रसरतन -पुहकर कवि

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पुहकर कवि जहाँगीर के समय में थे। कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें आगरा में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने 'रसरतन' नामक ग्रंथ संवत् 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया।

प्रबंधकाव्य

इस ग्रंथ में रंभावती और सूरसेन की प्रेमकथा कई छंदों में, जिनमें मुख्य दोहा और चौपाई है, प्रबंधकाव्य की साहित्यिक पद्धति पर लिखी गई। कल्पित कथा लेकर प्रबंधकाव्य रचने की प्रथा पुराने हिन्दी कवियों में बहुत कम पाई जाती है। जायसी आदि सूफी शाखा के कवियों ने ही इस प्रकार की पुस्तकें लिखी हैं, पर उनकी परिपाटी बिल्कुल भारतीय नहीं थी। इस दृष्टि से 'रसरतन' को हिन्दी साहित्य में एक विशेष स्थान देना चाहिए।

भाषा शैली

इसमें संयोग और वियोग की विविधा दशाओं का साहित्य की रीति पर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के हैं जिस ढंग के श्रृंगार के मुक्तक कवियों ने किए हैं। पूर्वराग, सखी, मंडन, नखशिख, ऋतुवर्णन आदि श्रृंगार की सब सामग्री एकत्र की गई है। कविता सरस और भाषा प्रौढ़ है। इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं। पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते हैं। इनकी रचना की शैली सरस है -

चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता
बनी बागरी रूप राजंत दंता। मनौ बग्ग आसाढ़ पाँतैं उदंता
लसैं पीत लालैं, सुढालैं ढलक्कैं। मनों चंचला चौंधिा छाया छलक्कैं

चंद की उजारी प्यारी नैनन तिहारे, परे
चंद की कला में दुति दूनी दरसाति है।
ललित लतानि में लता सी गहि सुकुमारि
मालती सी फूलैं जब मृदु मुसुकाति है
पुहकर कहै जित देखिए विराजै तित
परम विचित्र चारु चित्र मिलि जाति है।
आवै मन माहि तब रहै मन ही में गड़ि,
नैननि बिलोके बाल नैननि समाति है



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 5”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 162।

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