कायथा: Difference between revisions

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कायथा नामक पुरास्थल उज्जैन से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर पूर्व दिशा में चम्बल नदी की सहायक नदी काली सिंध के दाहिने तट पर काली मिट्टी के मैदान में स्थित है। कायथा पुरास्थल की खोज का श्रेय वी.एस. वाकणकर को जाता है, जिन्होंने इस कायथा पुरास्थल को सन् 1964 ई. में खोज निकाला था।

इतिहास

कायथा का समीकरण 'बृहज्जातक' नामक ग्रंथ में उल्लिखित प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर के जन्मस्थान 'कपित्थक' से किया जाता है। आजकल कायथा के टीले के अधिकतर भाग पर बस्ती बसी हुई है, इस कारण बहुत कम स्थान उत्खनन के लिए उपलब्ध हो पाते है। टीले के उत्तरी कायथा संस्कृति के लोग आकर छोटे क्षेत्र में बसे थे। बाद में अहाड़ (आहड़) संस्कृति के लोगों ने अपेक्षाकृत बड़े भू-भाग पर अपनी बस्ती बसायी। कायथा के टीले पर ताम्रपाषाण युग से लेकर गुहाकाल तक के स्तर मिले हैं।

उत्खनन

कायथा पर 1965-1967 ई. में उत्खनन करवाया गया। परिणाम स्वरूप एक सर्वथा अज्ञात ताम्रपाषाणिक संस्कृति के विषय में जानकारी मिली। उत्खनन में प्राप्त सामग्री के आधार पर इसे पाँच स्तरों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम, कायथा संस्कृति (2000-1800 ई.पू.); द्वितीय, अहाड़ संस्कृति (1700-1500 ई.पू.);तृतीय, मालवा संस्कृति( 1500-1200 ई.पू.) चतुर्थ, प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल (600-200 ई.पू.) तथा पंचम, शुंग-कुषाण-गुप्त काल (200 ई.पू. से 600 ई. तक)। इन पाँच पुरा संस्कृतियों में से प्रथम तीन ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ हैं। प्रथम कायथा संस्कृति पूर्व ज्ञात किसी अन्य ताम्र-पाषाण संस्कृति से पुरानी एवं एकदम भिन्न है। कायथा संस्कृति में तीन मृद्भाण्ड परम्पराएँ मिलती हैं। पहली हल्के गुलाबी रंग की है, जिस पर बैंगनी रंग में चित्रकारी मिलती है। मुख्य पात्र हैं- हाँडी, कटोरे, तसले एवं मटके। अनेक पात्रों की पेंदी में वलय आकार का आधार है। दूसरी परम्परा पाण्डुरंग की है। बर्तनों पर लाल रंग की चित्र-सज्जा है। मझौले आकार के लोटे इसके मुख्य पात्र हैं। तीसरी बिना अलंकरण के लाल रंग की मृद्भाण्ड परम्परा है। इसके मुख्य पात्र आरेखित हैं। और कटोरे तथा थालियाँ मुख्य पात्र हैं। इनके अतिरिक्त हस्तनिर्मित लाल-भूरे रंग के मिट्टी के बर्तन भी मिले हैं, जिन पर ऊपर से चिपकाये अलंकरण भी हैं। इनमें नाँद, तसले, बड़े कटोरे आदि उल्लेखनीय हैं।

संस्कृति

कायथा संस्कृति के लोग अपने मकान घास-फूस एवं बाँस के बनाते थे। कायथा संस्कृति के लोग ताँबे के औजार एवं उपकरण बनाने के ज्ञाने से परिचित थे। यहाँ से ताँबे की चूड़ियाँ, कुल्हाड़ियाँ एवं ताँबे की छेनी मिली है। कुल्हाड़ियाँ साँचे में ढ़ालकर बनायी गयी हैं। इसके साथ ही पाषाण के लघु उपकरणों के प्रमाण भी मिले हैं। यहाँ से कई तरह के मनकों के हार भी मिले हैं। कायथा से आहड़ संस्कृति के स्तर से हस्तनिर्मित रुक्ष मृद्भाण्ड और लाल रंग के मृद्- पात्र तथा वृषभ मृण्मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में मिली हैं। इस स्तर के मकान कंकड़-पत्थर एवं पीली मिट्टी को कूटकर बनाये गये थे। मालवा संस्कृति के स्तर में लाल एवं गुलाबी रंग की पात्र-परम्परा विशिष्ट है। इस काल में लघु पाषाण उपकरणों में ब्लैड प्रचुर मात्रा में मिले हैं। गोल घड़े, कटोरे एवं थालियाँ मुख्य पात्र-प्रकार हैं। बाद के ऐतिहासिक काल में प्राचीन पात्र-परम्परा का स्थान नवीन पात्र-परम्परा ले लेती है। ताँबे एवं पाषाण उपकरणों का स्तर में अभाव हैं। लौह उपकरण मिलते हैं। इस स्तर से आहत सिक्के भी मिले हैं। अंतिम स्तर शुंग-कुषाण-गुप्त-काल से अनेक प्रकार के मृद- पात्र मिलते हैं। कायथा से प्राप्त सामग्री अत्यधिक पुरातात्त्विक महत्त्व की है। यहाँ से प्राप्त भिन्न प्रकार की सामग्री के आधार पर विभिन्न ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों का स्वतंत्र उद्भव का मत बहुत सम्भव लगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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