, 6।37)

  • जो कमज़ोर होता है वही सदा रोष करता है और द्वेष करता है। हाथी चींटी से द्वेष नहीं करता। चींटी, चींटी से द्वेष करती है।
    -महात्मा गाँधी (नवजीवन, 16-1-1912)

  • द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं।
    -प्रेमचन्द (गोदान, पृ. 44)

  • सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम है। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खीच लाता है।
    -जयशंकर प्रसाद (ध्रुवस्वामिनी, पृ. 38)

  • जो कहता अत्याचार और
    जो सहता दोनों पापी है
    उत्तर अनीति के देते जो
    वे ही यशवीर प्रतापी हैं।
    -श्यामनारायण पाण्डेय (शिवाजी)

  • कबीर सो धन संचिये, जो आगै कूँ होइ।
    सीस चढ़ाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥
    -कबीर (कबीर ग्रन्थावली, पृ. 33)

  • कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
    वा खाये बौरात है, या पाये बौराय ॥
    -बिहारी (बिहारी सतसई)

  • धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है।
    -प्रेमचन्द (गोदान, पृ.297)



  • प्रेम रीति से जो मिलै, तासों मिलिए धाय ।
    अंतर राखे जो मिलै, तासौ मिलै बलाय॥
    -कबीर

  • जब मरने के बाद श्मशान में डाल दिए जाने पर सभी लोग समान रूप से पृथ्वी की गोद में सोते हैं, तब मूर्ख मानव इस संसार में क्यों एक दूसरे को ठगने की इच्छा करते हैं।
    -वेदव्यास (महाभारत, स्त्रीपर्व|4|18)

  • नीच मनुष्य विघ्नों के भय से आरम्भ नहीं करते, मध्यम कोटि के लोग प्रारम्भ करने के बाद विघ्न आने पर रुक जाते हैं, किन्तु उत्तम कोटि के मनुष्य विघ्नों के बार-बार आने पर भी एक बार प्रारम्भ किए गए काम को नहीं छोड़ते।
    -भृतहरि (नीतिशतक, 27)

  • हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कर्तव्य करें जो हमारे हाथ में है, और इस प्रकार धीरे–धीरे शक्ति संचय करते हुए क्रमशः हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।
    -विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, तृतीय खण्ड, पृ0 43)

  • जिस समय जो कार्य करना उचित हो, उसे उसी समय शंकारहित होकर शीघ्र करना चाहिए, क्योंकि समय पर हुई वर्षा फ़सल की पोषक होती है, असमय की वर्षा विनाशिनी होती है।
    -शक्रनीति (1|286-287)

  • विशालकाय हाथी भी अंकुश के वश में हो जाता है। क्या अंकुश हाथी के बराबर होता है? वज्र से बड़े–बड़े पर्वत भी टूट जाते हैं। क्या वज्र पर्वत के समान बड़ा होता है? नहीं, बात यह है कि जिसमें तेज़ हो, वही बलवान होता है। विशालता या शरीर की स्थूलता पर ही भरोसा नहीं करना चाहिए।
    -अज्ञात

  • महानता अहंकार रहित होती है, तुच्छता अहंकार की सीमा पर पहुँच जाती है।
    -तिरुवल्लुवर (तिरुक्कुरल, 969)

  • किसी भी भाग्यवान के विषय में मृत्यु से पहले निर्णय मत दो।
    -एपोक्रिफ़ा (पुरोहित।11।28)

  • मनुष्य में तीनों चीज़ें वास करती हैं- मनुष्यता, पशुता और दिव्यता।
    -शिवानंद (दिव्योपदेश 2।26)

  • जीवन स्वयं में न तो अच्छा होता है, न बुरा। जैसा तुम इसे बना दो, यह तो वैसा ही अच्छा या बुरा बन जाता है।
    -मांतेन (निबंध)

  • जितना दिखाते हो उससे अधिक तुम्हारे पास होना चाहिये;
    जितना जानते हो उससे कम तुम्हें बोलना चाहिए;
    -शेक्सपियर (किंग लियर, 1।4)

  • पुष्पों के गुच्छे की तरह महापुरुषों की दो ही गतियाँ होती हैं - या तो वे सब लोगों के सिर पर विराजते हैं अथवा वन में ही मुरझा जाते हैं।
    -भृतहरि (नीतिशतक,33)

  • कला का सत्य जीवन की परिधि में सौन्दर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखण्ड सत्य है।
    -महादेवी वर्मा (दीपशिखा चिंतन के कुछ क्षण, पृ. 10)

  • अनुभव वह नहीं है जो आपके साथ घटित होता है, अपितु जो आपके साथ घटित होता है, उसका आप क्या करते हैं, वह अनुभव है।
    -एल्डस लियोनार्ड हक्सले
  1. REDIRECT साँचा:इन्हें भी देखें