कंठार्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 12:00, 20 July 2018
कंठार्ति स्वरयंत्र का रोग है। इसमें स्वरयंत्र की श्लेष्मिक कला फूल जाती है और उसमें एक लसदार पदार्थ (श्लेष्मा) निकलने लगता है।
कारण
इस रोग के होने की संभावना प्राय: सर्दी लग जाने, पानी में भीगने, गले में धूल के कण या धुआँ जाने, जोर से गाना गाने या व्याख्यान देने से तथा उन सभी अवस्थाओं से जिनमें स्वरयंत्रों का प्रयोग अधिक किया जाता है, बढ़ जाती है। यह अनुभव हुआ है कि यदि शीत लग जाने के बाद स्वरयंत्र का अधिक प्रयोग किया जाता है तो 'कंठार्ति' के लक्षण प्राय: उत्पन्न हो जाते हैं। अकस्मात् हवा की गति बदल जाने से, या दूषित वायुवाले स्थान में अधिक समय तक रहने से भी, कंठार्ति के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। कंठार्ति के लक्षण आंत्रिक ज्वर, शीतला, फुफ्फ़सी यक्ष्मा, मसूरिका, रोमांतिका आदि रोगों में भी पाए जाते हैं।[1]
लक्षण
- इस रोग में रोगी का गला खरखराने लगता है और उसमें पीड़ा तथा जलन जान पड़ती है। सूखी खाँसी के साथ कड़ी श्लेष्मा निकलती है।
- किसी-किसी रोगी को थोड़ा या अधिक ज्वर भी रहता है। भूख प्यास नहीं लगती।
- कंठार्ति में स्वरतार रक्त एवं शोथयुक्त हो जाते हैं जिसके कारण बोलने में रोगी को कष्ट होता है।
- कभी-कभी रोग की तीव्रता के कारण स्वर पूर्ण रूप से बंद हो जाता है और साँस लेने में भी कष्ट होता है।
- बच्चों में कंठार्ति बहुधा उग्र रूप धारण कर लेती है, इसलिए उनमें कंठार्ति होने पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। [1]
उपचार
रोग की दशा में रोगी को पूर्ण रूप से शैया पर आराम करना चाहिए। उसका कक्ष प्रकाशयुक्त तथा सुखद होना चाहिए। जाड़े के दिनों में अग्नि या अन्य साधनों से उसे उष्ण रखना अच्छा है, परंतु अग्नि का प्रयोग करने पर इसका ध्यान रखना चाहिए कि आग से निकली गैस चिमनी से बाहर चली जाए, कक्ष में न फैले। स्वरयंत्र का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। रोगी की ग्रीवा को सेंकना चाहिए और गले को किसी कपड़े से लपेट कर रखना चाहिए। आंतरिक सेंक के लिए रोगी को वाष्प में श्वास लेना चाहिए।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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