गांधी का करुण रस - विद्यानिवास मिश्र

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गांधी का करुण रस - विद्यानिवास मिश्र
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक गांधी का करुण रस
प्रकाशक सत्साहित्य प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 4 मार्च, 2003
ISBN 81-7721-048-3
देश भारत
पृष्ठ: 127
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

गांधी का करुण रस हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

गांधी जी ने स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी और भारत के स्वाधीन हो जाने पर उन्हें विषाद ने घेरा कि मैं इस स्वतन्त्र भारत की कुछ दिशा निर्देश नहीं दे सकता मैं अप्रासंगिक हो गया हूँ। क्या अपने जीवन की एक निरंतर मंथन बनानेवाला गांधी जैसा आदमी आप्रसंगिक हो सकता है? केवल भारत के लिए नहीं विश्वमात्र के लिए? और पशुबल के आगे हार न माननेवाला एक व्यक्ति स्वजनों से ऐसे हार मानने के लिए ऐसे विवश होगा? मुझे तो ऐसा लगता है कि हरिलाल गांधी का जीवन हरिलाल की त्रासदी नहीं गांधी जी की त्रासदी है-और शायद यह भारत की ही त्रासदी है। भारत जीतकर हारता रहा है हारकर जीतता रहा है। इसकी संस्कृति की बुनावट में कहीं गहरी करुणा के बाज हैं। भारत की अद्भुद क्षमता है त्याग की- और इसी मात्रा में उसके लोभ की प्रबलता भी है। यह लोभ कभी-कभी धर्म का लोभ होता है, प्रतिष्ठा का लोभ होता हमें हमेशा मारता है-चाहे जौहर के रूप में मारता रहा हो या पंचशील के उपदेष्टा के रूप में। ऐसी जटिल संरचना वाले भारत के विकास के बारे में कोई भी कल्पना करें उसमें गांधी को अलग नहीं कर सकते, युधिष्ठिर को अलग नहीं कर सकते, राम और कृष्ण को अलग नहीं कर सकते, नवजात बच्चे के साथ सोई हुई यशोधरा को त्यागने वाले महानिष्क्रमण के लिए प्रस्थित बुद्ध को अलग नहीं कर सकते, तितिक्षा का पाठ पढ़ाने वाले उन महावीर के चिंतन को अलग नहीं कर सकते जो सबसे अधिक धन और धन के भोग को आकृष्ट करता है।

भूमिका

इधर गांधी की पीड़ा के विषय बहुत मथते रहे। शिक्षा के प्रश्न पर, संयत जीवन के प्रश्न पर, स्वावलंबन की आवश्यकता के प्रश्न पर और जीवन को धारण करने वाले विशाल धर्म के प्रश्न पर। गांधीजी ने आज के जीवन-मरण के प्रश्नों पर शताब्दी पूर्व लगभग सोचा, पर वे अनसुने रह गए। गांधीजी को इसका बड़ा मलाल था, मैं दो व्यक्तियों को नहीं समझ पाया-जिन्ना को और अपने बड़े छोटे हरिलाल को। दोनों महत्वाकांक्षा की बलिवेदी पर चढ़ गए और अपने जीवन की सही दिशा से ठीक उलटे मुड़ गए। दोनों गांधी के पथ के अनुगामी थे, दोनों प्रतिगामी हो गए। पर हरिलाल के जीवन के बहाव का गांधी पर बहुत गहरा असर पड़ा। मैं उस युगद्रष्टा के विषाद को आज के आलोक में समझना चाहता हूँ। मुझसे कभी श्री रामचंद्र गांधी ने कहा था (मैंने उनसे कहा-गांधी का आना युधिष्ठिर की वापसी है। इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा था) गांधीजी अर्जुन की वापसी हैं। अजुर्न की तरह बराबर प्रश्न छेड़ने वाले, अपने भीतर और बाहर व्याप्त विराट् देवता से उत्तर माँगने वाले, जीवन को प्रयोगशाला बनाने के लिए सदैव तैयार। आज के धुंध भरे वातावरण में इन प्रश्नों से टकराना बड़े जोखिम का काम है। लोग ऐसे प्रश्नों से कतराना चाहते हैं, जीवन की सुविधाओं के छूटने से डरते हैं, क्योंकि बड़े प्रश्न से टकराने के लिए सुविधाएँ अपने आप खिसकने लगती हैं। मैं यह जोखिम उन लोगों की ओर से उठा रहा हूँ, जो स्वाधीनता के प्रसाद का चूरा भी नहीं पा सके और चरणामृत भी उन तक पहुँचते पहुँचते टोंटी का जल हो गया। वे लोग साक्षार हुए तो अधूरे, सफल भी हुए तो कई तरह से विपन्न। उनकी ठीक पद्धति किस आधार पर सहस्राब्दियों तक टिकी रही, वे आधार आज भी हैं, कुछ उघाड़ हो जाने के कारण कमज़ोर ज़रूर हो गए हैं। उन आधारों की बात गांधी के व्याज से न की जाये तो किस व्याज से।
मेरे इन विचारों में से कुछ श्रृंखलाबद्ध रूप में साल-डेढ़ साल से ‘साहित्य अमृत’ में छपते रहे हैं। ये लोगों को रुलाने के लिए नहीं, लोगों को खिझाने के लिए भी नहीं और रिझाने के लिए या मंचीय, प्रस्तुति के लिए नहीं, बस इसलिए कि कैसी भी उतावली हो, कहीं रुककर कहाँ चले जा रहे हैं, इसपर विचार कर लेना आज बहुत आवश्यक हो गया है। यह आराम नहीं है, यह सावधानी का विराम है। एक घड़ी हमारे साथ भी हो लें। बस इतना ही। -विद्यानिवास मिश्र[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गांधी का करुण रस (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 7 अगस्त, 2014।

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