मुहम्मद बिन तुग़लक़: Difference between revisions
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मुहम्मद तुग़लक का व्यक्तित्व अत्यन्त जटिल था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूरकृत्यों और दूसरों के सुख-दुख के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव के कारण उसे पागल और रक्त-पिपासु भी कहा जाता है। मुहम्मद बिन तुग़लक [[दिल्ली]] के सभी सुल्तानों से अधिक विद्वान और सुसंस्कृत तथा योग्य सेनापति था और अधिकांश युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई थी। बहुत ही कम अवसरों पर उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें ज्ञानार्जन की अदम्य लालसा रहती थी। उसने मुसलमान होते हुए भी मुल्लाओं की उपेक्षा करके राज्य का शासन प्रबंध करने का प्रयास किया और कुछ ऐसी मौलिक योजनाएँ प्रचलित कीं, जो साम्राज्य हित में थीं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने उसे असाधारण प्रतिभाशाली शासक माना है। जिसके विचार अपने युग से काफ़ी आगे बढ़े हुए थे, और इसलिए वह प्रतिक्रियावादियों का शिकार हुआ। कदाचित् सत्यता दोनों ही मतों में है। वास्तव में मुहम्मद तुग़लक न तो पागल था और न ही असाधारण प्रतिभाशाली शासक ही था। वह अवश्य मौलिक योजनाएँ बनाता था, परन्तु उसमें व्यावहारिकता और धैर्य की कमी थी। इसलिए उसे असफलताएँ ही हाथ लगीं। | मुहम्मद तुग़लक का व्यक्तित्व अत्यन्त जटिल था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूरकृत्यों और दूसरों के सुख-दुख के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव के कारण उसे पागल और रक्त-पिपासु भी कहा जाता है। मुहम्मद बिन तुग़लक [[दिल्ली]] के सभी सुल्तानों से अधिक विद्वान और सुसंस्कृत तथा योग्य सेनापति था और अधिकांश युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई थी। बहुत ही कम अवसरों पर उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें ज्ञानार्जन की अदम्य लालसा रहती थी। उसने मुसलमान होते हुए भी मुल्लाओं की उपेक्षा करके राज्य का शासन प्रबंध करने का प्रयास किया और कुछ ऐसी मौलिक योजनाएँ प्रचलित कीं, जो साम्राज्य हित में थीं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने उसे असाधारण प्रतिभाशाली शासक माना है। जिसके विचार अपने युग से काफ़ी आगे बढ़े हुए थे, और इसलिए वह प्रतिक्रियावादियों का शिकार हुआ। कदाचित् सत्यता दोनों ही मतों में है। वास्तव में मुहम्मद तुग़लक न तो पागल था और न ही असाधारण प्रतिभाशाली शासक ही था। वह अवश्य मौलिक योजनाएँ बनाता था, परन्तु उसमें व्यावहारिकता और धैर्य की कमी थी। इसलिए उसे असफलताएँ ही हाथ लगीं। | ||
==शासनकाल== | ==शासनकाल== | ||
मुहम्मद तुग़लक का शासनकाल | मुहम्मद तुग़लक का शासनकाल महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों से आरम्भ हुआ। 1327 ई. में उसके चचेरे भाई ने दक्षिण में और 1328 ई. में मुल्तान के हाक़िम ने विद्रोह कर दिया, परन्तु दोनों ही विद्रोह दबा दिये गये। उपरान्त [[बारंगल]], [[मअबर]] और [[द्वारसमुद्र]] को जीत कर [[दिल्ली सल्तनत]] की सीमा [[मदुरा]] तक विस्तृत कर दी गयी। सभी प्रान्तों के राजस्व संबंधी काग़ज़ पत्र दुरुस्त कराये गये, स्थान-स्थान पर अस्पताल और खैरातखाने खोले गये और इब्नबबूता सहित अनेक विद्वानों को राज्याश्रय प्रदान करके सब तरह से सम्मानित किया गया। परन्तु जैसे-जैसे शासनकाल लम्बा होता गया वैसे-वैसे कठिनाइयों में वृद्धि होने लगी। 1327 ई. में सुल्तान ने आदेश दिया कि राजधानी का स्थानान्तरण दिल्ली से देवगिरि किया जाए, जो साम्राज्य के केन्द्र में पड़ता था। [[देवगिरि]] का नाम बदलकर [[दौलताबाद]] रखा गया। सुल्तान ने दिल्ली से दौलताबाद जाने वालों को अनेक सुविधाएँ प्रदान कीं, किन्तु उसकी यह योजना इस हठधर्मि के कारण असफल रही कि उसने राज्य कर्मचारियों के साथ दिल्ली के साधारण नागरिकों को भी वहाँ जाने के लिए विवश किया। | ||
==मुद्राप्रणाली का प्रचलन== | ==मुद्राप्रणाली का प्रचलन== | ||
1330 ई. में सुल्तान ने प्रतीकाकात्मक मुद्राप्रणाली का प्रचलन किया, जैसी कि आजकल विश्व के समस्त देशों में प्रचलित है। उसने ताँबे के सिक्के चलाये, जिनका मूल्य सोने-चाँदी के सिक्कों के समान ठहराया गया। उसकी यह योजना भी असफल रही, क्योंकि उसने जाली सिक्कों की रोकथाम का समुचित प्रबंध नहीं किया। | 1330 ई. में सुल्तान ने प्रतीकाकात्मक मुद्राप्रणाली का प्रचलन किया, जैसी कि आजकल विश्व के समस्त देशों में प्रचलित है। उसने ताँबे के सिक्के चलाये, जिनका मूल्य सोने-चाँदी के सिक्कों के समान ठहराया गया। उसकी यह योजना भी असफल रही, क्योंकि उसने जाली सिक्कों की रोकथाम का समुचित प्रबंध नहीं किया। |
Revision as of 13:47, 4 January 2011
मुहम्मद बिन तुग़लक 1325 से 1351 ई. तक तुग़लक़ वंश का शासक था। वह तुग़लक वंश की नींव डालने वाले गयासुद्दीन तुग़लक का पुत्र और उत्तराधिकारी था। कुछ विद्वानों के अनुसार गयासुद्दीन की आकस्मिक मृत्यु मुहम्मद तुग़लक के षड़यंत्र से हुई थी।
कुशल व्यक्तित्व
मुहम्मद तुग़लक का व्यक्तित्व अत्यन्त जटिल था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूरकृत्यों और दूसरों के सुख-दुख के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव के कारण उसे पागल और रक्त-पिपासु भी कहा जाता है। मुहम्मद बिन तुग़लक दिल्ली के सभी सुल्तानों से अधिक विद्वान और सुसंस्कृत तथा योग्य सेनापति था और अधिकांश युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई थी। बहुत ही कम अवसरों पर उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें ज्ञानार्जन की अदम्य लालसा रहती थी। उसने मुसलमान होते हुए भी मुल्लाओं की उपेक्षा करके राज्य का शासन प्रबंध करने का प्रयास किया और कुछ ऐसी मौलिक योजनाएँ प्रचलित कीं, जो साम्राज्य हित में थीं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने उसे असाधारण प्रतिभाशाली शासक माना है। जिसके विचार अपने युग से काफ़ी आगे बढ़े हुए थे, और इसलिए वह प्रतिक्रियावादियों का शिकार हुआ। कदाचित् सत्यता दोनों ही मतों में है। वास्तव में मुहम्मद तुग़लक न तो पागल था और न ही असाधारण प्रतिभाशाली शासक ही था। वह अवश्य मौलिक योजनाएँ बनाता था, परन्तु उसमें व्यावहारिकता और धैर्य की कमी थी। इसलिए उसे असफलताएँ ही हाथ लगीं।
शासनकाल
मुहम्मद तुग़लक का शासनकाल महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों से आरम्भ हुआ। 1327 ई. में उसके चचेरे भाई ने दक्षिण में और 1328 ई. में मुल्तान के हाक़िम ने विद्रोह कर दिया, परन्तु दोनों ही विद्रोह दबा दिये गये। उपरान्त बारंगल, मअबर और द्वारसमुद्र को जीत कर दिल्ली सल्तनत की सीमा मदुरा तक विस्तृत कर दी गयी। सभी प्रान्तों के राजस्व संबंधी काग़ज़ पत्र दुरुस्त कराये गये, स्थान-स्थान पर अस्पताल और खैरातखाने खोले गये और इब्नबबूता सहित अनेक विद्वानों को राज्याश्रय प्रदान करके सब तरह से सम्मानित किया गया। परन्तु जैसे-जैसे शासनकाल लम्बा होता गया वैसे-वैसे कठिनाइयों में वृद्धि होने लगी। 1327 ई. में सुल्तान ने आदेश दिया कि राजधानी का स्थानान्तरण दिल्ली से देवगिरि किया जाए, जो साम्राज्य के केन्द्र में पड़ता था। देवगिरि का नाम बदलकर दौलताबाद रखा गया। सुल्तान ने दिल्ली से दौलताबाद जाने वालों को अनेक सुविधाएँ प्रदान कीं, किन्तु उसकी यह योजना इस हठधर्मि के कारण असफल रही कि उसने राज्य कर्मचारियों के साथ दिल्ली के साधारण नागरिकों को भी वहाँ जाने के लिए विवश किया।
मुद्राप्रणाली का प्रचलन
1330 ई. में सुल्तान ने प्रतीकाकात्मक मुद्राप्रणाली का प्रचलन किया, जैसी कि आजकल विश्व के समस्त देशों में प्रचलित है। उसने ताँबे के सिक्के चलाये, जिनका मूल्य सोने-चाँदी के सिक्कों के समान ठहराया गया। उसकी यह योजना भी असफल रही, क्योंकि उसने जाली सिक्कों की रोकथाम का समुचित प्रबंध नहीं किया।
आक्रमण
1332 ई. में उसने फ़ारस पर आक्रमण करने के लिए विशाल सेना का संग्रह किया, जिस पर अत्यधिक धन व्यय हुआ। इसके बाद यह योजना त्याग दी गई। उपरान्त उसने कूर्माचल अथवा कुमायूँ ( न कि चीन जैसा फ़रिश्ता का कथन है) को जीतने के लिए सेना भेजी, यद्यपि इस अभियान में वह कुछ पर्वतीय राजाओं का दमन करने में अवश्य सफल हुआ, परन्तु इसमें धन जन की अत्यधिक हानि हुई। आर्थिक कठिनाइयों के कारण सुल्तान को करों की दरें, विशेषकर दोआब के भू-भाग में अत्यधिक बढ़ा देनी पड़ी थीं। जब लोग कर अदा नहीं कर पाते तो उन्हें अन्य पशुओं की भाँति खदेड़-खदेड़ कर मारा जाता था। साम्राज्य के कई भागों में दुर्भिक्ष फैल गया और सुल्तान के अत्याचार और भी बढ़ गये। फलस्वरूप 1334-35 में मअबर में विद्रोह हुआ जो बाद में दक्षिण के अन्य भू-भागों, उत्तरी भारत, बंगाल, गुजरात और सिंध में भी फैल गया। 1351 ई. में जब सुल्तान सिंध में विद्रोह का दमन करने में व्यस्त था तभी विषमज्वर के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।