आल्हाखण्ड: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
गोविन्द राम (talk | contribs) No edit summary |
No edit summary |
||
Line 4: | Line 4: | ||
|विवरण= आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। | |विवरण= आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। | ||
|शीर्षक 1=रचयिता | |शीर्षक 1=रचयिता | ||
|पाठ 1=जगनिक | |पाठ 1=[[जगनिक]] | ||
|शीर्षक 2=भाषा-शैली | |शीर्षक 2=भाषा-शैली | ||
|पाठ 2='आल्हाखण्ड' पर अलंकृत [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण [[रक्त]] का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। | |पाठ 2='आल्हाखण्ड' पर अलंकृत [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण [[रक्त]] का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। | ||
Line 28: | Line 28: | ||
|अद्यतन= | |अद्यतन= | ||
}} | }} | ||
'''आल्हाखण्ड''' लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक [[वीर रस]] प्रधान [[काव्य]] हैं जो [[परमाल रासो]] का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। | '''आल्हाखण्ड''' लोककवि [[जगनिक]] द्वारा लिखित एक [[वीर रस]] प्रधान [[काव्य]] हैं जो [[परमाल रासो]] का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। | ||
==उल्लेखनीय तथ्य== | ==उल्लेखनीय तथ्य== | ||
*'आल्हाखण्ड' में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था। | *'आल्हाखण्ड' में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था। | ||
Line 36: | Line 36: | ||
*इसी विशेषता के कारण [[उत्तर भारत]] की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से '[[रामचरितमानस]]' के बाद 'आल्हाखण्ड' का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है। | *इसी विशेषता के कारण [[उत्तर भारत]] की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से '[[रामचरितमानस]]' के बाद 'आल्हाखण्ड' का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है। | ||
==आल्हाखण्ड की लोकप्रियता== | ==आल्हाखण्ड की लोकप्रियता== | ||
[[कालिंजर]] के राजा परमार के आश्रय मे जगनिक नाम के एक कवि थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे [[उत्तरी भारत]] में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत [[हिंदी]] भाषा भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और [[बरसात]] में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के [[ढोल]] के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी- | [[कालिंजर]] के राजा परमार के आश्रय मे [[जगनिक]] नाम के एक [[कवि]] थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे [[उत्तरी भारत]] में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत [[हिंदी]] भाषा भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और [[बरसात]] में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के [[ढोल]] के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी- | ||
<blockquote>बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार।<br /> | <blockquote>बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार।<br /> |
Revision as of 08:17, 4 November 2014
आल्हाखण्ड
| |
विवरण | आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। |
रचयिता | जगनिक |
भाषा-शैली | 'आल्हाखण्ड' पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। |
अन्य जानकारी | उत्तर भारत की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से 'रामचरितमानस' के बाद 'आल्हाखण्ड' का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है। |
आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं।
उल्लेखनीय तथ्य
- 'आल्हाखण्ड' में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था।
- आरम्भ में वह वीर रस-प्रधान एक लघु लोकगाथा (बैलेड) रही होगी, जिसमें और भी परिवर्द्धन होने पर उसका रूप गाथाचक्र (बैलेड साइकिल) के समान हो गया, जो कालान्तर में एक लोक महाकाव्य के रूप में विकसित हो गया।
- 'पृथ्वीराजरासो' के सभी गुण-दोष 'आल्हाखण्ड' में भी वर्तमान हैं, दोनों में अन्तर केवल इतना है कि एक का विकास दरबारी वातावरण में शिष्ट, शिक्षित-वर्ग के बीच हुआ और दूसरे का अशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच।
- 'आल्हाखण्ड' पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। शब्द-चयन, अलंकार विधान, उक्ति-वैचित्र्य, कम शब्दों में अधिक भाव भरने की प्रवृत्ति प्रसंग-गर्भत्व तथा अन्य काव्य-रूढ़ियों और काव्य-कौशल का दर्शन उसमें बिलकुल नहीं होता। इसके विपरीत उसमें सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। उसमें वीर रस की इतनी गहरी और तीव्र व्यंजना हुई है और उसके चरित्रों को वीरता और आत्मोत्सर्ग की उस ऊँची भूमि पर उपस्थित किया गया है कि उसके कारण देश और काल की सीमा पार कर समाज की अजस्त्र जीवनधारा से 'आल्हखण्ड' की रसधारा मिलकर एक हो गयी है।
- इसी विशेषता के कारण उत्तर भारत की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से 'रामचरितमानस' के बाद 'आल्हाखण्ड' का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है।
आल्हाखण्ड की लोकप्रियता
कालिंजर के राजा परमार के आश्रय मे जगनिक नाम के एक कवि थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-
बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार।
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।
इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों, (जैसे बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था। इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।
आल्हा-ऊदल के गीत
आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है, वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में -विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है। आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं। इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था।
आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरूआत मांड़ौ की लड़ाई से है। मांड़ौ के राजा करिंगा ने आल्हा-ऊदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। ऊदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र 12 वर्ष थी।
आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है:-
‘जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।’
इसी का अनुसरण करते हुये तमाम किस्से उत्तर भारत के बीहड़ इलाकों में हुये जिनमें लोगों ने आल्हा गाते हुये नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा।
पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-
जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह!
स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना सहज गुण बताये गये हैं:-
जहां पसीना गिरै तुम्हारा तंह दै देऊं रक्त की धार।
आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना का कई जगह बखान गया है। इक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल की बहुत पिटाई की:-
हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।
ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-
हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आय
कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।
यद्यपि आल्हा में वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है तथापि मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड का वैशिष्ट्य बुन्देली का अपना है। महोबा 12वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस प्रबन्ध काव्य में है। इसकी प्रामाणिकता के लिए न तो अन्तःसाक्ष्य ही उपादेय और न बर्हिसाक्ष्य। इतिहास में परमार्देदेव की कथा कुछ दूसरे ही रुप में है परन्तु आल्हा खण्ड का राजा परमाल एक वैभवशाली राजा है, आल्हा और ऊदल उसके सामन्त है। यह प्रबन्ध काव्य समस्त कमजोरियों के बावजूद बुन्देलों जन सामान्य की नीति और कर्तव्य का पाठ सिखाता है। बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा जमता है।
भरी दुपहरी सरवन गाइये, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पवाड़ा वादिन गाइये, जा दिन झड़ी लगे दिन रात।।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जगनिक का आल्हाखण्ड (हिंदी) हिंदी भाषा साहित्य। अभिगमन तिथि: 15 जून, 2013।
सम्बंधित लेख