कंचनजंघा: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 20 July 2018
thumb|250px|कंचनजंघा कंचनजंगा सिक्किम-नेपाल सीमा पर 28,146 फुट ऊँचा, गौरीशंकर (एवरेस्ट) पर्वत के बाद विश्व का दूसरा सर्वोच्च पर्वत शिखर है। इस पर्वत की भूगर्भीय स्थिति हिमालय की मुख्य श्रेणी के सदृश है। यह तिब्बत एवं भारत की जल विभाजक रेखा के दक्षिण में स्थित है। इसीलिए इसकी उत्तरी ढाल की नदियाँ भी भारतीय मैदान में गिरती हैं। कंचनजंगा तिब्बती शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'महान हिमानियों के पाँच अतिक्रमण' है, जो इसकी पाँच चोटियों से संबंधित है। इसका दूसरा नाम 'कोंगलोचु' है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'बर्फ़ का सर्वोच्च पर्दा' है।[1]
नामकरण
'कंचनजंघा' नाम की उत्पत्ति तिब्बती मूल के चार शब्दों से हुई है, जिन्हें आमतौर पर 'कांग-छेन्-द्जो-न्गा' या 'यांग-छेन-द्जो-न्गा' लिखा जाता है। सिक्किम में इसका अर्थ 'विशाल हिम की पाँच निधियाँ' लगाया जाता है। कंचनजंघा नेपाली में 'कुंभकरण लंगूर' कहलाता है। यह विश्व का दूसरा सबसे ऊँचा पहाड़ (8,586 मीटर) है।
स्थिति
यह पर्वत दार्जिलिंग से 74 किलोमीटर उत्तर-पश्चिमोत्तर में स्थित है। कंचनजंघा सिक्किम व नेपाल की सीमा को छूने वाले भारतीय प्रदेश में हिमालय पर्वतश्रेणी का एक हिस्सा है। इसका आकार एक विशालकाय सलीब के रूप में है, जिसकी भुजाएँ उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में स्थित हैं। अलग-अलग खड़े शिखर अपने निकटवर्ती शिखर से चार मुख्य पर्वतीय कटकों के द्वारा जुड़े हुए हैं, जिनसे होकर चार हिमनद बहते हैं-
- जेमु (पूर्वोत्तर)
- तालुंग (दक्षिण-पूर्व)
- यालुंग (दक्षिण-पश्चिम)
- कंचनजंघा (पश्चिमोत्तर)
पौराणिक कथाओं और स्थानीय निवासियों के धार्मिक अनुष्ठानों में इस पर्वत का महत्त्वपूर्ण स्थान है और इसकी ढलान किसी प्राथमिक सर्वेक्षण से सदियों पहले चरवाहों और व्यापारियों के लिए जानी-पहचानी थी।
मानचित्र
कंचनजंघा का पहला परिपथात्मक मानचित्र 19वीं शताब्दी के मध्य में एक विद्वान् अन्वेषणकर्ता रिनज़िन नामग्याल ने तैयार किया था। 1848 व 1849 में एक वनस्पतिशास्त्री सर जोज़ेफ़ हुकर इस क्षेत्र में आने वाले और इसका वर्णन करने वाले पहले यूरोपीय थे। 1899 में अन्वेषणकर्ता-पर्वतारोही डगलस फ़्रेशफ़ील्ड ने इस पर्वत की परिक्रमा की थी। 1905 में एक एंग्लो-स्विस दल ने प्रस्तावित यालुंग घाटी मार्ग से जाने का प्रयास किया और इस अभियान में हिमस्खलन होने से दल के चार सदस्यों की मृत्यु हो गई। thumb|250px|कंचनजंघा
अन्य हिस्सों की खोज
बाद में पर्वतारोहियों ने इस पर्वत समूह के अन्य हिस्सों की खोज की। 1929 और 1931 में पॉल बोएर के नेतृत्व में एक बवेरियाई अभियान दल ने ज़ेमू की ओर से इस पर चढ़ाई का असफल प्रयास किया। इन अन्वेषणों के दौरान 1931 में उस समय तक हासिल की गई सर्वाधिक ऊँचाई 7,700 मीटर थी। इन अभियानों में से दो के दौरान घातक दुर्घटनाओं ने इस पर्वत को असामान्य रूप से ख़तरनाक और कठिन पर्वत का नाम दे दिया। इसके बाद 1954 तक इस पर चढ़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया, फिर नेपाल स्थित यालुंग की ओर से इस पर ध्यान केन्द्रित किया गया। 1951, 1953 और 1954 में गिलमोर लेविस की यालुंग यात्राओं के फलस्वरूप 1955 में रॉयल जिओग्रैफ़िकल सोसाइटी और एल्पाइन क्लब (लन्दन) के तत्वाधान में चार्ल्स इवान के नेतृत्व में ब्रिटिश अभियान दल ने इस पर चढ़ने का प्रयास किया और वे सिक्किम के लोगों के धार्मिक विश्वासों एवं इच्छाओं का आदर करते हुए मुख्य शिखर से कुछ क़दम की दूरी पर ही रुक गए। thumb|550px|center
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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