Difference between revisions of "चालुक्य साम्राज्य"

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('दक्षिणापथ मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। जब मौर्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
Line 7: Line 7:
 
#[[पुलकेशी द्वितीय]]
 
#[[पुलकेशी द्वितीय]]
 
#[[विक्रमादित्य प्रथम]] (655--681)
 
#[[विक्रमादित्य प्रथम]] (655--681)
यद्यपि पल्लवराज नरसिंह वर्मा से युद्ध करते हुए पुलकेशी द्वितीय की मृत्यु हो गई थी, और वातापी पर भी पल्लवों का अधिकार हो गया था, पर इससे चालुक्यों की शक्ति का अन्त नहीं हो गया। पुलकेशी द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विक्रमादित्य प्रथम चालुक्यों का अधिपति बना। वह अपने पिता के समान ही वीर और महात्वाकांक्षी था। उसने न केवल वातापी को पल्लवों की अधीनता से मुक्त किया, अपितु तेरह वर्षों तक निरन्तर युद्ध करने के बाद पल्लवराज की शक्ति को बुरी तरह कुचलकर 654 ई. में काञ्जी की भी विजय कर ली। काञ्जी को जीतकर उसने चाले, पांड्य और केरल राज्यों पर आक्रमण किया, और उन्हें अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया।
+
#[[विनयादित्य]]
 
+
#[[विजयादित्य]]
=====विक्रमादित्य द्वितीय====
+
#[[विक्रमादित्य द्वितीय]]
विक्रमादित्य प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विनयादित्य वातापी साम्राज्य का स्वामी बना। उसके समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति अक्षुण्ण बनी रही। विनयादित्य के बाद उसका पुत्र विजयादित्य और फिर विक्रमादित्य द्वितीय (733--744) वातापी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। पल्लवों को अपनी अधीनता में रखने के लिए विक्रमादित्य ने अनेक युद्ध किए, और फिर काञ्जी पर क़ब्ज़ा किया। पर इस प्रतापी राजा के शासन काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना अरबों का भारत आक्रमण है। 712 ई. में अरबों ने सिन्ध को जीतकर अपने अधीन कर लिया था, और स्वाभाविक रूप से उनकी यह इच्छा थी, कि भारत में और आगे अपनी शक्ति का विस्तार करें। उन्होंने लाटदेश पर आक्रमण किया, जो इस समय चालुक्य साम्राज्य के अंतर्गत था। पर विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण उन्हें अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली, और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।
+
#[[कीर्तिवर्मा द्वितीय]]
 
+
==चालुक्य शक्ति का अन्त==
====चालुक्य शक्ति का अन्त====
+
[[विक्रमादित्य द्वितीय]] के बाद 744 ई. के लगभग [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। [[दन्तिदुर्ग]] नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर [[महाराष्ट्र]] में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।  
विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 744 ई. के लगभग कीर्तिवर्मा, द्वितीय विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। दन्तिदुर्ग नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर महाराष्ट्र में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। वातापी के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया। इस क्षेत्र में उनके कर्तृत्व पर हम अगले एक अध्याय में मध्यकाल की संस्कृति पर विचार करते हुए प्रकाश डालेंगे।
+
==कल्याणी का चालुक्य वंश==
 
+
राष्ट्रकूटों से पहले दक्षिणापथ में चालुक्यों का आधिपत्य था। उन्हीं को परास्त कर राष्ट्रकूटों ने अपनी शक्ति को स्थापित किया था। पर अन्तिम राष्ट्रकूट राजा कर्क का उच्छेद कर चालुक्यों ने एक बार फिर अपनी शक्ति का पुनरुद्धार किया। राष्ट्रकूटों के शासन काल में चालुक्यों का मूलोन्मूलन नहीं हो गया था। अपने अपकर्ष के काल में [[चालुक्य वंश]] के राजा राष्ट्रकूटों के सामन्त रूप में अपने क्षेत्र में निवास करते रहे थे। जिस राजा [[तैलप]] ने कर्क या करक को परास्त कर अपने वंश का उत्कर्ष किया, शुरू में उसकी स्थिति भी सामन्त की ही थी। राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर तैलप ने न केवल अपने को स्वतंत्र कर लिया, अपितु शीघ्र ही सारे दक्षिणापथ पर अपना शासन स्थापित कर लिया। पहले चालुक्यवंश की राजधानी वातापी थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने कल्याणी को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये कल्याणी के चालुक्य कहलाते हैं।
====कल्याणी का चालुक्य वंश====
+
#[[तैल चालुक्य|तैलप]]
राष्ट्रकूटों से पहले दक्षिणापथ में चालुक्यों का आधिपत्य था। उन्हीं को परास्त कर राष्ट्रकूटों ने अपनी शक्ति को स्थापित किया था। पर अन्तिम राष्ट्रकूट राजा कर्क का उच्छेद कर चालुक्यों ने एक बार फिर अपनी शक्ति का पुनरुद्धार किया। राष्ट्रकूटों के शासन काल में चालुक्यों का मूलोल्नूलन नहीं हो गया था। अपने अपकर्ष के काल में चालुक्य वंश के राजा राष्ट्रकूटों के सामन्त रूप में अपने क्षेत्र में निवास करते रहे थे। जिस राजा तैलप ने कर्क को परास्त कर अपने वंश का उत्कर्ष किया, शुरू में उसकी स्थिति भी सामन्त की ही थी। राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर तैलप ने न केवल अपने को स्वतंत्र कर लिया, अपितु शीघ्र ही सारे दक्षिणापथ पर अपना शासन स्थापित कर लिया। पहले चालुक्यवंश की राजधानी वातापी थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने कल्याणी को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये कल्याणी के चालुक्य कहलाते हैं।
+
#[[सत्याश्रय]]
====तैलप====
+
#[[विक्रमादित्य पंचम]]
कल्याणी के अपने सामन्त राज्य को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त कर तैलप ने मान्यखेट पर आक्रमण किया। परमार राजा सीयक हर्ष राष्ट्रकूटों की इस राजधानी को तहस-नहस कर चुका था, पर उसने दक्षिणापथ में स्थायी रूप से शासन करने का प्रयत्न नहीं किया था। वह आँधी की तरह आया था, और मान्यखेट को उजाड़ कर आँधी की ही तरह वापस लौट गया था। अब जब तैलप ने उस पर आक्रमण किया, तो राष्ट्रकूट राजा कर्क उसका मुक़ाबला नहीं कर सका। राष्ट्रकूट राज्य का अन्त हो गया, और तैलप के लिए दिग्विजय का मार्ग निष्कंटक हो गया। विजय यात्रा करते हुए तैलप ने सबसे पूर्व लाटदेश (दक्षिणी गुजरात) की विजय की, और फिर कन्नड़ देश को परास्त किया। कन्नड़ के बाद सुदूर दक्षिण में चोल राज्य पर चढ़ाई की गई। पर तैलप के सबसे महत्वपूर्ण युद्ध परमार राजा वाकपतिराज मुञ्ज के साथ हुए। परमार वंश के महत्वाकांक्षी राजा दक्षिणापथ को अपनी विजयों का उपयुक्त क्षेत्र मानते थे। सीयक हर्ष ने भी पहले मान्यखेट को ही अपनी महत्वाकांक्षाओं का शिकार बनाया था। वाकपतिराज मुञ्ज ने छः बार चालुक्य राज्य पर चढ़ाई की, और छठी बार उसे बुरी तरह से परास्त किया था। पर सातवीं बार जब उसने दक्षिणापथ में विजय यात्रा की, तो गोदावरी के तट पर घनघोर युद्ध हुआ, जिसमें मुञ्ज तैलप के हाथ पड़ गया, और चालुक्य राज ने उसका घात कर अपनी पुरानी पराजयों का प्रतिशोध लिया। इस प्रकार अपने कुल के गौरव का पुनरुद्धार कर 24 वर्ष के शासन के बाद 967 ई. में तैलप की मृत्यु हो गई।
+
#[[जयसिंह जगदेकमल्ल]]
 
+
#[[सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल]]
====सत्याश्रय====
+
#[[सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल]]
तैलप की मृत्यु के बाद सत्याश्रय चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उसके शासन काल की मुख्य घटना चोल राज्य के अधिपति राजराज प्रथम की दिगविजय है। राष्ट्रकूटों के शासन में चोल राज्य अनेक बार प्रतापी विजेताओं द्वारा आक्रान्त हुआ था। पर दक्षिणापथ में जब राष्ट्रकूटों की शक्ति क्षीण हुई, तो चोलों को अपने उत्कर्ष का अवसर मिल गया। राजराज प्रथम के रूप में वहाँ एक ऐसे वीर का प्रार्दुभाव हुआ, जिसने चोलशक्ति को बहुत बढ़ाया। चालुक्य राज सत्याश्रय चोल विजेता द्वारा बुरी तरह परास्त हुआ। पर राजराज प्रथम ने दक्षिणापथ में स्थिर रूप से शासन करने का प्रयत्न नहीं किया। अवसर पाकर सत्याश्रय फिर से स्वतंत्र हो गया। वह 997 से 1008 तक चालुक्य राज का स्वामी बना रहा।
+
#[[विक्रमादित्य षष्ठ]]
 
+
#[[सोमेश्वर तृतीय]]
====विक्रमादित्य====
+
==चालुक्य वंश का अन्त==
सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर विक्रमादित्य आरूढ़ हुआ। उसके समय के मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ, और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया। पर बाद में उसने भी विक्रमादित्य से हार खाई। इस राजा का शासन काल 1007 से 1016 तक था।
+
[[सोमेश्वर तृतीय]] के बाद कल्याणी के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में सोमेश्वर की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा कुमारपाल (1143-1171) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ।
====जयसिंह जगदेवमल्ल====
 
विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद जयसिंह चालुक्य राज का स्वामी बना। इसका विरुद्ध 'जगदेकमल्ल' था, जो इसकी वीरता का परिचायक है। उसके समय में परमार राजा भोज के साथ चालुक्यों का संघर्ष जारी रहा। कभी भोज ने जयसिंह को परास्त किया, और कभी जयसिंह ने भोज को। चोलराजा राजेन्द्र से भी जयसिंह के अनेक युद्ध हुए। इनमें भी विजयश्री ने स्थायी रूप से किसी एक का साथ नहीं दिया। 26 वर्ष के शासन के बाद 1047 ई. में जयसिंह की मृत्यु हो गई।
 
====सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल====
 
यह कल्याणी के चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी व शक्तिशाली राजा था। अपने विरुद 'आहवमल्ल' को सार्थक कर उसने दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं, और चालुक्यों के राज्य को एक विशाल साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया। इस समय चालुक्यों के मुख्य प्रतिस्पर्धी मालवा के परमार और सुदूर दक्षिण के चोल राजा थे। सोमेश्वर ने इन दोनों शत्रुओं के साथ घनघोर युद्ध किए। परमार राजा भोज को परास्त कर उसने परमार राज्य की राजधानी धारानगरी पर अधिकार कर लिया, और भोज को उज्जयिनी में आश्रय लेने के लिए विवश कर दिया। पर चालुक्यों का मालवा पर यह आधिपत्य देर तक स्थिर नहीं रह सका। कुछ समय बाद भोज ने एक बड़ी सेना को साथ लेकर धारा पर चढ़ाई की, और चालुक्यों के शासन का अन्त कर अपनी राजधानी में पुनः प्रवेश किया। सुदूर दक्षिण के चोल राजा से भी सोमेश्वर के अनेक युद्ध हुए, और कुछ समय के लिए काञ्जी पर भी चालुक्यों का आधिपत्य हो गया। पल्लव वंश की यह पुरानी राजधानी इस समय चोल शक्ति की महत्वपूर्ण केन्द्र थी।
 
  
पर केवल परमारों और चोलों के साथ हुए युद्धों में ही सोमेश्वर ने अपनी आहवमल्लता का परिचय नहीं दिया। चोलों को परास्त कर उसने उत्तरी भारत की दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। एक शक्तिशाली सेना को साथ लेकर उसने पहले जेजाकभुक्ति के चन्देल राजा को परास्त किया। महमूद गज़नवी इस राज्य को भी जीतने में समर्थ हुआ था, पर उसके उत्तराधिकारी के शासन काल में ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कीर्तिवर्मा नामक वीर चन्देल ने अपने पूर्वजों के स्वतंत्र राज्य का पुनरुद्धार कर लिया था। सोमेश्वर के आक्रमण के समय सम्भवतः कीर्तिवर्मा ही चन्देल राज्य का स्वामी था। चन्देल राज्य को जीतकर सोमेश्वर ने कच्छपघातों को विजय किया, और फिर गंगा-यमुना के उन प्रदेशों पर आक्रमण किया, जो कन्नौज के राज्य के अंतर्गत थे। अभी कन्नौज पर गहड्वाल वंश के प्रतापी राजाओं का आधिपत्य नहीं हुआ था, और वहाँ गुर्जर प्रतिहार वंश का ही शासन क़ायम था। जो कि इस समय तक बहुत निर्बल हो चुका था। कन्नौज का अधिपति चालुक्य राज सोमेश्वर के सम्मुख नहीं टिक सका, और उसने भागकर उत्तरी पर्वतों की शरण ली। चेदि के कलचूरी राजा कर्णदेव (1063-1093) ने चालुक्य आक्रमण का मुक़ाबला करने में अधिक साहस दिखाया, पर उसे भी सोमेश्वर के सम्मुख परास्त होना पड़ा। जिस समय सोमेश्वर स्वयं उत्तरी भारत की विजय यात्रा में तत्पर था, उसका पुत्र विक्रमादित्य पूर्वी भारत में अंग, बंग, मगध और मिथिला के प्रदेशों की विजय कर रहा था। विक्रमादित्य ने पूर्व में और आगे बढ़कर कामरूप (असम) पर भी आक्रमण किया, पर उसे जीतने में उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। पर यह ध्यान में रखना चाहिए कि सोमेश्वर और विक्रमादित्य की विजय यात्राओं ने किसी स्थायी साम्राज्य की नींव नहीं डाली। वे आँधी की तरह सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर छा गए, और वहाँ तहस-नहस मचाकर आँधी की तरह ही दक्षिणापथ लौट गए। इन दिग्विजयों ने केवल देश में उथल-पुथल, अव्यवस्था और अराजकता ही उत्पन्न की। कोई स्थायी परिणाम उनका नहीं हुआ। उसमें सन्देह नहीं कि सोमेश्वर एक महान विजेता था, और अनेक युद्धों में उसने अपने अनुपम शौर्य का प्रदर्शन किया था। 1068 में उसकी मृत्यु हुई। जीवन के समान उसकी मृत्यु भी असाधारण थी। एक रोग से पीड़ित होकर जब उसने अनुभव किया, कि उसके लिए रोग से छुटकारा पाना सम्भव नहीं है, तो तुंगभद्रा नदी में छलांग मारकर उसने अपने शरीर का अन्त कर लिया। इस प्रकार की मृत्यु के लिए जिस साहस की आवश्यकता थी, वही सोमेश्वर के सम्पूर्ण जीवन में उसके युद्धों और संघर्षों में प्रगट हुआ था।
 
====सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल====
 
अपने पिता की मृत्यु (1068 ई.) के बाद सोमेश्वर द्वितीय विशाल चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उत्तरी भारत की यात्राओं में जिस विक्रमादित्य ने अंग, बंग, मगध आदि की विजय कर अदभुत पराक्रम प्रदर्शित किया था, वह सोमेश्वर प्रथम का कनिष्क पुत्र था। पिता की मृत्यु के समय वह सुदूर दक्षिण में चोल राज्य के साथ संघर्ष में व्याप्त था। सोमेश्वर प्रथम की इच्छा थी, कि उसके बाद उसका सुयोग्य पुत्र विक्रमादित्य ही चालुक्य राज का स्वामी बने। पर उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर सोमेश्वर द्वितीय ने कल्याणी की राजगद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया, और विक्रमादित्य ने भी उसे चालुक्य राज्य के न्याय्य राजा के रूप में स्वीकृत किया। पर सोमेश्वर द्वितीय सर्वथा अयोग्य शासक था। उसके असद्व्यवहार से जनता दुखी हो गई, और चालुक्यों की राजशक्ति क्षीण होने लगी। इस स्थिति में 1076 ई. में विक्रमादित्य ने उसे राजगद्दी से उतारकर स्वयं कल्याणी के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।
 
====विक्रमादित्य द्वितीय====
 
इसमें सन्देह नहीं, कि विक्रमादित्य द्वितीय (यदि वातापी के चालुक्य वंश के राजाओं को भी दृष्टि में रखें, तो इसे विक्रमादित्य षष्ठ कहना चाहिए) बहुत ही योग्य व्यक्ति था। अपने पिता सोमेश्वर प्रथम के शासन काल में वह उसका सहयोगी रहा था, और उसकी विजय यात्राओं में उसने अदभुत शौर्य प्रदर्शित किया था। अब राजा बनकर उसने पूरी आधी सदी (1076-1126) तक योग्यतापूर्वक चालुक्य साम्राज्य का शासन किया। अपने पिता सोमेश्वर प्रथम के समान उसने भी दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं, और कलिंग, बुंग, मरु (राजस्थान), मालवा, चेर (केरल) और चोल राज्यों को परास्त किया। उसके शासन काल में चालुक्य साम्राज्य दक्षिण में कन्याकुमारी अन्तरीप से लेकर उत्तर में बंगाल तक विस्तृत था। काश्मीरी कवि विल्हण ने 'विक्रमांकदेवचरितम्' लिखकर इस प्रतापी राजा के नाम को अमर कर दिया है। विल्हण विक्रमादित्य द्वितीय की राजसभा का ही रत्न था। 'मिताक्षरा' का रचयिता विज्ञानेश्वर भी इसी सम्राट की राजसभा में निवास करता था। 'मिताक्षरा' वर्तमान समय में प्रचलित हिन्दू क़ानून का मुख्य आधार है।
 
====सोमेश्वर तृतीय====
 
1126 ई. में विक्रमादित्य द्वितीय का पुत्र सोमेश्वर तृतीय कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। वह भी प्रतापी और महत्वाकांक्षी राजा था। उसने उत्तरी भारत में विजय यात्राएँ कर मगध और नेपाल को अपना वशवर्त्ती बनाया। अंग, बंग, कलिंग पहले ही चालुक्य साम्राज्य की अधीनता को स्वीकार कर चुके थे। मगध भी पूर्ववर्त्ती चालुक्य विजेताओं के द्वारा आक्रान्त हो चुका था। सोमेश्वर तृतीय ने अपने कुल की शक्ति को बढ़ाकर नेपाल तक भी आक्रमण किए। सोमेश्वर प्रथम के समय से उत्तरी भारत पर और विशेषतया अंग, बंग तथा कलिंग पर दक्षिणापथ की सेनाओं के जो निरन्तर आक्रमण होते रहे, उन्हीं के कारण बहुत से सैनिक व उनके सरदार उन प्रदेशों में स्थिर रूप से बस गए, और उन्हीं से बंगाल में सेनवंश एवं मिथिला में नान्यदेव के वंश के राज्य स्थापित हुए। इसीलिए इन्हें 'कर्णाट' कहा गया है।
 
====चालुक्य वंश का अन्त====
 
सोमेश्वर तृतीय के बाद कल्याणी के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में सोमेश्वर की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा कुमारपाल (1143-1171) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ।
 
 
1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद तैल ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो कलचूरि वंश का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव का अपना मंत्री नियुक्त किया। भारत के धार्मिक इतिहास में वासव का बहुत अधिक महत्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। इस सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हम अगले एक अध्याय में विस्तार से लिखेंगे। विज्जल स्वयं जैन था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र सोविदेव ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में कल्याणी के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।
 
1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद तैल ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो कलचूरि वंश का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव का अपना मंत्री नियुक्त किया। भारत के धार्मिक इतिहास में वासव का बहुत अधिक महत्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। इस सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हम अगले एक अध्याय में विस्तार से लिखेंगे। विज्जल स्वयं जैन था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र सोविदेव ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में कल्याणी के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।
  

Revision as of 11:37, 1 October 2010

dakshinapath maury samrajy ke aantargat tha. jab maury samratoan ki shakti shithil huee, aur bharat mean anek pradesh unaki adhinata se mukt hokar svatantr hone lage, to dakshinapath mean satavahan vansh ne apane ek prithak rajy ki sthapana ki. kalantar mean is satavahan vansh ka bahut hi utkarsh hua, aur isane magadh par bhi apana adhipaty sthapit kar liya. shakoan ke sath nirantar sangharsh ke karan jab is rajavansh ki shakti kshin huee, to dakshinapath mean anek ne rajavanshoan ka pradurbhav hua, jisamean vakatak, kadamb aur pallav vansh ke nam vishesh roop se ullekhaniy hai.

vakatak vansh ke raja b de pratapi the, aur unhoanne videshi kushanoan ki shakti ka kshay karane mean bahut adhik kartritv pradarshit kiya tha. in rajaoan ne apani vijayoan ke upalakshy mean anek ashvamedh yajnoan ka bhi anushthan kiya. paanchavian sadi ke prarambh mean guptoan ke utkarsh ke karan is vansh ke rajy ki svatantr satta ka ant hua. kadamb vansh ka rajy uttari kanara belagaanv aur dharava d ke pradeshoan mean tha. pratapi gupt samratoan ne ise bhi gupt samrajy ki adhinata mean lane mean saphalata prapt ki thi. pallav vansh ki rajadhani kaanchi (kanjivaram) thi, aur samrat samudragupt ne usaki bhi vijay ki thi. gupt samrajy ke kshin hone par uttari bharat ke saman dakshinapath mean bhi anek rajavanshoan ne svatantratapoorvak shasan karana prarambh kiya. dakshinapath ke in rajyoan mean chaluky aur rashtrakoot vanshoan ke dvara sthapit rajy pradhan the. unake atirikt devagiri ke yadav, varangal ke kakatiy, koankan ke shilahar, banavasi ke kadamb, talakad ke gang aur dvarasamudr ke hoyasal vanshoan ne bhi is yug mean dakshinapath ke vividh pradeshoan par shasan kiya. jis prakar uttari bharat mean vividh rajavanshoan ke pratapi v mahatvakaankshi raja vijay yatraean karane aur any rajaoan ko jitakar apana utkarsh karane ke lie tatpar rahate the, vahi dasha dakshinapath mean bhi thi.  

  1. pulakeshi pratham
  2. kirtivarma
  3. pulakeshi dvitiy
  4. vikramadity pratham (655--681)
  5. vinayadity
  6. vijayadity
  7. vikramadity dvitiy
  8. kirtivarma dvitiy

chaluky shakti ka ant

vikramadity dvitiy ke bad 744 ee. ke lagabhag kirtivarma dvitiy vishal chaluky samrajy ka svami bana. par vah apane poorvajoan dvara sthapit samrajy ko qayam rakhane mean asamarth raha. dantidurg namak rashtrakoot neta ne use parast kar maharashtr mean ek ne rajavansh ki nianv dali, aur dhire-dhire rashtrakootoan ka yah vansh itana shaktishali ho gaya, ki chalukyoan ka ant kar dakshinapath par apana adhipaty sthapit kar liya. chalukyoan ke rajy ka ant 753 ee. ke lagabhag hua. vatapi ke chaluky raja n keval vir aur vijeta the, apitu unhoanne sahity, vastukala adi ke sanrakshan v sanvardhan ki or bhi apana dhyan diya.

kalyani ka chaluky vansh

rashtrakootoan se pahale dakshinapath mean chalukyoan ka adhipaty tha. unhian ko parast kar rashtrakootoan ne apani shakti ko sthapit kiya tha. par antim rashtrakoot raja kark ka uchchhed kar chalukyoan ne ek bar phir apani shakti ka punaruddhar kiya. rashtrakootoan ke shasan kal mean chalukyoan ka moolonmoolan nahian ho gaya tha. apane apakarsh ke kal mean chaluky vansh ke raja rashtrakootoan ke samant roop mean apane kshetr mean nivas karate rahe the. jis raja tailap ne kark ya karak ko parast kar apane vansh ka utkarsh kiya, shuroo mean usaki sthiti bhi samant ki hi thi. rashtrakootoan ki nirbalata se labh uthakar tailap ne n keval apane ko svatantr kar liya, apitu shighr hi sare dakshinapath par apana shasan sthapit kar liya. pahale chalukyavansh ki rajadhani vatapi thi, par is naye chaluky vansh ne kalyani ko rajadhani banakar apani shakti ka vistar kiya. isilie ye kalyani ke chaluky kahalate haian.

  1. tailap
  2. satyashray
  3. vikramadity pancham
  4. jayasianh jagadekamall
  5. someshvar pratham ahavamall
  6. someshvar dvitiy bhuvanaikamall
  7. vikramadity shashth
  8. someshvar tritiy

chaluky vansh ka ant

someshvar tritiy ke bad kalyani ke chaluky vansh ka kshay shuroo ho gaya. 1138 ee. mean someshvar ki mrityu ho jane par usaka putr jagadekamall dvitiy raja bana. is raja ke shasan kal mean chalukyoan mean nirbalata a gee. anhilava da kumarapal (1143-1171) ke jagadekamall ke sath anek yuddh hue, jinamean kumarapal vijayi hua.

1151 ee. mean jagadekamall ki mrityu ke bad tail ne kalyani ka rajasianhasan prapt kiya. usaka mantri v senapati vijjal tha, jo kalachoori vansh ka tha. vijjal itana shaktishali vyakti tha, ki usane raja tail ko apane hathoan mean kathaputali ke saman bana rakha tha. bahut se samant usake hathoan mean the. unaki sahayata se 1156 ee. ke lagabhag vijjal ne tail ko rajyachyut kar svayan kalyani ki rajagaddi par apana adhikar kar liya, aur vasav ka apana mantri niyukt kiya. bharat ke dharmik itihas mean vasav ka bahut adhik mahatv hai. vah liangayat sampraday ka pravartak tha. jisaka dakshini bharat mean bahut prachar hua. is sampraday ke sambandh mean ham agale ek adhyay mean vistar se likheange. vijjal svayan jain tha, atah raja aur mantri mean virodh utpann ho gaya. isake parinamasvaroop vasav ne vijjal ki hatya kar di. vijjal ke bad usake putr sovidev ne rajy prapt kiya, aur vasav ki shakti ko apane qaboo mean lane mean saphalata prapt ki. dharmik virodh ke karan vijjal aur sovidev ke samay mean jo avyavastha utpann ho gee thi, chaluky raja tail ke putr someshvar chaturth ne usase labh uthaya, aur 1183 ee. mean sovidev ko parast kar chaluky kul ke gaurav ko phir se sthapit kiya. par chalukyoan ki yah shakti der tak sthir nahian rah saki. vijjal aur sovidev ke samay mean kalyani ke rajy mean jo avyavastha utpann ho gee thi, usake karan bahut se samant v adhinasth raja svatantr ho ge, aur any anek rajavanshoan ke pratapi v mahatvakaankshi rajaoan ne vijay yatraean kar apani shakti ka utkarsh shuroo kar diya. in pratapi rajaoan mean devagiri ke yadav raja bhillam ka nam vishesh roop se ullekhaniy hai. 1187 ee. mean bhillam ne chaluky raja someshvar chaturth ko parast kar kalyani par adhikar kar liya, aur is prakar pratapi chaluky vansh ka ant hua.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

sanbandhit lekh

Template:chaluky rajavansh