कल्पवास: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "संन्यास" to "सन्न्यास") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "सन्न्यासी" to "संन्यासी") |
||
Line 21: | Line 21: | ||
* भूमि शयन और इंद्रिय शमन | * भूमि शयन और इंद्रिय शमन | ||
* ब्रह्मचर्य पालन | * ब्रह्मचर्य पालन | ||
* जप, हवन, देवार्चन, अतिथि देव सत्कार, गो-विप्र | * जप, हवन, देवार्चन, अतिथि देव सत्कार, गो-विप्र संन्यासी सेवा, सत्संग, मुंडन एवं पितरों का तर्पण करना | ||
* सामान्यत: गृहस्थों के लिए तीन बार गंगा स्नान को श्रेयस्कर माना गया है। विरक्त साधू और | * सामान्यत: गृहस्थों के लिए तीन बार गंगा स्नान को श्रेयस्कर माना गया है। विरक्त साधू और संन्यासी भस्म स्नान अथवा धूलि स्नान करके भी स्वच्छ रह सकते हैं। कल्पवास गृहस्थ और सन्न्यास ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं। लेकिन उनका कल्पवास तभी पूर्ण होता है, जब वे सभी नियमों का पालन पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ करेंगे। कल्पवास का महत्व तमाम [[पुराण|पुराणों]] में भी वर्णित है। | ||
* माघ मास पर्यंत चलने वाले कल्पवास के दौरान शीत अपने प्रचंड रूप में होती है लेकिन हवन के समय को छोड़कर अग्नि सेवन पूर्णत: वर्जित है। | * माघ मास पर्यंत चलने वाले कल्पवास के दौरान शीत अपने प्रचंड रूप में होती है लेकिन हवन के समय को छोड़कर अग्नि सेवन पूर्णत: वर्जित है। | ||
* कल्पवास के दौरान गृहस्थों को शुद्ध रेशमी अथवा ऊनी, श्वेत अथवा पीत वस्त्र धारण करने की सलाह शास्त्र देते हैं। | * कल्पवास के दौरान गृहस्थों को शुद्ध रेशमी अथवा ऊनी, श्वेत अथवा पीत वस्त्र धारण करने की सलाह शास्त्र देते हैं। |
Latest revision as of 11:43, 3 August 2017
thumb|कल्पवास के दौरान रहने का स्थान कल्पवास का अर्थ होता है संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। प्रयाग के कुम्भ मेले में कल्पवास का अत्यधिक महत्व है। यह माघ के माह में और अधिक महत्व रखता है और यह पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है। कल्पवास को धैर्य, अहिंसा और भक्ति के लिए जाना जाता है और भोजन एक दिन में एक बार ही किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है।[1]
क्यों और कब से
कल्पवास वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। कल्पवास का विधान हज़ारों वर्षों से चला आ रहा है। जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था तब यह भूमि ऋषियों की तपोस्थली थी। प्रयाग में गंगा-यमुना के आसपास घना जंगल था। इस जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी। इस दौरान जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आया है वह पर्ण कुटी में रहता है। इस दौरान दिन में एक ही बार भोजन किया जाता है तथा मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभावपूर्ण रहा जाता है। पद्म पुराण में इसका उल्लेख है। संगम तट पर वास करने वाले को सदाचारी, शान्त मन वाला तथा जितेन्द्रिय होना चाहिए। कल्पवासी के मुख्य कार्य है:-
- तप
- होम (हवि)
- दान।
यहां झोपड़ियों (पर्ण कुटी) में रहने वालों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान के बाद संध्यावंदन से प्रारंभ होती है और देर रात तक प्रवचन और भजन-कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यों के साथ समाप्त होती है।[1]
माघ मास में विशेष महत्त्व
माघ मास में कल्पवास का विशेष महत्व है। माघकाल में संगम के तट पर निवास को 'कल्पवास' कहते हैं। वेदों यज्ञ-यज्ञदिक कर्म ही 'कल्प' कहे गये हैं। यद्यपि कल्पवास शब्द का प्रयोग पौराणिक ग्रन्थों में ही किया गया है, तथापि माघकाल में संगम के तट पर वास कल्पवास के नाम से अभिहित है। इस कल्पवास का पौष शुक्ल एकादशी से आरम्भ होकर माघ शुक्ल द्वादशी पर्यन्त एकमास तक का विधान है। कुछ लोग पौष पूर्णिमा से आरम्भ करते हैं। संयम, अहिंसा एवं श्रद्धा ही 'कल्पवास' का मूल है।[2]
कल्पवास की परंपरा
प्रयाग में कल्पवास की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। यहां त्रिवेणी तट पर कल्पवास हर वर्ष माघ मास के दौरान पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक किया जाता है। कुंभ और अर्धकुंभ मेले के अलावा यहां हर वर्ष माघ मेला होता है। कल्पवास माघ, कुंभ और अर्धकुंभ सभी अवसरों पर होता है। ‘कल्पवास’ के अर्थ के संदर्भ में विद्वानों के कई विचार सामने आते हैं। पौराणिक मान्यता है कि एक ‘कल्प’ कलि युग-सतयुग, द्वापर-त्रेता चारों युगों की अवधि होती है और प्रयाग में नियमपूर्वक संपन्न एक कल्पवास का फल चारों युगों में किये तप, ध्यान, दान से अर्जित पुण्य फल के बराबर होता है। हालांकि तमाम समकालीन विद्वानों का मत है कि ‘कल्पवास’ का अर्थ ‘कायाशोधन’ होता है, जिसे कायाकल्प भी कहा जा सकता है। संगम तट पर महीने भर स्नान-ध्यान और दान करने के उपरांत साधक का कायाशोधन या कायाकल्प हो जाता है, जो कल्पवास कहलाता है। अगर कुंभ के दौरान कल्पवास की परंपरा की बात की जाये, तो सबसे पहला उपलब्ध इतिहास चीनी यात्री ह्वेन-सांग के यात्रा विवरण में मिलता है। यह चीनी यात्री सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में (617-647 ई.) के दौरान भारत आया था। सम्राट हर्षवर्धन ने ह्वेन-सांग को अपना अतिथि बनाया था। सम्राट हर्षवर्धन उन्हें अपने साथ तमाम धार्मिक अनुष्ठानों में ले जाया करते थे। ह्वेन-सांग ने लिखा है, ‘सम्राट हर्षवर्धन हर पांच साल बाद प्रयाग के त्रिवेणी तट पर एक बड़े धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेते थे जहां वो बीते सालों में अर्जित अपनी सारी संपत्ति विद्वानों-पुरोहितों, साधुओं, भिक्षकों, विधवाओं और असहाय लोगों को दान कर दिया करते थे।’[3]
कल्पवास के नियम
thumb|कल्पवास के दौरान साधु खाना बनाते हुए दरअसल, कल्पवास एक प्रकार की साधना है, जो पूरे माघ मास के दौरान संगम और अन्य पवित्र नदियों के तट पर की जाती है। लेकिन इसके नियम इतने सरल नहीं हैं। कल्पवास स्वेच्छा से लिया गया एक कठोर संकल्प है। इसके प्रमुख नियम हैं-
- दिन में एक बार स्वयं पकाया हुआ स्वल्पाहार अथवा बिना पकाया हुआ फल आदि का सेवन करना। ताकि भोजन पकाने के चलते साधक हरि आराधना से विमुख न हो जाये।
- प्रमुख पर्वो पर उपवास रखना
- दिन भर में तीन बार गंगा, यमुना अथवा त्रिवेणी संगम में स्नान करना।
- त्रिकाल संध्या वंदन
- भूमि शयन और इंद्रिय शमन
- ब्रह्मचर्य पालन
- जप, हवन, देवार्चन, अतिथि देव सत्कार, गो-विप्र संन्यासी सेवा, सत्संग, मुंडन एवं पितरों का तर्पण करना
- सामान्यत: गृहस्थों के लिए तीन बार गंगा स्नान को श्रेयस्कर माना गया है। विरक्त साधू और संन्यासी भस्म स्नान अथवा धूलि स्नान करके भी स्वच्छ रह सकते हैं। कल्पवास गृहस्थ और सन्न्यास ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं। लेकिन उनका कल्पवास तभी पूर्ण होता है, जब वे सभी नियमों का पालन पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ करेंगे। कल्पवास का महत्व तमाम पुराणों में भी वर्णित है।
- माघ मास पर्यंत चलने वाले कल्पवास के दौरान शीत अपने प्रचंड रूप में होती है लेकिन हवन के समय को छोड़कर अग्नि सेवन पूर्णत: वर्जित है।
- कल्पवास के दौरान गृहस्थों को शुद्ध रेशमी अथवा ऊनी, श्वेत अथवा पीत वस्त्र धारण करने की सलाह शास्त्र देते हैं।
- कल्पवास सभी स्त्री एवं पुरुष बिना किसी भेदभाव के कर सकते हैं।
- विवाहित गृहस्थों के लिए नियम है कि पति-पत्नी दोनों एक साथ कल्पवास करें। विधवा स्त्रियां अकेले कल्पवास कर सकती हैं।
- शास्त्रों के अनुसार इस प्रकार का आचरण कर मनुष्य अपने अंत:करण एवं शरीर दोनों का कायाकल्प कर सकता है।
- एक कल्पवास का पूर्ण फल मनुष्य को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त कर कल्पवासी के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।[3]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 इलाहाबाद कुम्भ मेला : क्या होता है कल्पवास? (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 11 जनवरी, 2013।
- ↑ प्रयागवास-कल्पवास (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) अर्द्ध कुम्भ 2007 इलाहाबाद। अभिगमन तिथि: 11 जनवरी, 2013।
- ↑ 3.0 3.1 कायाशोधन की साधना (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) प्रभात खबर। अभिगमन तिथि: 11 जनवरी, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख