आर्षेय ब्राह्मण: Difference between revisions

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इस ब्राह्मण का अध्ययन प्रात: प्रातराश से पूर्व होना चाहिए- 'प्राक् प्रातराशिकमित्याचक्षते'<ref>आर्षेय ब्राह्मण 1.1.4</ref> आर्षेय ब्राह्मण का तिरुपति संस्करण 1967 में बी॰आर॰ शर्मा द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित है।  
इस ब्राह्मण का अध्ययन प्रात: प्रातराश से पूर्व होना चाहिए- 'प्राक् प्रातराशिकमित्याचक्षते'<ref>आर्षेय ब्राह्मण 1.1.4</ref> आर्षेय ब्राह्मण का तिरुपति संस्करण 1967 में बी॰आर॰ शर्मा द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित है।  
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Revision as of 14:56, 15 June 2010

सामवेदीय ब्राह्मण के मध्य आर्षेय ब्राह्मण का चतुर्थ स्थान है। इसके प्रतिपाद्य के सन्दर्भ में, ग्रन्थारम्भ में कहा गया है- 'अथ खल्वयमार्षप्रदेशो भवति'[1] तदनुसार इसमें सामवेद के ॠषियों से सम्बद्ध विवरण है। नामधेय से भी यही स्पष्ट होता है, किन्तु व्यवहारत: न तो यह साम-गान के ॠषियों का कथन करता है और न ही ॠषि-गायकों की ही व्यापक सूची प्रस्तुत करता है। इसमें केवल गानों के नाम उनके प्रसिद्ध नामान्तरों के साथ प्रतत्त है। प्राय: गानों के नाम उन ॠषियों के नाम पर हैं, जिन्होंने उनकी योजना की है। अतएव आर्षेय ब्राह्मण का नामकरण इस दृष्टि से सार्थक है कि इसकी विषय-वस्तु ॠषियों से सम्बद्ध है। चार प्रकार के साम-गानों में से आर्षेय का सम्बन्ध मात्र प्रथम दो गानों-ग्रामगेय और अरण्यगेय से है, जो महानाम्न्यार्चिक के साथ मिलकर सामसंहिता के पूर्वार्चिक भाग के अन्तर्गत हैं। आर्षेय ब्राह्मण ऊह और ऊह्यगानों पर विचार नहीं करता। सामगानों का नामकरण प्राय: पाँच आधारों पर हुआ है, जिनके कारण गानों की पाँच कोटियाँ बन गई हैं। गानों का नामकरण जिन आधारों पर हुआ है, वें ये हैं-

  1. उन ॠषियों के नामों के आधार पर, जिन्होंने उनका साक्षात्कार किया, यथा-सैन्धुक्षित, औशन आदि।
  2. ॠक् के प्रारम्भिक पदों के आधार पर, जैसे विशोविशीय, यज्ञायज्ञीय आदि।
  3. निधन (गान का अन्त्यभाग) के आधार पर, जैसे-सुतं रयिष्ठीय, दावसुनिधन इत्यादि।
  4. प्रयोजनमूलक, जैसे संवर्ग, रक्षोघ्न इत्यादि।
  5. जो इनमें से किसी श्रेणी में नहीं आते, जैसे वीङ्क, इत्यादि।

इनमें से प्रथम कोटि के नाम ही उनके साक्षात्कर्ता ॠषियों के नामों पर प्रकाश डालते हैं। अन्य चार प्रकार के नामों की स्थिति इसके विपरीत है। इस कारण आर्षेय ब्राह्मण गानों के नाम देते समय उनके ॠषियों के नामों का भी उल्लेख कर देता है, यथा-'अग्नेवैंश्वानरस्य यज्ञायज्ञीयम्'[2], 'प्रजापते: सुतं रयिष्ठीये'[3], 'अग्नेवैंश्वानरस्य राक्षोघ्नमत्रैर्वा वसिष्ठस्य वीङ्कम्'[4] इत्यादि। इस सन्दर्भ में यह उल्लेख्य है कि कभी-कभी किसी गान के ॠषि का नामकरण उस गान के आधार पर दिखलाई देता है, जिसकी उसने योजना की। ऐसी स्थिति में उस ॠषि की प्रसिद्धि किसी उपनाम से हो जाती है और वास्तविक नाम विस्मरण के गर्त में निमग्न हो जाता है, किन्तु आर्षेय ब्राह्मण में उस ॠषि-नाम के साथ गोत्र-नाम का भी उल्लेख है, जैसे 'दावसुनिधन' गान के ॠषि हैं दावसु और 'हविष्मत्' गान के ॠषि हैं हविष्मान्; इन दोनों ॠषियों का नामकरण गानों के निधनभाग क्रमश: 'दावसू' 2345 और 'हविष्मते' 2345 के आधार पर हुआ है; किन्तु इन गानों का उल्लेख करते समय आर्षेय ब्राह्मण यह कहना नहीं भूलता कि प्रकृत गानद्रष्टा ॠषियों का सम्बन्ध अंगिरा गोत्र से है।

आर्षेय ब्राह्मण की रचना सूत्र-शैली में हुई है जो सामवेद के अनुब्राह्मणों की विशेषता है। आर्षेय ब्राह्मण में ग्रामगेयगानों का उल्लेख संहितोक्तक्रम से है। आर्षेय ब्राह्मण के अनुसार साम-गानों के ॠषि-नामों और उनके गोत्रों के ज्ञान से स्वर्ग, यश, धनादि फलों की प्राप्ति होती है-

ॠषीणां नामधेयगोत्रोपधारणम्।
स्वग्र्य यशस्यं धन्यं पुण्यं पुत्र्यं पशव्यं ब्रह्मवर्चस्यं स्मार्त्तमायुष्यम्[5]

इस ब्राह्मण का अध्ययन प्रात: प्रातराश से पूर्व होना चाहिए- 'प्राक् प्रातराशिकमित्याचक्षते'[6] आर्षेय ब्राह्मण का तिरुपति संस्करण 1967 में बी॰आर॰ शर्मा द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ग्रन्थारम्भ, 1.1.1
  2. आर्षेय ब्राह्मण 1.5.1
  3. आर्षेय ब्राह्मण 2.4.7
  4. आर्षेय ब्राह्मण 1.7.3
  5. आर्षेय ब्राह्मण 1.1.1-2
  6. आर्षेय ब्राह्मण 1.1.4

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