सर चार्ल्स मैटकाफ़: Difference between revisions

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'''सर चार्ल्स मैटकाफ़''' 1835 से 1836 ई. [[भारत]] के गवर्नर-जनरल रहे थे।
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*एक वर्ष तक [[भारत]] के [[गवर्नर जनरल]] के पद पर कार्य करने वाले चार्ल्स मैटकाफ़ को प्रेस पर से नियंत्रण हटाने के लिए याद किया जाता है।  
'''सर चार्ल्स मैटकाफ़''' 1835 से 1836 ई. [[भारत]] का [[गवर्नर-जनरल]] रहा था। एक वर्ष तक भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य करने वाले चार्ल्स मैटकाफ़ को प्रेस पर से नियंत्रण हटाने के लिए याद किया जाता है। चार्ल्स मैटकाफ़ को "समाचार पत्रों का मुक्तिदाता" के रूप में संबोधित किया गया है। [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] के इस होनहार व्यक्ति ने अपने अच्छे कार्यों से [[भारतीय इतिहास]] में एक अमिट छाप छोड़ी है।
*चार्ल्स मैटकाफ़ को समाचार पत्रों के मुक्तिदाता के रूप में संबोधित किया गया है।
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*[[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] के इस होनहार व्यक्ति ने भी भारत में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है।
==समाचार पत्रों की स्वतंत्रता==
[[समाचार पत्र]] पर लगने वाले प्रतिबंध के अंतर्गत 1799 ई. में [[लॉर्ड वेलेज़ली]] द्वारा पत्रों का 'पत्रेक्षण अधिनियम' और जॉन एडम्स द्वारा 1823 ई. में 'अनुज्ञप्ति नियम' लागू किये गये थे। एडम्स द्वारा समाचार पत्रों पर लगे प्रतिबन्ध के कारण [[राजा राममोहन राय]] का मिरातुल अख़बार बन्द हो गया। 1830 ई. में राजा राममोहन राय, [[द्वारकानाथ टैगोर]] एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के प्रयासों से [[बंगाली भाषा]] में 'बंगदूत' का प्रकाशन आरम्भ हुआ। [[बम्बई]] से 1831 ई. में [[गुजराती भाषा]] में 'जामे जमशेद' तथा 1851 ई. में 'रास्त गोफ़्तार' एवं 'अख़बारे सौदागार' का प्रकाशन हुआ। [[लॉर्ड विलियम बैंटिक]] प्रथम [[गवर्नर-जनरल]] था, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। कार्यवाहक गर्वनर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ ने 1823 ई. के प्रतिबन्ध को हटाकर समाचार पत्रों को मुक्ति दिलवाई। यही कारण है कि उसे 'समाचार पत्रों का मुक्तिदाता' भी कहा जाता है।
====मैटकॉफ़ का कथन====
1830 में [[भारत]] के तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर-जनरल सर चार्ल्स मेटकॉफ़ ने लिखा था कि- "ग्रामीण समुदाय गणतांत्रिक हैं और उनके पास वह सब कुछ है, जिसकी उन्हें ज़रूरत है और ये गांव किसी भी विदेशी संबंध से मुक्त हैं। कई राजे-महाराजे आए और गए, क्रांतियाँ होती रहीं, लेकिन ग्रामीण समुदाय इस सब से अछूता रहा। ग्रामीण समुदायों की शक्तियाँ इतनी थी, मानो सब के सब अपने आप में एक अलग राज्य हों, मेरे विचार से तमाम आक्रमणों के बीच भी भारतीय लोगों के बच पाने का मुख्य कारण भी यही रहा। जिस तरह की आज़ादी और स्वतंत्रता में यहाँ के लोग प्रसन्नता से जी रहे हैं, उसमें प्रमुख योगदान इस व्यवस्था का ही है। मेरी इच्छा है कि गांवों के इस संविधान को कभी छेड़ा न जाए और हर वह खतरा, जो इस व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में ले जाता हो, उससे सावधान रहा जाए" लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।<ref>{{cite web |url= http://www.arthkaam.com/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5-%E0%A4%95%E0%A5%8B/1966/|title=निकलना ही पड़ा सिद्धार्थ को|accessmonthday=01 जुलाई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>


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thumb|250px|सर चार्ल्स मैटकाफ़ सर चार्ल्स मैटकाफ़ 1835 से 1836 ई. भारत का गवर्नर-जनरल रहा था। एक वर्ष तक भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य करने वाले चार्ल्स मैटकाफ़ को प्रेस पर से नियंत्रण हटाने के लिए याद किया जाता है। चार्ल्स मैटकाफ़ को "समाचार पत्रों का मुक्तिदाता" के रूप में संबोधित किया गया है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के इस होनहार व्यक्ति ने अपने अच्छे कार्यों से भारतीय इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी है।

समाचार पत्रों की स्वतंत्रता

समाचार पत्र पर लगने वाले प्रतिबंध के अंतर्गत 1799 ई. में लॉर्ड वेलेज़ली द्वारा पत्रों का 'पत्रेक्षण अधिनियम' और जॉन एडम्स द्वारा 1823 ई. में 'अनुज्ञप्ति नियम' लागू किये गये थे। एडम्स द्वारा समाचार पत्रों पर लगे प्रतिबन्ध के कारण राजा राममोहन राय का मिरातुल अख़बार बन्द हो गया। 1830 ई. में राजा राममोहन राय, द्वारकानाथ टैगोर एवं प्रसन्न कुमार टैगोर के प्रयासों से बंगाली भाषा में 'बंगदूत' का प्रकाशन आरम्भ हुआ। बम्बई से 1831 ई. में गुजराती भाषा में 'जामे जमशेद' तथा 1851 ई. में 'रास्त गोफ़्तार' एवं 'अख़बारे सौदागार' का प्रकाशन हुआ। लॉर्ड विलियम बैंटिक प्रथम गवर्नर-जनरल था, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। कार्यवाहक गर्वनर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ ने 1823 ई. के प्रतिबन्ध को हटाकर समाचार पत्रों को मुक्ति दिलवाई। यही कारण है कि उसे 'समाचार पत्रों का मुक्तिदाता' भी कहा जाता है।

मैटकॉफ़ का कथन

1830 में भारत के तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर-जनरल सर चार्ल्स मेटकॉफ़ ने लिखा था कि- "ग्रामीण समुदाय गणतांत्रिक हैं और उनके पास वह सब कुछ है, जिसकी उन्हें ज़रूरत है और ये गांव किसी भी विदेशी संबंध से मुक्त हैं। कई राजे-महाराजे आए और गए, क्रांतियाँ होती रहीं, लेकिन ग्रामीण समुदाय इस सब से अछूता रहा। ग्रामीण समुदायों की शक्तियाँ इतनी थी, मानो सब के सब अपने आप में एक अलग राज्य हों, मेरे विचार से तमाम आक्रमणों के बीच भी भारतीय लोगों के बच पाने का मुख्य कारण भी यही रहा। जिस तरह की आज़ादी और स्वतंत्रता में यहाँ के लोग प्रसन्नता से जी रहे हैं, उसमें प्रमुख योगदान इस व्यवस्था का ही है। मेरी इच्छा है कि गांवों के इस संविधान को कभी छेड़ा न जाए और हर वह खतरा, जो इस व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में ले जाता हो, उससे सावधान रहा जाए" लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निकलना ही पड़ा सिद्धार्थ को (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 01 जुलाई, 2013।

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