मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु: Difference between revisions

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Revision as of 06:24, 22 March 2013

मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु
लेखक रेणु फणीश्वरनाथ
मूल शीर्षक 'मैला आँचल'
कथानक पूर्णिया
ISBN 9788126704804
देश भारत
पृष्ठ: 353
भाषा हिन्दी
विषय सामाजिक
प्रकार उपन्यास

मैला आंचल रेणु फणीश्वरनाथ का प्रथम उपन्यास है। यह एक 'आंचलिक उपन्यास' है। इस उपन्यास का प्रकाशन 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा किया गया था। इसका कथानक है पूर्णिया का। पूर्णिया बिहार राज्य का एक ज़िला है। इसके एक ओर नेपाल है तो दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल हैं। रेणु के अनुसार इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास का कथा क्षेत्र बनाया गया है।[1] 'नलिन विलोचन शर्मा' के अनुसार,

'यह ऐसा सौभाग्यशाली उपन्यास है जो लेखक की प्रथम कृति होने पर भी उसे ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे तो फिर कुछ और न भी लिखे। ऐसी कृति से वह अपने लिए ऐसा प्रतिमान स्थिर कर देता है, जिसकी पुनरावृत्ति कठिन होती है। 'मैला आँचल' गत वर्षों का ही श्रेष्ठ उपन्यास नहीं है, वह हिन्दी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में सहज ही परिगणनीय है। स्वयं मैंने हिन्दी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों की जो तालिका प्रकाशित कराई है, उसमें उसे सम्मिलित करने में मुझे कठिनाई न होगी। मैं किसी द्विधा के बिना एक उपन्यास को हटाकर इसके लिए जगह बना सकता हूँ।' - नलिन विलोचन शर्मा[2]

समसामयिक परिस्थितियाँ

'मैला आँचल' में फणीश्वरनाथ रेणु 'जाति समाज' और 'वर्ग चेतना' के बीच विरोधाभास की कथा कहते हैं। आज इस इलाके को 'मैला आँचल' की दृष्टि से देखने पर जाति समीकरण और संसाधनों पर वर्चस्व की जातीय व्यवस्था उपन्यास के कथा समय के लगभग अनुरूप ही दिखता है। जलालगढ़ के पास 'मैला आँचल' के मठ का वर्तमान संस्करण दिखा, जिसके नाम पर आज भी सैकड़ों एकड़ जमीन है, वहीँ बालदेव के वर्तमान भी उपस्थित थे, जाति से भी यादव, नाथो यादव, जिनके जिद्दी अभियान से बिहार सरकार जलालगढ़ के क़िले का जीर्णोद्धार करने जा रही है। साधारण मैले कपडे में, थैला लटकाए आधुनिक बालदेव यानि नाथो ने क़िले की ज़मीन को कब्ज़ा मुक्त किया, वह भी अपनी ही जाति के किसी दबंग परिवार के कब्जे से। रेणु जी के घर में अब उनके समय के अभाव नहीं है, रेणु जी की खुद की पुश्तैनी खेती 22 सौ बीघे की थी, जो अब सीलिंग के बाद कुछ सैकड़ों में सिमट गई है। इस विशाल भूखंड के मालिकाना के बावजूद रेणु जी के आर्थिक संघर्ष छिपे नहीं हैं, कारण 'परती परीकथा', कोशी की बंजर भूमि, पटसन की खेती, वह भी अनिश्चित। हालाँकि खेत के कुछ भाग में रेणु जी के रहते, यानी 70 के दशक में धान की खेती संभव होने लगी थी। जमीन पर मालिकाना 'भूमफोड़ क्षत्रियों'[3] का है, मठों का है, कायस्थ विश्वनाथ प्रसाद तो कोई नहीं मिला कुछ घंटे की यात्रा में, लेकिन जलालगढ़ में ही साहित्यकार पूनम सिंह[4] के भूमिहार परिवार (सवर्ण) के पास भी काफी जमीनी मालिकाना है। जातियाँ उपन्यास के कथा काल की हकीकत थीं और आज की भी।[5][6]

प्रतिनिधि उपन्यास

'मैला आँचल' साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन 1954 में हुआ। 'मैला आँचल' उपन्यास की कथावस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया ज़िले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। 'मैला आँचल' स्वतंत्र होते और स्वतंत्रता के तुरंत बाद के भारत की राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक परिस्थितियों और परिदृश्यों का ग्रामीण और यथार्थ से भरा संस्करण है। रेणु के अनुसार - 'इसमें फूल भी हैं, शूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है, चन्दन भी सुन्दरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।'[7] इसमें गरीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, बाह्याडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है।

कथानक

'मैला आँचल' 'हिन्दी साहित्य' का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर फणीश्वरनाथ रेणु ने इस उपन्यास में वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। 'मैला आँचल' का कथानक एक युवा डॉक्टर पर आधारित है, जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद पिछड़े गाँव को अपने कार्य-क्षेत्र के रूप में चुनता है, तथा इसी क्रम में ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दुःख-दैन्य, अभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास के साथ-साथ तरह-तरह के सामाजिक शोषण-चक्रों में फँसी हुई जनता की पीड़ाओं और संघर्षों से भी उसका साक्षात्कार होता है। कथा का अन्त इस आशामय संकेत के साथ होता है कि युगों से सोई हुई ग्राम-चेतना तेजी से जाग रही है।

शिल्प

शिल्प की दृष्टि से इस उपन्यास में फ़िल्म की तरह घटनाएँ एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है, किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इस उपन्यास में नाटकीयता और क़िस्सागोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है। कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथा-शिल्प के साथ-साथ भाषा-शिल्प और शैली-शिल्प का विलक्षण सामंजस्य है, जो जितना सहज-स्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।

प्रेमचंद के बाद रेणु

'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसे आंचलिक उपन्यासों की रचना का श्रेय फणीश्वरनाथ रेणु को जाता है। प्रेमचंद के बाद रेणु ने गांव को नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया है। रेणु जी का 'मैला आंचल' वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को दिखलाया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति[8]नहीं है, पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। खूबी यह है कि यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहाँ के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है। रेणु जी ने ही सबसे पहले 'आंचलिक' शब्द का प्रयोग किया था। इसकी भूमिका 9 अगस्त, 1954 को लिखते हुए फणीश्वरनाथ रेणु कहते हैं कि- यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास

आंचलिकता

यही इस उपन्यास का यथार्थ है। यही इसे अन्य आंचलिक उपन्यासों से अलग करता है, जो गाँव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखे गए हैं। गाँव की अच्छाई-बुराई को दिखाता प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, शिवप्रसाद रुद्र, भैरव प्रसाद गुप्त और नागार्जुन के कई उपन्यास हैं, जिनमें गाँव की संवेदना रची बसी है, लेकिन ये उपन्यास अंचल विशेष की पूरी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। बल्कि ये उपन्यासकार गाँवों में हो रहे बदलाव को चित्रित करते नज़र आते हैं। परन्तु 'रेणु' का 'मेरीगंज' गाँव एक जिवंत चित्र की तरह हमारे सामने है, जिसमें वहाँ के लोगों का हंसी-मज़ाक़, प्रेम-घृणा, सौहार्द्र-वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, संवेदना-करुणा, संबंध-शोषण, अपने समस्त उतार-चढाव के साथ उकेरा गया है। इसमें जहाँ एक ओर नैतिकता के प्रति तिरस्कार का भाव है तो वहीं दूसरी ओर नैतिकता के लिए छटपटाहट भी है। परस्पर विरोधी मान्यताओं के बीच कहीं न कहीं जीवन के प्रति गहरी आस्था भी है– "मैला´आंचल में"!

पूरे उपन्यास में एक संगीत है, गाँव का संगीत, लोक गीत-सा, जिसकी लय जीवन के प्रति आस्था का संचार करती है। एक तरफ़ यह उपन्यास आंचलिकता को जीवंत बनाता है तो दूसरी तरफ़ उस समय का बोध भी दृष्टिगोचर होता है। ‘मेरीगंज’ में मलेरिया केन्द्र के खुलने से वहाँ के जीवन में हलचल पैदा होती है। पर इसे खुलवाने में पैंतीस वर्षों की मशक्कत है, और यह घटना वहाँ के लोगों की विज्ञान और आधुनिकता को अपनाने की हक़ीक़त बयान करती है। भूत-प्रेत, टोना-टोटका, झाड़-फूक आदि में विश्‍वास करने वाली अंधविश्वासी परंपरा गनेश की नानी की हत्या में दिखती है। साथ ही जाति-व्यवस्था का कट्टर रूप भी दिखाया गया है। सब डॉ. प्रशान्त की जाति जानने के इच्छुक हैं। हर जातियों का अपना अलग टोला है। दलितों के टोले में सवर्ण विरले ही प्रवेश करते हैं, शायद तभी जब अपना स्वार्थ हो। छूआछूत का महौल है, भंडारे में हर जाति के लोग अलग-अलग पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं और किसी को इस पर आपत्ति नहीं है।

स्वतंत्रता के बाद का भारत

‘रेणु’ ने स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई राजनीतिक अवसरवादिता, स्वार्थ और क्षुद्रता को भी बड़ी कुशलता से उजगर किया है। गांधीवाद की चादर ओढे हुए भ्रष्ट राजनेताओं का कुकर्म बड़ी सजगता से दिखाया गया है। राजनीति, समाज, धर्म, जाति, सभी तरह की विसंगतियों पर ‘रेणु’ ने अपने कलम से प्रहार किया है। इस उपन्यास की कथा-वस्तु काफ़ी रोचक है। चरित्रांकन जीवंत। भाषा इसका सशक्त पक्ष है। ‘रेणु’ जी सरस व सजीव भाषा में परंपरा से प्रचलित लोककथाएं, लोकगीत, लोकसंगीत आदि को शब्दों में बांधकर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को हमारे सामने सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं। अपने अंचल को केन्द्र में रखकर कथानक को "मैला आंचल" द्वारा प्रस्तुत करने के कारण फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिन्दी में आंचलिक उपन्यास की परंपरा के प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

हिंदी उपन्यास और राजनीति

श्री फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'मैला आँचल' (1954) में स्वतंत्रता पूर्व और बाद की राजनीति का चित्रण मिलता है। 'मैला आँचल' के गाँव का प्रत्येक घर राजनीतिज्ञों का अड्डा-सा बन गया है तथा जातिगत आधार पर बंटे इस गाँव में सभी किसी न किसी राजनीतिक दल के प्रति प्रतिबद्ध है। पूरे उपन्यास में झूठी आजादी का स्वर सुनाई पड़ता है।[9]

प्रकाशन में हुई परेशानियाँ

फणीश्वरनाथ रेणु 'मैला आँचल' वर्षों पहले से ही लिख रहे थे। रात्रि 10 बजे के बाद ही लिखना शुरू करते थे। पूछने पर बताते, एक अंचल को ध्यान में रखकर ही इसकी रचना कर रहा हूँ। सारी घटनाओं का मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ। पुस्तक पटना के ही एक प्रकाशन 'समता प्रकाशन' से प्रकाशित हुई थी, अखबारी कागज पर, उस समय उसका मूल्य पाँच रुपया था। पुस्तक की मात्र दो सौ प्रतियाँ ही छपी थीं। पुस्तक की बिक्री के लिए प्रकाशक की कोई रुचि नहीं थी, पुस्तकें यूँ ही पड़ी थीं। कहीं से कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आ रही थी। रेणुजी जब भी प्रकाशक से रुपयों के लिए कहते प्रकाशक सीधा और सपाट उत्तर देता- "किताबें ज्यों की त्यों धरी हैं। बिकें तब तो दूँ।" रेणु मायूस लौट आते। 'मैला आँचल' को लेकर रेणु बेहद परेशान थे। उन्हीं दिनों 'राजकमल प्रकाशन' के श्री ओमप्रकाश पटना आए थे। उन्होंने शायद पुस्तक की समीक्षा जो नलिन विलोचन शर्मा ने लिखी थी, उसे पढ़ा था। रेणु को प्रेमचंद के बाद उपन्यास के क्षेत्र में नया हस्ताक्षर बताया था राधाकृष्णजी लतिकाजी से मिले और रेणु को मुलाकात के लिए भेज देने को कहा। रेणु के आने पर मैंने यह सूचना उन्हें दी-बड़े खुश हुए और कहा लतिका अब कुछ चमत्कार होने वाला है। वे ओमप्रकाशजी से मिलने चले गए। लौटकर उन्होंने बताया अब 'मैला आँचल' 'राजकमल प्रकाशन' से छपेगा, सारी बातें हो गई हैं। दूसरे ही दिन 'समता प्रकाशन' में जो प्रतियाँ बची थीं, उसे भी ओमप्रकाशजी अपने साथ ले गए। राजकमल से पुस्तक प्रकाशित हुई। इस उपलक्ष्य में ओमप्रकाशजी ने दिल्ली में एक भव्य पार्टी का आयोजन भी किया था। रेणु भी उसमें गए थे।[10]

साहित्य में स्थान

यद्यपि फणीश्वरनाथ रेणु समाजवादी विचारधारा वाले थे, लेकिन उनका 'मैला आँचल', प्रेमचंद के 'गोदान' के बाद का सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है।[11] अपने प्रकाशन के 56 साल बाद भी यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक उपन्यास के अप्रतिम उदाहरण के रूप में विराजमान है। यह केवल एक उपन्यास भर नहीं है, यह हिन्दी का व भारतीय उपन्यास साहित्य का एक अत्यंत ही श्रेष्ठ उपन्यास है और इसका दर्ज़ा क्लासिक रचना का है। इसकी यह शक्ति केवल इसकी आंचलिकता के कारण ही नहीं है, वरन्‌ एक ऐतिहासिक दौर के संक्रमण को आंचलिकता के परिवेश में चित्रित करने के कारण भी है। बोली-बानी, गीतों, रीतिरिवाज़ों आदि के सूक्ष्म ब्योरों से है। जहाँ एक ओर अंचल विशेष की लोक संस्कृति की सांस्कृतिक व्याख्या की है, वहीं दूसरी ओर बदलते हुए यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में लोक-व्यवहार के विविध रूपों का वर्णन भी किया है। इन वर्णनों के माध्यम से रेणु जी ने "मैला आंचल" में इस अंचल का इतना गहरा और व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। [12][13]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैला आँचल (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  2. मैला आंचल (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  3. मैला आँचल में व्यंग्यात्मक जाति संबोधन
  4. जो इस इलाके के होने के कारण हमारी गाइड थीं
  5. लेखक ‘स्‍त्रीकाल’ पत्रिका के संपादक हैं।
  6. रेणु के गांव में आज भी जिंदा हैं 'मैला आँचल' के पात्र (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  7. मैला आंचल (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  8. पुरुष या महिला
  9. हिंदी उपन्यास और राजनीति (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  10. रेणु : सजनवा बैरी हो गए हमार (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  11. हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक थे प्रेमचंद' (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।
  12. संदर्भ 1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 2. हिंदी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – श्यामचन्द्र कपूर 4. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड-7 6. साहित्यिक निबंध आधुनिक दृष्टिकोण – बच्चन सिंह 7. झूठा सच – यशपाल 8. त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार 9. फणीश्वरनाथ रेणु – व्यक्तित्व, काल और कृतियां – गोपी कृष्ण प्रसाद 10. फणीश्वरनाथ रेणु व्यक्तित्व एवं कृतित्व – डॉ. हरिशंकर दुबे
  13. ग्रामांचल के उपन्यास (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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