छिन्नमस्तिका मंदिर: Difference between revisions

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==निर्माण==
==निर्माण==
इस मंदिर का निर्माण लगभग छः हज़ार [[वर्ष]] पहले हुआ था। मंदिर में आसपास प्राचीन ईंट, पौराणिक मूर्ति एवं यज्ञ कुंड एवं पौराणिक साक्ष्य थे, जो नष्ट हो गये थे या भूमिगत हो गये। छः हज़ार वर्ष पहले मंदिर में माँ छिन्नमस्तिका की जो मूर्ति है, वह पूर्व काल में स्वतः अनूदित हुई थी। इस मंदिर का निर्माण [[वास्तुकला]] के हिसाब से किया गया है। इसके गोलाकार गुम्बद की शिल्प कला [[असम]] के 'कामाख्या मंदिर' के शिल्प से मिलती है। मंदिर में सिर्फ एक द्वार है।<ref name="aa">{{cite web |url= http://www।jharkhandnewsline।in/?p=24107|title= माँ छिन्नमस्तिका का मंदिर|accessmonthday= 27 सितम्बर|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=झारखण्ड न्यूजलाइन|language= हिन्दी}}</ref>
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==माँ की प्रतिमा==
==माँ की प्रतिमा==
मंदिर के अन्दर शिलाखंड में माँ की तीन [[आँख|आँखें]] हैं। इनका गला सर्पमाला और मुंडमाल से शोभित है। खुले बाल, जिह्या बाहर, [[आभूषण|आभूषणों]] से सजी माँ नग्नावस्था में हैं। दाएं हाथ में तलवार और बाएं हाथ में अपना कटा मस्तक है। इनके दोनों ओर '[[डाकिनी]]' और 'शाकिनी' खड़ी हैं, जिन्हें वह रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी ऐसा कर रही हैं। इनके गले से [[रक्त]] की तीन धाराएं फूटती हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर है। सामने बलि स्थान है, जहाँ रोजाना बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। यहाँ मुंडन कुंड भी है। पापनाशिनी कुंड भी है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त करता है।
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Latest revision as of 11:10, 9 February 2021

छिन्नमस्तिका मंदिर
वर्णन 'छिन्नमस्तिका मंदिर' झारखंड के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह शक्तिपीठ होने के साथ-साथ पर्यटन का मुख्य केंद्र भी है।
स्थान रजरप्पा, झारखंड
निर्माण काल लगभग छह हज़ार वर्ष पूर्व।
देवी-देवता हज़ारों साल पहले राक्षसों एवं दैत्यों से मानव एवं देवता आतंकित थे। तब मानव माँ शक्ति को याद करने लगे। तब पार्वती (शक्ति) का 'छिन्नमस्तिका' के रूप में अवतरण हुआ।
भौगोलिक स्थिति रांची से क़रीब 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में।
संबंधित लेख शक्तिपीठ
अन्य जानकारी झारखंड में आदिवासियों एवं स्थानीय जनजातियों में संथाली देवी छिन्नमस्तिका हैं। दुर्गा पूजा के दिन सबसे पहले आदिवासियों द्वारा लाये गए बकरे की बलि दी जाती है।

छिन्नमस्तिका मंदिर झारखंड की राजधानी रांची से क़रीब 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में स्थित है। यह भारत के सर्वाधिक प्राचीन मन्दिरों में से एक है। भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिका के दिव्य स्वरूप का दर्शन होता है। असम स्थित माँ कामाख्या मंदिर के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ है। यहाँ विवाह आदि भी सम्पन्न कराये जाते हैं।

निर्माण

इस मंदिर का निर्माण लगभग छह हज़ार वर्ष पहले हुआ था। मंदिर में आसपास प्राचीन ईंट, पौराणिक मूर्ति एवं यज्ञ कुंड एवं पौराणिक साक्ष्य थे, जो नष्ट हो गये थे या भूमिगत हो गये। छह हज़ार वर्ष पहले मंदिर में माँ छिन्नमस्तिका की जो मूर्ति है, वह पूर्व काल में स्वतः अनूदित हुई थी। इस मंदिर का निर्माण वास्तुकला के हिसाब से किया गया है। इसके गोलाकार गुम्बद की शिल्प कला असम के 'कामाख्या मंदिर' के शिल्प से मिलती है। मंदिर में सिर्फ एक द्वार है।[1]

माँ की प्रतिमा

मंदिर के अन्दर शिलाखंड में माँ की तीन आँखें हैं। इनका गला सर्पमाला और मुंडमाल से शोभित है। खुले बाल, जिह्या बाहर, आभूषणों से सजी माँ नग्नावस्था में हैं। दाएं हाथ में तलवार और बाएं हाथ में अपना कटा मस्तक है। इनके दोनों ओर 'डाकिनी' और 'शाकिनी' खड़ी हैं, जिन्हें वह रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी ऐसा कर रही हैं। इनके गले से रक्त की तीन धाराएं फूटती हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर है। सामने बलि स्थान है, जहाँ रोजाना बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। यहाँ मुंडन कुंड भी है। पापनाशिनी कुंड भी है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त करता है।

पूजा

मां छिन्नमस्तिका की प्रथम पूजा आरती, चावल, गुड़, घी और कपूर से की जाती है। दोपहर में 12 बजे में खीर का भोग लगता है। भोग के समय मंदिर का द्वार कुछ समय के लिए बंद रहता है। संध्या काल में श्रृंगार के समय पूजा होती है। आरती के पश्चात्‌ मंदिर का द्वार बंद कर दिया जाता है। सिर्फ अमावस्या और पूर्णिमा को मध्य रात्रि तक मंदिर खुला रहता है।

छिन्नमस्तिका की उत्पत्ति

हज़ारों साल पहले राक्षसों एवं दैत्यों से मानव एवं देवता आतंकित थे। उसी समय मानव माँ शक्ति को याद करने लगे। तब पार्वती (शक्ति) का 'छिन्नमस्तिका' के रूप में अवतरण हुआ। छिन्नमस्तिका का दूसरा नाम 'प्रचण्ड चण्डिका' भी है। फिर माँ छिन्नमस्तिका खड़ग से राक्षसों-दैत्यों का संहार करने लगीं। यहां तक कि भूख-प्यास का भी ख्याल नहीं रहा, सिर्फ पापियों का नाश करना चाहती थीं। रक्त की नदियां बहने लगीं। पृथ्वी में हाहाकार मच गया। माँ अपना प्रचण्ड रूप धारण कर कर चुकी थीं। पापियों के अलावा निर्दोषों का भी वध करने लगीं। तब सभी देवता प्रचण्ड शक्ति से घबड़ाकर भगवान शिव के पास गये और शिव से प्रार्थना करने लगे कि माँ छिन्नमस्तिका का प्रचण्ड रूप को रोकें, नहीं तो पृथ्वी पर उथल-पुथल हो जायेगी।[1]

देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव माँ छिन्नमस्तिका के  पास पहुंचे। माँ छिन्नमस्तिका भगवान शिव को देखकर बोली- "हे नाथ! मुझे भूख सता रही है। अपनी भूख कैसे मिटाऊं?" भगवान शिव ने कहा कि- "आप पूरे ब्रह्माण्ड की देवी हैं। आप तो खुद एक शक्ति हैं। तब भगवान शिव ने उपाय बताया कि आप अपनी गर्दन को खड़ग से काटकर निकलते हुए 'शोनित' (रक्त) को पान करें तो आपकी भूख मिट जायेगी।" तब माँ छिन्नमस्तिका ने शिव की बात सुनकर तुरंत अपनी गर्दन को खड़ग से काटकर सिर को बाएं हाथ में ले लिया। गर्दन और सिर अलग हो जाने से गर्दन से खून की तीन धाराएं निकलीं, जो बाएं-दाएं 'डाकिनी'-'शाकिनी' थीं। दो धाराएं उन दोनों की मुख में चली गयीं तथा बीच में तीसरी धारा माँ के मुख में चली गयी, जिससे माँ तृप्त हो गयीं।

तांत्रिक केंद्र

असम में 'मां कामरूप कामाख्या' एवं बंगाल में 'मां तारा' के बाद झारखंड का 'मां छिन्नमस्तिका मंदिर' तांत्रिकों का मुख्य स्थान है। यहां देश-विदेश के कई साधक अपनी साधना करने 'नवरात्रि' एवं प्रत्येक माह की अमावस्या की रात्रि में आते हैं। तंत्र साधना द्वारा माँ छिन्नमस्तिका की कृपा प्राप्त करते हैं।

भैरवी नदी का जल

भैरवी नदी का जल वाराणसी एवं हरिद्वार के जल की तरह पवित्र है। क्योंकि गंगा में स्नान करने के बाद मनुष्य अपने आपको शुद्धीकरण कर भगवान शिव के दर्शन करते हैं। देश-विदेश से आने वाले माँ छिन्नमस्तिका के भक्त भैरवी नदी के जल से स्नान करने के बाद अपने आपको पवित्र कर माँ छिन्नमस्तिका का दर्शन करते हैं।

आदिवासियों द्वारा पूज्य

झारखंड में आदिवासियों एवं स्थानीय जनजातियों में संथाली देवी छिन्नमस्तिका हैं। दुर्गा पूजा के दिन सबसे पहले आदिवासियों द्वारा लाये गए बकरे की बलि दी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में जब मुग़लों का शासन था, तब वे कई बार छिन्नमस्तिका पर आक्रमण कर मंदिर को ध्वस्त करना चाहते थे, पर वे सफल नहीं हो पाये। धर्मग्रंथों में ऐसी चर्चा है कि अकबर को जब छिन्नमस्तिका के बारे में मालूम हुआ तो वे भी अपनी पत्नी के साथ छिन्नमस्तिका के दर्शन करने आये। जब भारत में ब्रिटिश शासन था, उस वक्त कई अंग्रेज़ माँ छिन्नमस्तिका का दर्शन करने आते थे।[1]

अन्य स्थल

मां छिन्नमस्तिका के मंदिर के थोड़ी दूर पर दस महाविद्या का मंदिर है। देवियों के अलग-अलग नवनिर्मित मंदिर एक ही पंक्ति में स्थापित हैं। मंदिर के सामने दक्षिण दिशा से भैरवी नदी आकर दामोदर नदी में आकर गिरती है। दामोदर नदी मंदिर के बराबर से पश्चिम दिशा में आकर बहती है। भंडारदह के निकट ही माँ छिन्नमस्तिका के लिए सिढ़ियां बनी हुई हैं। इसको 'तांत्रिक घाट' कहते हैं। मंदिर के द्वार के निकट बलि स्थल है, लेकिन माँ के चमत्कार से बलि स्थल पर एक भी मक्खी नहीं बैठती है। यहां बकरे की हज़ारों बलि चढ़ाई जाती हैं। भैरवी को पैदल पार करके शंकर मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

कैसे पहुंचें

पचास वर्ष पहले तक यहाँ चारों तरफ़ घनघोर जंगल था, लेकिन आज आसपास ग्राम का विस्तार हो चुका है एवं तीन कि.मी. पर ही रजरप्पा प्रोजेक्ट है। अब तो मंदिर तक जाने के लिए पक्की सड़क बन गयी है। सुबह से शाम तक मंदिर तक पहुंचने के लिए बस, टैक्सियां एवं ट्रेकर उपलब्ध हैं।

छिन्नमस्तिका मंदिर के निकट ठहरने के लिए उत्तम व्यवस्था है। यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है। यहां पर फिल्मों की शूटिंग भी होती है। पहाड़, जंगल एवं नदियां, आम, महुआ, सखुआ, पलाश, करंज आदि के हरे-भरे प्राकृतिक वृक्ष हैं। जंगलों में अभी भी बाघ, हिरण, चीता, शेर, भालूहाथी तथा कुछ जंगली जानवरों का बसेरा है। माँ छिन्नमस्तिका मंदिर एक शक्तिपीठ के साथ-साथ पर्यटन का मुख्य केंद्र भी है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 माँ छिन्नमस्तिका का मंदिर (हिन्दी) झारखण्ड न्यूजलाइन। अभिगमन तिथि: 27 सितम्बर, 2014।

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