मालवा (आज़ादी से पूर्व)

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1310 ई. में अलाउद्दीन ने मालवा को अपने अधिकार में कर लिया। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के समय में लगभग 1390 ई. में दिलावर ख़ाँ मालवा का सूबेदार बनाया गया। 1401 ई. में मालवा को स्वतंत्र घोषित कर वह वहाँ का स्वाधीन शासक बना। उसने धार को अपनी राजधानी बनाया। उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। 1405 ई. में दिलावर ख़ाँ की मृत्यु एवं तैमूर के भारत से वापस चले जाने पर दिलावर ख़ाँ का पुत्र ‘अलप ख़ाँ’ हुशंगशाह की उपाधि धारण कर 1405 ई. में मालवा का सुल्तान बना।

हुशंगशाह (1408-1468 ई.)

हुशंगशाह ने अपनी राजधानी को धार से मांडू को स्थानान्तरित की। धर्मनिरपेक्ष नीति का पालन करते हुए उसने प्रशासन में अनेक राजपूतों को शामिल किया| नरदेव सोनी (जैन) हुसंगशाह के प्रशासन में ख़ज़ांची था। उसके समय में ‘ललितपुर मंदिर’ का निर्माण किया। हुशंगशाह महान विद्वान और रहस्यवादी सूफ़ी सन्त शेख़ बुरहानुद्दीन का शिष्य था। 1435 ई. में अलप ख़ाँ की मृत्यु के बाद उरका पुत्र गजनी ख़ाँ मुहम्मदशाह की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा। उसकी अयोग्यता के कारण इसके वज़ीर महमूद ख़ाँ ने उसे अपदस्थ कर ‘महमूदशाह’ की उपाधि धारण कर और गद्दी पर बैठा।

महमूद ख़िलजी (1436-1468 ई.)

महूदशाह ख़िलजी ने 1436 ई. में मालवा में ख़िलजी वंश की नींव डाली। महमूदशाह एक पराक्रामी शासक था, उसने मेवाड़ के राणा कुम्भा के विरूद्ध अभियान में सफलता का दावा किया तथा मांडु में सात मंज़िला विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया। दूसरी तरफ़ राणा कुम्भा ने अपनी विजय का दावा करते हुए विजय की स्मृति में चित्तौड़ में विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया। महमूदशाह ने मांडू में सात मंजिलो वाले महल का निर्माण करवाया। निसन्देह महमूद ख़िलजी मालवा के मुस्लिम शासको में सबसे योग्य था। मिस्र के ख़लीफ़ा ने उसका पद स्वीकार किया। महमूद ख़िलजी ने सुल्तान अबू सईद के यहाँ से आये एक दूतमंडल का स्वागत किया। फ़रिश्ता उसके गुणो की प्रशंसा करते हुए उसे न्यायी एवं प्रजाप्रिय सम्राट बताता है। कोई भी ऐसा वर्ष नहीं बीतता था, जिसमें वह युद्ध नहीं करता रहा हो। फलस्वरूप उसका ख़ैमा उसका घर बन गया तथा युद्धक्षेत्र उसका विश्राम स्थल। उसने व्यापार वाणिज्य की उन्नति के लिए जैन पूँजीपतियों को संरक्षण दिया। माण्डू में एक चिकित्सालय तथा एक आवासीय विद्यालय बनवाया। उसने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार दक्षिड़ में सतपुड़ा, पश्चिम में गुजरात की सीमाओं, पूरब में बुंदेलखण्ड और उत्तर में मेवाड़ एवं बूँदी तक विस्तृत किया। 1469 में महमूदशाह की मृत्यु हो गयी।

ग़यासुद्दीन (1469-1500 ई.)

1469 ई. में महमूदशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ग़यासुद्दीन गद्दी पर बैठा। 1500 ई. के लगभग ग़यासुद्दीन को उसके पुत्र ने ज़हर देकर मार दिया।

अब्दुल कादिर नासिरुद्दीनशाह (1500-1510 ई.)

ग़यासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अब्दुल कादिर नासिरुद्दीनशाह की उपाधि धारण कर मालवा की गद्दी पर बैठा। बुख़ार के कारण 1512 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद इस वंश का अन्तिम शासक 'आजम हुमायूँ', महमूदशाह द्वितीय की उपाधि ग्रहण कर सिंहासन पर बैठा। उसने अमीरों के षडयंत्र से बचने के लिए चन्देरी के राजपूशात सक मेदनी राय को अपना वज़ीर नियुक्त किया। गुजरात के बहादुरशाह ने महमूदशाह द्वितीय को युद्ध में परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इसी के साथ 1531 ई. में मालवा का गुजरात में विलय हो गया। अन्तिम रूप से मालवा को मुग़लों ने बाजबहादुर से जीत लिया।


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