ज्वालपा देवी मन्दिर, पौड़ी गढ़वाल: Difference between revisions
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'''ज्वालपा देवी मन्दिर''' [[शक्तिपीठ]] है। [[गढ़वाल]] क्षेत्र का यह प्रसिद्ध मन्दिर पौड़ी-कोटद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग पर पौड़ी से 33 कि.मी. व कोटद्वार 73 कि.मी. की दूरी पर सड़क से 200 मीटर दूर नयार नदी के तट पर स्थित है। [[स्कन्दपुराण]] के अनुसार [[सतयुग]] में दैत्यराज पुलोम की पुत्री [[शची]] ने देवराज [[इन्द्र]] को पति रूप में प्राप्त करने के लिये ज्वालपाधाम में [[हिमालय]] की अधिष्ठात्री देवी [[पार्वती]] की तपस्या की। | '''ज्वालपा देवी मन्दिर''' [[शक्तिपीठ]] है। [[गढ़वाल]] क्षेत्र का यह प्रसिद्ध मन्दिर पौड़ी-कोटद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग पर पौड़ी से 33 कि.मी. व कोटद्वार 73 कि.मी. की दूरी पर सड़क से 200 मीटर दूर नयार नदी के तट पर स्थित है। | ||
==पौराणिक मान्यता== | |||
[[स्कन्दपुराण]] के अनुसार [[सतयुग]] में दैत्यराज पुलोम की पुत्री [[शची]] ने देवराज [[इन्द्र]] को पति रूप में प्राप्त करने के लिये ज्वालपाधाम में [[हिमालय]] की अधिष्ठात्री देवी [[पार्वती]] की तपस्या की। माँ पार्वती ने शची की तपस्या पर प्रसन्न होकर उसे दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन दिये और शची की मनोकामना पूर्ण की। देवी पार्वती का दैदीप्यमान ज्वालपा के रूप में प्रकट होने के प्रतीक स्वरूप अखण्ड दीपक निरंतर मन्दिर में प्रज्वलित रहता है। अखण्ड ज्योति को प्रज्वलित रखने की परंपरा आज भी चल रही है। इस प्रथा को यथावत रखने के लिये प्राचीन काल से ही निकटवर्ती गांव से तेल एकत्रित किया जाता है। 18वीं शताब्दी में राजा प्रद्युम्नशाह ने मन्दिर के लिये 11.82 एकड़ सिचिंत भूमि दान दी थी। इसी भूमि पर आज भी सरसों की खेती कर अखण्ड ज्योति को जलाये रखने लिये तेल प्राप्त किया जाता है। | |||
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ज्वालपा देवी मन्दिर शक्तिपीठ है। गढ़वाल क्षेत्र का यह प्रसिद्ध मन्दिर पौड़ी-कोटद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग पर पौड़ी से 33 कि.मी. व कोटद्वार 73 कि.मी. की दूरी पर सड़क से 200 मीटर दूर नयार नदी के तट पर स्थित है।
पौराणिक मान्यता
स्कन्दपुराण के अनुसार सतयुग में दैत्यराज पुलोम की पुत्री शची ने देवराज इन्द्र को पति रूप में प्राप्त करने के लिये ज्वालपाधाम में हिमालय की अधिष्ठात्री देवी पार्वती की तपस्या की। माँ पार्वती ने शची की तपस्या पर प्रसन्न होकर उसे दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन दिये और शची की मनोकामना पूर्ण की। देवी पार्वती का दैदीप्यमान ज्वालपा के रूप में प्रकट होने के प्रतीक स्वरूप अखण्ड दीपक निरंतर मन्दिर में प्रज्वलित रहता है। अखण्ड ज्योति को प्रज्वलित रखने की परंपरा आज भी चल रही है। इस प्रथा को यथावत रखने के लिये प्राचीन काल से ही निकटवर्ती गांव से तेल एकत्रित किया जाता है। 18वीं शताब्दी में राजा प्रद्युम्नशाह ने मन्दिर के लिये 11.82 एकड़ सिचिंत भूमि दान दी थी। इसी भूमि पर आज भी सरसों की खेती कर अखण्ड ज्योति को जलाये रखने लिये तेल प्राप्त किया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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