ए. बी. तारापोरे: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Adding category Category:युद्धकालीन वीरगति (को हटा दिया गया हैं।))
Line 66: Line 66:
[[Category:भारतीय सैनिक]]
[[Category:भारतीय सैनिक]]
[[Category:थल सेना]]
[[Category:थल सेना]]
[[Category:युद्धकालीन वीरगति]]
__NOTOC__
__NOTOC__
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 14:36, 10 July 2014

ए. बी. तारापोरे
पूरा नाम लेफ़्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बर्जारी तारापोरे
अन्य नाम आदी
जन्म 18 अगस्त, 1923
जन्म भूमि बम्बई (अब मुम्बई), महाराष्ट्र
मृत्यु 16 सितम्बर, 1965
पुरस्कार-उपाधि परमवीर चक्र (1965)
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख भारत पाकिस्तान युद्ध (1965)
रैंक लेफ़्टिनेंट कर्नल
यूनिट द पूना हॉर्स
अन्य जानकारी इनके पुरखों का सम्बन्ध छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना से था जिन्हें वीरता के पुरस्कार स्वरूप 100 गाँव दिए गए थे। उनमें एक मुख्य गाँव का नाम तारा पोर था। इसलिए यह लोग तारापोरे कहलाए।
अद्यतन‎

लेफ़्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे (अंग्रेज़ी: Lieutenant Colonel Ardeshir Burzorji Tarapore, जन्म: 18 अगस्त, 1923 - मृत्यु:16 सितम्बर, 1965) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैनिक हैं। इन्हें यह सम्मान सन 1965 में मरणोपरांत मिला। इनका पूरा नाम 'अर्देशिर बर्जारी तारापोरे' है और इनके साथी इन्हें आदी कहकर पुकारते थे।

जीवन परिचय

अर्देशिर तारापोरे का जन्म 18 अगस्त 1923 को बम्बई (अब मुम्बई), महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पुरखों का सम्बन्ध छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना से था जिन्हें वीरता के पुरस्कार स्वरूप 100 गाँव दिए गए थे। उनमें एक मुख्य गाँव का नाम तारा पोर था। इसलिए यह लोग तारापोरे कहलाए। बहादुरी की विरासत लेकर जन्मे तारापोरे की प्रारम्भिक शिक्षा सरदार दस्तूर व्वायज़ स्कूल पूना में हुई, जहाँ से उन्होंने 1940 में मैट्रिक पास किया। उसके बाद उन्होंने फौज में दाखिला लिया। उनका सैन्य प्रशिक्षण ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल गोलकुंडा में पूरा हुआ, और वहाँ से यह बैंगलोर भेज दिए गए। उन्हें 1 जनवरी 1942 को बतौर कमीशंड ऑफिसर 7वीं हैदराबाद इंफेंटरी में नियुक्त किया गया। आदी ने यह नियुक्ति स्वीकार तो कर ली लेकिन उनका मन बख्तरबंद रेजिमेंट में जाने का था, जिसमें टैंक द्वारा युद्ध लड़ा जाता है। वह उसमें पहुँचे भी लेकिन कैसे, यह प्रसंग भी रोचक है।
एक बार उनकी बटालियन का निरीक्षण चल रहा था जिसके अधिकारी प्रमुख मेजर जरनल इंड्रोज थे। इन्ड्रोज स्टेट फोर्सेस के कमाण्डर इन चीफ भी थे। उस समय अर्देशिर तारापोरे की सामान्य द्रेनिंग चल रही थी, जिसमें हैण्ड ग्रेनेड फेंकने का अभ्यास जारी था। उसमें एक रंगरूट ने ग्रेनेड फेंका, जो ग़लती से असुरक्षित क्षेत्र में गिरा। उसके विस्फोट से नुकसान की बड़ी सम्भावना थी। ऐसे में, अर्देशिर तारापोरे ने फुर्ती से छलाँग लगाई और उस ग्रेनेड को उठकर सुरक्षित क्षेत्र में उछाल दिया। लेकिन इस बीच वह ग्रेनेड फटा और उसकी लपेट में आदी घायल हो गए। जब आदी ठीक हुए तो इंड्रोज ने उन्हें बुला कर उनकी तारीफ की। उसी दम आदी ने आर्म्ड रेजिमेंट में जाने की इच्छा प्रकट लांसर्स में लाए गए।

भारतीय सेना में

आदी, यानी लेफ्टिनेंट अर्नल ए. बी. तारापोरे, 11 सितम्बर 1965 को स्यालकोट सेक्टर में थे और पूना हॉर्स की कमान सम्हाल रहे थे। चाविंडा को जीतना 1 कोर्पस का मकसद गए। 11 सितम्बर, 1965 को तारापोरे को स्यालकोट पाकिस्तान के ही फिल्लौरा पर अचानक हमले का काम सौंपा गया। फिल्लौरा पर एक तरफ से हमला करके भारतीय सेना का इरादा चाविंडा को जीतने का था। इस हमले के दौरान तारापोरे अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ ही रहे थे कि दुश्मन ने वज़ीराली की तरफ से अचानक ज़वाबी हमले में जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी। तारापोरे ने इस हमले का बहादुरी से सामना किया और अपने एक स्क्वेड्रन को इंफंटरी के साथ लेकर फिल्लौरा पर हमला बोल दिया। हालाँकि तारापोरे इस दौरान घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने रण नहीं छोड़ा और जबरदस्त गोलीबारी करते हुए डटे रहे। 14 सितम्बर को 1 कोर्पस के ऑफिसर कमांडिंग ने विचार किया कि जब तक चाविंड के पीछे बड़ी फौज का जमावड़ा न बना लिया जाए, तब तक शहर तक कब्जा का पाना आसान नहीं होगा। इस हाल को देखते हुए उन्होंने 17 हॉर्स तथा 8 गढ़वाल राइफल्स को हुकुम किया कि 16 सितम्बर को जस्सोरान बुंतुर डोगरांडी में इकठ्टा हो।
16 सितम्बर 1965 को ही 17 हार्स ने 9 डोगरा की एक कम्पनी के साथ मिलकर जस्सोरान पर कब्जा कर लिया, हालाँकि इससे उनका काफी नुकसान हुआ। उधर 8 गढ़वाल कम्पनी बुंतूर अग्राडी पर तरफ पाने में कामयाब हो गई। इस मोर्चे पर भी हिन्दुस्तानी फौज ने बहुत कुछ गँवाया और 8 गढ़वाल कमांडिंग ऑफिसर झिराड मारे गए। 17 हॉर्स के साथ तारापोरे चाविंडा पर हमला बनाते हुए डटे हुए थे। मुकाबला घमासान था। इसलिए 43 गाड़ियों के साथ एक टुकड़ी को हुकुम दिया गया कि वह भी जाकर चाविंडा के हमले में शामिल हो जाए लेकिन वह टुकड़ी वक्त पर नहीं पहुँच पाई और हमला रोक देना पड़ा। उधर तारापोरे की टुकड़ी उनके जोश भरे नेतृत्व में जूझ रही थी। उन्होंने दुश्मन से साठ टैंकों को बर्बाद किया था जिसके लिए सिर्फ नौ टैंक गंवाने पड़े थे। इसी सूझ भरे युद्ध जब तारापोरे टैंक की लड़ाई लड़ रहे थे, तभी वह दुश्मन के निशाने पर आ गए और उन्होंने दम तोड़ दिया। तारापोरे तो शहीद हो गए, लेकिन उनकी सेना इससे दुगने जोश से भर उठी और उसकी लड़ाई जारी रही।

परमवीर चक्र सम्मान

भारत सरकार ने लेफ्टिनेंट अर्नल ए. बी. तारापोरे को परमवीर चक्र से मरणोपरान्त सम्मानित किया। वह सचमुच देश का गौरव थे। उससे भी बड़ी बात एक और रही। पाकिस्तान मेजर आगा हुमायूँ खान और मेजर शमशाद ने चाविंडा के युद्ध पर एक आलेख लिखा, जो पाकिस्तान के डिफेंस जनरल में छपा। उसमें इन दोनों पाकिस्तानी अधिकारियों ने लेफ्टिनेंट अर्नल ए. बी. तारापोरे के विषय में लिखा, कि वह एक बहादुर और अजेय योद्धा थे, जिन्होंने पूरे युद्ध काल में 17 पूना हॉर्स का बेहद कुशल संचालन किया।

भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965)

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

अलग राष्ट्र हो जाने के बाद पाकिस्तान हर हालत में कश्मीर को हथिया लेने पर उतारू था। 1947-48 में विभाजन के तुरंत बाद पाकिस्तान ने बिना सब्र दिखाए कश्मीर पर फौजी हमला कर दिया था, जबकि जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अपना यह निर्णय देने के लिए समय माँगा था, कि वह किसी देश के साथ मिलना चाहते हैं या स्वतंत्र रियासत बने रहना चाहते हैं। उस लड़ाई में पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी थी। पाकिस्तान हार तो गया था लेकिन चुप नहीं बैठा था उसकी नजर जम्मू-कश्मीर पर लगी हुई थी। 1962 में भारत ने चीन से युद्ध लड़ा था, जिसके प्रभाव से उबरने में उसे समय लग रहा था। मई 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू दिवंगत हुए थे और उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनकर आए थे। पाकिस्तान ने यह सनझने में भूल की थी, कि लाल बहादुर शास्त्री दरअसल कितने दृढ़ व्यक्ति हैं। ऐसे में उसके मन में कुटिलता ने फिर सिर उठाया था और उसने एक बार फिर कश्मीर झपटने के लिए युद्ध छेड़ने का मन बना लिया था।
पाकिस्तान इस गुमान में था कि उसकी आर्थिक स्थिति कृषि तथा औद्यौगिक क्षेत्र में मजबूत हुई है। उसके पास अमेरिका से जुटाई हुई जबरदस्त सैन्य सामग्री है जिसमें पैटन टैंक का नाम उसके दिल में सबसे ज्यादा उछल रहा था। साइबर जैट के चार दस्ते भी उसे जोश दिला रहे थे। नेहरू का प्रभाव उसके जाने के साथ पाकिस्तान के मन से मिटने लगा था, फिर क्या था, पाकिस्तान को लगा कि कश्मीर को जीत लेने के लिए इससे ज्यादा सुनहरा मौका वह नहीं पा सकता। पहले तो पाकिस्तान ने, महज स्थितियों का जायजा लेने के लिए कच्छ के रन में एक सीमित दायरे का युद्ध रचा और इस युद्ध की कमान वहाँ के मेजर जनरल टिक्का खान ने संभाली। पाकिस्तान की ओर से यह हमला 9 अप्रैल 1965 को किया गया। भारत ने इसका जवाब तो दिया लेकिन उस जवाब से वह पाकिस्तान को यह समझाने में चूक गया कि भारत से उलझना इस बार भी उसके लिए हार को न्योता देने जैसा होगा। बल्कि कच्छ का नतीजा पाकिस्तान को हौसला दे गया कि वह इस समय कश्मीर को हड़प सकता है। कच्छ के रण का युद्ध अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप से रुक गया। पाकिस्तान को युद्ध विराम स्वीकार करके युद्ध के पहले की यथा स्थिति तक वापस आना पड़ा। पाकिस्तान ने 30 जून 1965 को युद्धविराम के बाद इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए कि इस स्थिति पर तीन सदस्यों का दल एक समझौते की रूपरेखा तैयार करेगा। भारत इस प्रस्ताव तथा युद्धविराम से निश्चित हो गया लेकिन पाकिस्तान के मन में तो सिर्फ युद्ध का उबाल था और उसे कश्मीर अपनी झोली में देख रहा था। उसके लिए कोई निष्पक्षीय वार्ता, कुछ भी अर्थ नहीं रखती थी।
अगस्त के पहले पखवारे, 1965 में भारतीय सेना को पता चला कि कश्मीर की सीमा पर पाकिअतान का जबरदस्त जमावड़ा बन रहा है। पाकिस्तान ने इस लड़ाई की तैयारी में जो रणनीति अपनाई थी उसके अनुसार यह दुतरफा युद्ध होना था। एक तो सामान्य फौजी लड़ाई, दूसरे सिरे पर प्रशिक्षित गोरिल्ला युद्ध। पाकिस्तान का अंदाज था कि यह नीति उसे जरूर कामयाब करेगी। पाकिस्तान ने इसे 'आपरेशन जिब्राल्टर' का नाम दिया। पाकिस्तान इस बार इस सपने को साकार करने के मंसूबों में था कि कश्मीर तो उसका हुआ ही समझो। सितम्बर 1965 के शुरू में ही पाकिस्तान ने अपनी कार्यवाही बाकायदा अपने सैन्य बल के साथ शुरू कर दी। यह लड़ाई भी कई मोर्चें पर हुई लेकिन चाविंडा के रणक्षेत्र में लड़ा गया युद्ध विशेष महत्त्व रखता है। स्यालकोट सेक्टर में चाविंडा की तरह का श्रेय 17 पूना हॉर्स के लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बर्जारी तारापोरे को जाता है, जिन्हें प्यार से उनके साथी आदी कहते थे।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक- परमवीर चक्र विजेता | लेखक- अशोक गुप्ता | पृष्ठ संख्या- 81

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख